गोलज्यू देवता की जन्म स्थली धरतीधार कोट का अनूठा मंदिर..! जहाँ मन्नत पूरी होने पर चढ़ाए जाते हैं काठ के घोड़े।
(मनोज इष्टवाल)
पुरा कुर्मांचले पुण्ये धूमाकोटाभिधे पुरे.
हालरायाभिधो भूपो बभूव बहुविश्रुतः..
तलरायस्य पौत्रोsसौ झालरायस्य चात्मजः.
क्रमप्राप्तं निजं राज्यं पालयामास धर्म्मवित्..”
-श्रीग्वल्लदेवचरितम्,3.2-3।
प्रथम दृष्टा ही दिमाग में एक बात कौंधती है कि कहीं यह दारती धार (धर्ती धार) का मन्दिर गोलज्यू देवता का तो नहीं? लेकिन फिर प्रश्न उठता है कि गोलज्यू देवता मंदिर है तो इसका नामकरण दारती धार क्यों? जोहार घाटी के हिमालयी क्षेत्र में गाँवों से सुदूर 10000 फिट की ऊँचाई पर अवस्थित इस मन्दिर की खूबी यह है कि यह मन्नत पूरी होने पर बोना व गोल्पा गाँव के लोग काठ का घोड़ा बनाकर चढाते हैं!
क्या कभी यह सोचा जा सकता है कि आपको साढ़े नौ से 10 किमी. चलने में पूरे साढ़े छ : घंटे लग जाएंगे? यह आम पहाड़ी व्यक्ति की बात नहीं बल्कि एक ट्रैकर की बात कर रहा हूँ। आज भी 25 अप्रैल 2022 की वह सुनहरी सुबह आँखों में दिव्य स्वप्न की भांति ओजपूर्ण महसूस होती है। आँखें बंद करते ही महसूस होने लगता है कि हम किसी दिव्य लोक की यात्रा में हैं, जहाँ शुकुन शान्ति सद्भाव प्रकृति का उल्लार व उल्हास बिखरा पड़ा है। आज से ही हमारी वह 12 दिवसीय श्री गोलज्यू सन्देश यात्रा का शुभारम्भ हुआ था। जिसकी अगुवाई पूर्व पुलिस महानिरीक्षक जी एस मर्तोलिया जी कर रहे थे। हम इन 12 दिवसीय यात्रा में गोलज्यू देवता के गढ़वाल कुमाऊं के 12 पड़ावों की यात्रा करेंगे। यह ऐतिहासिक इसलिए भी है क्योंकि इस से पूर्व का अगर इतिहास खंगाला जाय तो ऐसा कभी किसी के द्वारा नहीं हुआ है। मुझे लगता है हर 12 बर्ष में न्याय के देवता गोलज्यू की ऐसी ही यात्रा निकाली जानी चाहिए।
विगत 23 अप्रैल 2022 को हम गोलज्यू देवता की जन्मभूमि के दर्शन हेतु घोड़ाखाल नैनीताल से निकले थे। यह बताने की शायद आवश्यकता नहीं पड़ेगी कि गोलज्यू देवता के पूर्वज झलराय, हलराय माँ कलंदरा व सात सौतिया माँओं का यह धौली-धुंआगढ़ (जहां सफ़ेद धुँवे के आकार में आकाश व पृथ्वी का मिलन है)…! जो अप भ्रंश होता हुआ गोलज्यू देवता की जागरों में धौळी-धुमा गढ़ हुआ तो किसी ने इसे दुर्मागढ़ भी कहा। कालांतर में इसी का नाम स्थानीय लोगों के मध्य दरातीधार /धर्तीधार/धरती धार के नाम से चलन में है। यह स्थान ट्रेल पास का वह हिमालयी क्षेत्र है जो तिब्बत की सीमा को भारत से जोड़ता है।
यूँ तो मेरे द्वारा 2013 से न्याय के देवता गोरिल/गोलज्यू पर शोध प्रारम्भ किया गया था। लेकिन यह शोध पूरे सात साल चला। जिसमें 18 मार्च 2018 गोलज्यू देवता के पिता झलराय का उक्कू महल (यह महल ढोकावीर व साटन भड्ड ने एक ही रात में पूरा किया। जिस पर भारत के अस्कोट क्षेत्र के चमलेख पश्चिमी नेपाल के महाकाली आँचल के ज़िला दार्चुला के गौरी नदी व काली नदी जोकि जौलजीवि भारत में एक् दूसरे से मिलती है के मध्य स्थित नेपाल राष्ट्र की उक्कु गा.वि.स. के महल में गोरिल देवता के दादा हलराई झलराई के वंशजो का किला है ज़िसके पाषानों में खुदी भाषा आज तक कोई नहीं पढ़ पाया है।) की खोज की, जहाँ गोलज्यू के पिता झलराय व माँ कलंदरा की पहली भेंट हुई थी। व इस खोज के लिए हमें बुद्धिजीवियों का बड़ा प्रोत्साहन उनके शब्दों में प्राप्त हुआ। तदोपरांत बिंता उदयपुर के गोल्ज्यू देवता के दरबार में जब डांगरिये द्वारा उक्कू महल की बात अपनी जागर शैली के गायन में रखी गयी, तब माथा ठनका और इस बर्ष 2020 में मैंने आखिरकार गोलज्यू देवता का जन्म स्थल धौळी-धुमागढ को तलाश ही लिया।
10 नवंबर 2021 को पूर्व पुलिस महानिरीक्षक जी एस मार्तोलिया की अध्यक्षता में “अपनी धरोहर सोसायटी” का नैनीताल क्लब में श्री गोलज्यू सन्देश यात्रा संबंधी आमंत्रण मिला। जिसमें मेरे द्वारा गोलज्यू देवता के जन्मस्थल, झलराय के उक्कू महल, गोलज्यू व तम्बोला घुघूती के संवाद में चम्पावत, न्यायदेवता चितई, घोड़ाखाल सहित वे तमाम तथ्य प्रमाणिकता के तौर पर रखे गए जो मैंने जागरों के माध्यम से सुने थे व प्रमाण यथावत स्थानों पर ढूंढ भी निकाले थे। तब तय हुआ और यात्रा के 12 पड़ाव का रोड मेप तैयार हुआ, जिसका प्रारम्भ 25 अप्रैल 2022 से गोलज्यू देवता के जन्म स्थान धरतीधार से रखा गया।
बहरहाल आज 23 अप्रैल 2022 की हम (श्री जीवन जोशी,कैलाश चंद्र सुयाल जी व बी के भट्ट जी के साथ) घोड़ाखाल से धरतीधार के लिये निकल पड़े हैं। व रात्रि विश्राम के लिए जिलाधिकारी नैनीताल व कुमाऊं मंडल विकास निगम के एम डी धिराज गर्ब्याल साहब को अनुरोध किया तो उन्होंने हमें मुनस्यारी केएमवीएन के बंगले में ठहरने की व्यवस्था करवा दी है। गोलज्यू धाम घोड़ा खाल से आशीर्वाद प्राप्त कर खीना-पानी में स्थित जोहार दारमा घाटी की सेठाणी जसुली शौक्याणी के रह बासे से हमने अपनी यात्रा प्रारम्भ की।
मुनस्यारी से बौना गांव
मुनस्यारी से हमें उतरकर गोरी नदी तट पर बसे गोलज्यू देवता के रैबासा मदकोट उतरना था जहाँ वे काल भैरव के रूप में माँ काली के साथ विराज हैं। श्री गोल्ज्यू सन्देश यात्रा के साथियों को रथ के साथ यात्रा करते हुए मदकोट पहुंचना था जिनका हमने मदकोट में लगभग दो घंटे इन्तजार किया व दिन का भोजन साथ कर गोलज्यू देवता के जयकारों के साथ हम गोरी नदी पर बने मंदाकिनी पुल पार कर देवी बगड़ नामक स्थान से बायीं ओर मुड़ कर चढ़ाई चढ़ने वाली सड़क पर बौना गाँव के लिए निकल पड़े जबकि ढाल पर उतरती रोड गोरी व काली नदी संगम जौलजीवी के लिए निकल जाती है। हम वल्थी, निरतोली, झापुली होते हुए 24 अप्रैल 2022 को लगभग चार बजे मदकोट से 30 किमी का सफर करके जोहार घाटी के मल्ला जोहार के बौना गाँव गांव गाँव पहुंचे। निरतोली ग्राम सभा के बाद एक तीखे मोड़ के पश्चात जब मल्ला जोहार घाटी खुलती है तो आँखें आश्चर्य चकित हो जाती हैं। यह घाटी जितनी खूबसूरत नजर आती है उतनी ही डरावनी तब लगती है जब आप सड़क से नीचे की और झांकते हैं। झापुली ग्राम सभा के अंतर्गत ऊंचाई से गिरने वाला झरना मन मोह लेता है। बौना गाँव पहुँचने पर सैकड़ों क्षेत्रीय गणमान्य लोगों के साथ बौना गाँव के लोगों द्वारा फूल मालाओं से गाँव की सीमा में हमारा स्वागत किया गया। हमारे स्वागत में मंगल गीत गाये गए। उप आयकर आयुक्त खड़क सिंह रावत जी के आवास में फिर बैठकी हुई व तदोपरान्त चाय पानी की व्यवस्था के पश्चात हमें गाँव के मंदिर छिपला केदार के दर्शन करवाये गए। फिर थोड़ा सुस्ता लेने के बाद फिर रात्रि काल में सांस्कृतिक कार्यक्रमों से पूर्व पूर्व पुलिस महानिरीक्षक जी एस मार्तोलिया जी ने श्री गोलज्यू संदेश यात्रा के बारे में जानकारियां दी। देर रात्रि तक कीर्तन भजन चलते रहे। रात्रि बिश्राम के बाद अल सुबह गाँव के से हमारी यात्रा गोलज्यू देवता की जन्म स्थली मंदिर छिपला केदार धर्तीधार से प्रारम्भ हुई “श्री गोलज्यू संदेश यात्रा”।
बौना गाँव से धरतीधार का सफर
यूँ तो इस सफर में गाँव की सरहद तक सैकड़ों की संख्या में लोग हमें यात्रा की सुमंगल कामना के साथ विदा करने आये थे जिसमें मातृ शक्ति बहुतायत्त संख्या में थी लेकिन धरतीधार की यात्रा के लिए हम पांच दर्जन से अधिक यात्री निकल पड़े थे। गाँव के खेतों के पार ही बुग्याली दल-दली धरती खारिंग की दूरी लगभग 2 किमी. है, जहाँ से हमें अब नाक की तरह खड़ी चढ़ाई पार कर 4.5 किमी मोखलखान धार पहुंचना था। यह सच कहें तो यात्रा की अग्नि परीक्षा का पहला पड़ाव था। क्या आप सोच सकते हैं कि सिर्फ साढ़े चार किमी. की चढ़ाई चढ़ने के लिए आपको दो से ढाई घंटा चलना पड़ेगा। मोखलखान धार से जंगल शुरू हो जाते हैं जिनमें देव दार व सुरई बुरांस इत्यादि के वृक्ष व जड़ी बूटियों का अकूत भंडार आपको दिखने को मिलेगा। तदोपरांत यहाँ से तोमिकचैन धार के लिए डेढ़ से दो किमी. थकान भरी चढ़ाई चढ़नी होती है। इस धार के दूर तोमिक चैन गाँव की सुरम्य वादियां दिखाई देती हैं व गाँव चमकता दीखता है। यहां विश्राम करना भी जरुरी है क्योंकि यहाँ आती ठंडक भरी हवा आपकी थकान तो मिटाती ही मिटाती है, आपका पसीना भी सुखाती है व आपको ऊर्जा से भी भर देती है। अब यहाँ से आपको ज्यादा खड़ी चढ़ाई नहीं चढनी पड़ती बल्कि आपको एक से डेढ़ किमी. लगभग सर्प के मानिंद जिगजैक चढ़ना उतरना होता है। यह स्थान म्यालथौड़ कहलाता है। यहाँ पानी के स्रोतों के पास तम्बू डाले कुछ ग्रामीण जो रात में ही आ गए थे हमारे लिए चाय -नाश्ते की तैयारी पर जुटे हुए थे। यह स्थान म्यालथौड़ धार से बमुश्किल आधा किमी. पहले होगा।
म्यालथौड़ धार पहुंचकर तो लगता है मानों आप दूसरी दुनिया में आ गए हैं। यहाँ देवताओं की फूलों की क्यारियां ढलवा बुग्यालों में दिखने को मिलत्ती हैं, जहाँ ऊँची हिम शिखरों पर ब्रह्म कँवल, नीली-पीली जयाण,जाई , चाउफुलुटिया, फ्योंलि और बुरांस इत्यादि के फूल आपका मन मोह लेते हैं। अगर आप सोचते हैं कि बुरांश सिर्फ सुख लाल गुलाबी या सफ़ेद ही होते हैं, तो यहाँ आकर देखिये आपके सारे मिथक टूट जाएंगे क्योंकि यहाँ बुरांस के फूलों के उतने रंग आपको दिखाई देंगे जितने प्रकृति ने हमें रंग प्रदत्त किये हैं। इसी लिए यहाँ का नाम स्थानीय लोगों ने बुरांसन धार रखा हुआ है। यहाँ सबको हिदायत है कि बुरांस के झुंडों के बीच फोटो तो अवश्य खिंचवाईये लेकिन तोड़कर उन्हें सूंघने की गलती मत कीजिये वरना आप बेहोश भी हो सकते हैं व यहाँ से लगभग साढ़े तीन किमी. की दूरी पर स्थित धरती धार पहुँचने के लिए आपके पैरों में इतनी जान नहीं रहेगी कि आप उसे आसानी से चढ़ लें। यहाँ से ऑक्सीजन की मात्रा भी काम हो जाया करती है।
धरती धार यानि पृथ्वी का स्वर्ग
आखिर मैं 6:38 घंटे की यात्रा के बाद लगभग 11 किमी. चढ़ाई चढ़कर 10000 फिट से अधिक ऊंचाई पर स्थित पृथ्वी का स्वर्ग कहें तो धरती धार पहुँचने में कामयाब रहा। जबकि उप आयकर आयुक्त खड़क सिंह रावत जी के आधार पर यह दूरी लगभग 9:30 किमी है। मेरे पीछे चलने वाले कम ही लोग थे व आगे बढ़कर धरती धार पहुँचने वाले बहुतेरे लोग। जीवन चंद्र जोशी जी की आवाज पूरी घाटी में गुंजायमान हो रही थी। वे लगातार गोलज्यू देवता के जयकारे लगाते हुए आगे बढ़ रहे थे ऐसा लग रहा था मानों उन पर कोई अद्भुत शक्ति आ गयी हो।
गोरिल, गोलू, गोलज्यू, गौर भैरव, गोरिल कन्डोलिया और जाने कितने अन्य नामों से जाने गए गोलज्यू देवता के जागरों को जब आप ध्यान लगाकार सुनें तब पता चलता है कि गोलज्यू देवता के दादा हलराय व पिता झलराय भी धौली-धुमागढ़ के अधिपति थे! इतिहासकारों ने सुविधानुसार इसे धौली नदी व धुमागढ़ को धुमाकोट से जोड़ दिया व सारे वृत्तांत को उलझा दिया! कई इतिहासकारों ने तो हलराय झलराई व गोलज्यू को चम्पावत का राजा बता दिया जबकि चम्पावत की स्थापना कत्यूरी राजवंश के बाद लगभग 11वीं सदी में हुई बताई जाती है व गोलज्यू देवता को कत्युरी काल से पहले यानि सातवीं-आठवीं सदी का बताया जाता है। ऐसे में इतिहास का यह मिश्रण दिग्भ्रमित करता है। धौली-धुमागढ की अगर ढूंढ की जाय तो स्वाभाविक सी बात है कि वह मल्ला जोहार घाटी में होना चाहिए वह भी गोरी नदी के उद्गम के आस-पास ! क्योंकि गोलज्यू की जागर में स्पष्ट है कि सौतिया ढाह के चलते रानी कलिंगा की सात सौतों ने गोलज्यू को लोहे के बख्शे में बंद कर बहा गोरी नदी में बहा दिया था जिसे भाना धेवर नामक मछवारे ने काली नदी-गोरी नदी संगम के पास अपने जाल में फंसाकर बाहर निकाल दिया था। बक्से में बालक को देखकर उसका क्या नाम दें इसी असमजंस में भाना धेवर ने गोरी नदी से बहकर आने के कारण बालक का नाम गोरिल रख दिया। स्वाभाविक सी बात है कि जौलजीवि पर काली व गोरी नदी का संगम है व गोरी नदी घाटी जिसे तल्ला-मल्ला जोहार कहते हैं शौका यानि शक जाति के नाम से जानी जाती है। जिसका सीधा सा अर्थ है कि धौली-धूमागढ़ मदकोट से लेकर हिमालयी दर्रे में कहीं होना चाहिए।
हो न हो दारती धार (धर्ती धार) कालान्तर में वही स्थान रहा हो जहाँ गोलज्यू ने अपनी सौतेली माँओं को अपने काठ के घोड़े को पानी पीने देने की बात कही थी, क्योंकि यहाँ पौराणिक काल से लेकर काठ के घोड़े चढाने का रिवाज है। काठ की कठघोड़ी के बारे में निम्नलिखित प्रसंग जोड़े जा सकते हैं जिनमें कुमाऊं में प्रचलित एक काव्यगीत या कहावत के अनुसार कहा गया है कि:-
“गौंs गौंs घर कूड़ी आवा, यस चली हाउ।
गोलू की कठघोड़ी घूमू, अजुगति काउ।
जाँ काठैs कठघोड़ी जाँछ, लागि जाँछ म्याल।
ओ भाना कुंवर त्यर, दूध कस ब्याल।।”
(गाँव-गाँव घर-घर अब ऐसी अफवा चली है कि लकड़ी के घोड़े में गोलू घूमने जाता है! यह एक अनहोनी बात है! जहाँ कहीं भी यह काठ की कठघोड़ी जाती है, वहां देखने वालों का मेला लग जाता है! बहाना धेवर का यह कुंवर दिखने में अति सुंदर है, मानों दूध का कटोरा है!) श्री गोल ज्यू काथ(श्री गोलू देव की कथा, पृष्ठ ७२/कवि कृष्ण सिंह भाकुनी)!
वहीँ जाने माने इतिहासकार शिब प्रसाद डबराल “चारण” अपनी पुस्तक “प्राग-एतिहासिक उत्तराखंड अध्याय –वैदिक आर्य, पृष्ठ 160 में लिखते हैं कि “इस (शक) जाति का देव चिह्न अश्व था। अनुमान किया जाता है कि पश्चिमी एशिया में अश्व पालने वाली सबसे पहली जाति यही थी।”
इतिहासकार सुरेन्द्र सिंह पांगती अपनी पुस्तक शौका प्रदेश का प्रागैतिहास (तथा इतिहास कालक्रम व जोहार के कुछ अछूते प्रसंग) के अध्याय-10 पृष्ठ संख्या 135/138 में क्रमशः लिखते हैं कि “गोरीगंगा घाटी के बोना गाँव के ऊपर 10 हजार फीट की ऊँचाई में स्थित दरती-धार में प्रति बर्ष दीवाली से पूर्व एक पूजा अनुष्ठान होता है, जिस में काठ का घोड़ा चढ़ाया जाता है।” वह आगे लिखते हैं- “कुमाऊं के चंदवंशीय राजाओं की राजधानी अल्मोड़ा स्थित किला (जहाँ वर्तमान में जनपदीय मुख्यालय स्थित है, के मध्य में स्थित महा-लक्ष्मी मंदिर की दीवार पर उकेरी गयी अष्ट कमल-दल, नवग्रह कुंडली में कमल-दलों के बाहर उत्तर दिशा में घोड़ा अंकित किया गया है। पूर्व में मेंढा, दक्षिण में कव्वा तथा पश्चिम में हाथी अंकित किये गया है। कदाचित उत्तर दिशा में स्थित सीमान्त घाटियों के शौका निवासियों के अश्व देवचिन्ह को दर्शाया गया है।”
बोनागांव (जोहार मल्ला)
11 मार्च 2018 को मैं अपने सहयोगी जीवनचन्द जोशी व दिनेश भट्ट, श्रीमती कविता जोशी, गरिमा जोशी व हरीश जोशी के साथ इस क्षेत्र का भ्रमण किया था, पहले उक्कु महल और फिर हमने कोशिश की कि हम गोरी नदी के उद्गम स्थान की ओर बढ़ें लेकिन मदकोट को ही हम यह मानकर कि हो न हो यही जोहार घाटी गोरिल के पिता झलराय का धौली-धुमागढ रहा हो।
उत्तराखंड का इतिहास लिखना वास्तव में बहुत टेडी खीर है क्योंकि यहाँ लिखित से ज्यादा मौखिक तथ्यों का किंवदन्तियों का व लोकगाथाओं का पीछा करते हुए आपको वृत्तांत जोड़ना पड़ता है जिस पर कई इतिहासकार सन्दर्भों की कमी के कारण पूरे शोध पर पानी फेर देते हैं। ऐसे में हम सबसे पहले शौका जाति अर्थात शक वंशजों के आगमन से इस पूरे प्रकरण को जोड़ते हैं। इतिहासविदों का मानना है कि यह जाति प्रथम सदी के प्रारम्भ में शकस्थान (ईरान के पूर्वी भाग) बाल्हिक से होकर भारत पहुंची। यहाँ आकर वह तक्षशिला, मथुरा व उज्जयनी में आ बसे। लेकिन अष्टाध्यायी से पता चलता है कि यह जाति विक्रम संवत पूर्व पांचवी सदी(शती) उत्तर पश्चिम भारत में आ बसी। यह ज्यादा बलबती इसलिए कही जा सकती है क्योंकि खस जाति कभी भी उच्च हिमालयी क्षेत्र में नहीं बसी सिर्फ शक जाति ने ही उच्च हिमालयी क्षेत्र पर अपना अस्तित्व स्थापित किया है।
धर्तीधार मंदिर के पास ही जस्सू उडियारी है। कुछ लोगों मानना है यह गुफा झल्लूराई की झल्लू उड़ियारी कही जाती है जो अपभ्रंश होकर जस्सू कहलाई जाने लगी तो कुछ लोगों का मानना है कि यहाँ गोरिल देवता के पिता अक्सर हिमालयी मृगों का शिकार करने के लिए रुका करते थे, कुछ इसे सत्रहवीं सदी-अठाहरवीं सदी के शौका जनजाति के जसपाल बूढा से जोड़कर देखते हैं जिसने 9 बार गोरखाओं की जोहार पर कब्जा करने की नीति को फेल कर दिया और हर बार गोरखा हारकर वापस लौटे। 10वीं बार गोरखाओं को सफलता मिली! जोहार के शौकाओं के हूणियों (तिब्बतियों) से ब्यापारिक सम्बन्ध काफी मजबूत रहे हैं। इसीलिए इस क्षेत्र को धन सम्पन्न माना जाता रहा है। यहीं से मंछु शौका के साथ जोहारी नया जोहार बसाने गढवाल क्षेत्र के नीति घाटी में गए जहाँ उन्होंने गिरथी-डोब्ला गाँव बसाए। जोहारी बोलियों में भी अंतर है, हर घाटी में बोलियाँ बदल जाती हैं जैसे जोहार घाटी में बोली जाने वाली भाषा रडकश (रंकश), ब्यांस, चौंदास व दारमा घाटी में रड-ल्वू (रं-लू) व नीति माणा घाटी में इनकी बोली को रौंsपा कहा जाता है!
फिलहाल मुख्य बिषय पर लौटते हैं! क्षेत्रीय विधायक हरीश धामी का मानना है कि काठ के घोड़े चढाने की परम्परा जोहार घाटी में प्रागैतिहासिक काल से है। यहाँ गोरिल देवता के अलावा छुरमल व काला सेम के मंदिरों में भी काठ के घोड़े चढ़ाए जाते हैं। ब्यांस घाटी के ही जिलाधिकारी (वर्तमान में हरिद्वार) धिराज गर्ब्याल जानकारी देते हुए बताते हैं कि उनका ननिहाल भी इसी क्षेत्र में है और पूर्व में यहीं से जोहार घाटी के लोग तिब्बत में ब्यापार करने जाया करते थे। वहीँ बोना गाँव की ग्राम प्रधान श्रीमती उषा देवी बताती हैं कि उनके गाँव बोना व गोल्पा गाँव से हर बर्ष धर्तीधार मंदिर में मन्नत पूरी होने पर काठ के घोड़े चढाने का रिवाज है। यही बात बोना गाँव के ही बाला सिंह जेष्ठा भी दोहराते हैं। वे बताते हैं कि धर्तीधार मंदिर के पास ही जस्सू उडियारी है। अक्सर मौसम खराब होने के कारण ग्रामीण जस्सू उडियारी में आश्रय लेते हैं।
यहाँ एक बात अभी भी स्पष्ट नहीं हो पाती कि क्या धौली-धुमागढ ही वर्तमान में धर्तीधार है या फिर गोरी घाटी में यह स्थान वह है? जहाँ गोरिल देवता ने अपनी सातों सौतिया माँओं को अपने काठ के घोड़े को पानी पीने देने की बात कही थी? आज भी यह एक बड़े शोध का बिषय है?जबकि हमारी श्री गोलज्यू सन्देश यात्रा के इतिहासविद्ध व बुद्धिजीवी यहाँ पहुंचकर यह मानने से इंकार नहीं करते कि यही गोलज्यू देवता की जन्मभूमि हैं जहाँ अगर हम बौना गाँव की ओर मुंह करके खड़े हो जाएँ तो बाएं हाथ की ओर नीली बर्फीली पहाड़ियों के बीच छिपला केदार के दर्शन होते हैं जबकि यहाँ से ट्रेल पास की और बढ़ता पैदल मार्ग जिम्बा, बल्खीखान धारम सुमढुङ्ग होकर दारमा से तिब्बत की और बढ़ जाता है। जबकि इसी ट्रेल पास के बायीं ओर कुलका ग्लेशियर (कालिका ग्लेशियर/कलिंगा ग्लेशियर) है जिसे कहीं न कहीं गोलज्यू देवता की माँ कलिंगा से भी जोड़कर देखा जाता है। उस से आगे केदारकुंड, पतौति कुंड (पार्वती कुंड), व रागस कुंड (राक्षस कुंड) पड़ते हैं। मल्याचौर के पास ब्रह्म कमल व कुलका फुलवारी है। यही वह क्षेत्र है जहाँ बर्फ पिघलने के बाद कीड़ा जड़ी की तलाश में नेपाल व क्षेत्र के ग्रामीण जाया करते हैं व महीनों यहीं तम्बू लगाकर रहते हैं। यहाँ कीड़ा जड़ी का अवैध दोहन नहीं होता बल्कि इसके लिए सरकार से लाइसेंस जारी किये जाते हैं।
धरती धार में आज भी काठ के घोड़े चढाने की परम्परा है। स्थानीय लोग अपनी मन्नत पूरी होने पर धरतीधार में काठ के घोड़े चढ़ाते हैं व आटे व घी का मिश्रित प्रसाद व भेली का प्रसाद चढ़ाकर गाँव में वितरित करते हैं। यहाँ भी गोलज्यू देवताओं के मंदिरों की भांति फाटी (बिन ब्याही बकरी) चढाने का प्रचलन है। यहाँ लोग अपनी फसल पकने पर उनकी बालें, फल व ककड़ी भी चढ़ाया करते हैं।
बहरहाल हमें धर्तीधार तक की यात्रा करने के लिए पिथौरागढ़ से जौलजीवी, जौलजीवी के पुली से गोरी नदी के उद्गम की ओर बढ़ने के लिए 35 किमी. की यात्रा करते हुए बरम-बंगापानी-सेराघाट होकर मदकोट पहुंचना होगा। यूँ तो आप सेराघाट से गोल्पा सडकमार्ग से पहुंचकर 3 किमी. ट्रैक कर बोना गाँव पहुँच सकते हैं, लेकिन ज्यादात्तर लोग मदकोट से व्वाल्की-मिर्तोली होकर तोमिक–झापली का 24 किमी का सडक मार्ग का सफर करना पसंद करते हैं जहाँ से (तोमिक-झापली) से 4 किमी ट्रैक कर बोना गाँव पहुंचा जाता है। अब तो बौना गाँव तक सड़क मार्ग पहुँच गया है। इसलिए यहाँ पहुंचना ज्यादा कठिनाई भरा नहीं है। रात्री बिश्राम आप बोना गाँव में ही कर सकते हैं व अगली अलसुबह आप करीब 10 से11किमी ट्रैक करने के लिए तैयार रहिये क्योंकि आपको खारी-मोखलखान धार- तोमिकचैन धार होकर धर्तीधार तक का ट्रैक करना होगा। जहाँ मन्दिर में काठ के घोड़े चढाये जाते हैं। यह हिमालयन क्षेत्र का वह खूबसूरत स्थान हैं जहाँ से ट्रेल पास निकलता है। यहाँ से आप हूणदेश (तिब्बत) पहुँच सकते हैं बशर्ते चीनी सिपाही बन्दूक ताने खड़े न हों व भारतीय सेना आपको ट्रेल पास जाने दे।
गोल्जू की उदयपुर के इस ढोली समाज ने लगाई वह जागर कम वृदावली ज्यादा लगी जिसमें उन्होंने गोरिल देवता के पिता को गोरी नदी के उद्गम धौली-धुमागढ़ का राजा बताया था, उनकी जागरों में स्पष्ट था कि वह शिकार के लिए उच्च हिमालयी क्षेत्र में जाया करते थे! हो न हो यह धर्तीधार में ही गोरिल देवता के पितरों अर्थात झलराई हलराई का का सैकड़ों बर्षों पूर्व महल रहा हो व यहीं गोलज्यू का जन्म भी हो क्योंकि गोरिल गाथा में स्पष्ट है कि उन्हें बक्से में बंद करके धौली (गोरी) नदी ) से बहाया गया था जो धवली धुमागढ़ से बहती हुई जौलजीवी में काली नदी में मिलती हुई महाकाली का रूप लेती है।
यूँ भी गोलज्यू देवता को वृहद भारत के विभिन्न राज्यों में विभिन्न नामों से जाना जाता है। इनमें मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, सिक्किम, मणिपुर, त्रिपुरा, भूटान, बर्मा व नेपाल सम्मिलित हैं। गढ़वाल में इन्हें कन्डोलिया देवता, वहीँ नेपाल व कुमाऊ में हुनैनाथ, मलैनाथ, गोलपाड़ा, बाला गोरिया, दूधाधारी गोरिया, कृष्ण अवतारी, ग्वल देवता, ग्वेल देवता, ग्वल्जू, भनारी ग्वल, बण ग्वल, चौधणी गोरिया, कुमरासी गोरिया, कुम्भरासी गोरिया, मामू को आगवानी, पंचनाम देवताओं का भाणज, गीर खेलणी गोरी, कलवंती गोरिया, गौर भैरब तथा मध्यप्रदेश के बुन्धेलखंड में “काग-बिड़ारिन को छोरा, मणिपुर, बर्मा, त्रिपुरा में राजा “पाम्हैबा” के नाम से जाने जाते हैं। इसी आधार पर यह बात और भी पुख्ता हो जाती है कि धर्तीधार में चढ़ाए जाने वाले काठ के घोड़े यही इंगित भी करते हैं कि यही उनका जन्मस्थान हो सकता है।
मेरा मानना है कि धरती धार के उन पत्थरों पर गुदी उस भाषा को पढ़ने की भी कोशिश की जानी चाहिए कि वह किस भाषा में है व किस काल खंड की है। यह जानना भी जरुरी है कि यह स्थान पूर्व में भी खुला मंदिर ही था या धौली-धुंआ गढ़ के राज महल की चौकी! मुझे लगता है कि धरती धार में चढ़ाये गए कुछ पुराने काठ के घोड़े व काले हो चले पाषाणों की कार्बन’डेंटिंग की जानी चाहिए ताकि हम इस मंदिर का वास्तविक काल ढूंढ सकें।