Tuesday, October 15, 2024
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लोदी रिखोला….! जिसका नयार घाटी-मंदाल घाटी से लेकर रामगंगा घाट तक था एक छत्र राज..

क्या रिखणीखाल ही था रिखोला गढ़?

  • क्या रिखणीखाल ही था रिखोला गढ़?

(मनोज इष्टवाल)

कैसी क्षत्राणी रही होगी जिसकी दूध की धार ने  गर्म तव्वे पर छेद कर दिया! वह कैसी क्षत्राणी रही होगी जिसके जवान बेटे की चिता सजने से पहले ही उसे स्वप्न हो गया था कि उसके पुत्र को किस तरह राजा के सिपहसलारों ने कूटनीति के तहत जहरीले भालों से गुदवाकर मरवा डाला! क्या इस सबकी वजह उसका वह अजय पुत्र था..? जिसने सिरमौर से लेकर तिब्बत व नयार से लेकर रामगंगा के आर-पार गढवाली राजा का शासन कायम करवा दिया था, और बदले में हर बार राजा से उपहार स्वरुप पाता रहा मीलों तक का अपना साम्राज्य । जो नयार घाटी-मंदाल घाटी से लेकर रामगंगा घाट तक जा फैला था! इस वीर भड वीर योद्धा का नाम  था- लोदी रिखोला..! जिसके बारे में प्रचलित था:-

तौंकी रघुवंशी घोड़ी छुटीनि मर्दों! तौंकी फौंटयूँ का बाळ बबरैनी मर्दो!

तौं माई-मरदान का चेलों ने मर्दों, तख भंगुलो बुतण कैर्याली मर्दो.।।

सन 1635 में महीपति शाह व 1753 ई. तक प्रदीप शाह  के राजकाज की विजय पताका का परचम लहराने वाले वीर योद्धा, गढ़पति, सेनानायक व महानायक लोदी रिखोला, माधौ सिंह भंडारी, बनवारी लाल तुन्वर व दोस्तबेग मुग़ल  सहित उस काल में दर्जनों ऐसे शूरमा योद्धाओं ने जन्म लिया जिनकी बहादुरी व वीरता की मिशालें भारत बर्ष ही नहीं विदेशों तक भी दी जाती थी। ये किराए के ऐसे लड़ाके भी कहलाते थे जिन्हें राजा अपने मित्र राजाओं के पक्ष में  लिए युद्ध लड़ने भेजा करते थे! ऐसा भी नहीं है कि वह दौर सिर्फ राजपूत भड योद्धाओं का ही रहा हो । उस दौर में हंसा हिन्दवाण, हरि हिंदवाण, आशा हिन्दवाण जैसे ब्राह्मण वीर भड भी थे जिन्होंने माल की दूण ही  नहीं साधी बल्कि सिरमौरी राजा के राज्य में लगे राक्षस को भी मार गिराया था व राजा ने जहर देकर हंसा हिंदवाण को सिरमौरी सागर ताल जो वर्तमान में रेणुका ताल कहलाता है, मैं डाल दिया था।

किंवदंती है कि माँ रेणुका ने उसकी रक्षा की व जब हरि हिंदवाण व आशा हिन्दवाण को पता चली तो उन्होंने पूरे सिरमौर गढ़ को ही तहस नहस कर दिया व वहां के सैनिकों को गाजर मूली की तरह काट दिया। राजा ने भागकर जालन्धर नरेश के यहाँ शरण ली। उधर हरि और आशा हिंदवाण ने बावर क्षेत्र में हिंदवाणी कोट (किला)बनावाया जिसके बारे में कहावत थी कि हिंदवानों के तो मुर्गे भी योद्धा हैं। एक दर्दनाक हारुल में हिंदवाणी कोट के अकाल काल में जलने की खबर है व यहीं हिंदवानों के अंत की गाथा मानी जाती है जो इस क्षेत्र के किसी हारुल में बर्णित है। कहा जाता है कि तीनों भाइयों में से एक यहाँ से बच निकलता है, जिसका पीछा क्वाणु के राणा करते हैं लेकिन वह उनके हाथ नहीं आता है व वह रवाई में किसी दासी पुत्री से विवाह रचा देता है लेकिन उसके पास जब वह सभी तलवारें मिलती हैं तो वह उन्हें जंगल में गाड़ देता है । किंवदन्तियाँ हैं कि ये हिंदवाण यहाँ बसकर हेमदान हुए और जाति में दासी पुत्र के रूप में ही इनका खानदान चला।

हिंदवाणों की गाथा का बर्णन इसलिए करना पडा क्योंकि इसके बाद ही हिमाचल राजा व गढवाल के राजा के सम्बन्ध खराब हुए व राजा महिपत शाह ने महानायक माधौ भंडारी व सेनापति लोधी रिखोला को सिरमौर रियासत को तहस-नहस करने भेजा। कहा जाता है कि इन दोनों योद्धाओं ने इस कुकृत्य के लिए बेहद खौफनाक तरीके से सिरमौर रियासत को कुचला, वहां के मकानों की धूरें उजाड़ी व वहां से अंदर घुसकर महिलाओं से बलात्कार किया। लोधी रिखोला ने सिरमौर राजा की पुत्री से जबरन विवाह किया व उसे बैराटगढ़ में रखा व टोंस -यमुना के सम्पूर्ण क्षेत्र को अपने कब्जे में ले लिया। यहीं उनके दो पुत्र हुए। उधर माधौ सिंह भंडारी ने हाट्काली से चाईसिल, व पर्वत क्षेत्र रुपिन-सुपिन व यमुना रवाई क्षेत्र अपने कब्जे में रखा व यहीं बडकोट के आस-पास अपना किला बनवाया! आज भी माधौ सिंह भंडारी के वंशज काला भंडारी रवाई क्षेत्र में हैं जबकि लोधी रिखोला नेगी के वंशज जौनसार बावर क्षेत्र के मलेथा गाँव में। कहते हैं सिरमौरी राज खानदान व वीरांगनाओं ने लोदी रिखोला व माधौ भंडारी के इस कृत्य के विरुद्ध एक सौगंध उठाई थी कि जब तक वे इन दोनों के खून से अपने बाल नहीं धो लेती तब तक वे अपने बाल नहीं गूंठेंगी व घाघरे पर नाड़ा नहीं डालेंगी। यह कितना सत्य है! यह कह पाना उचित नहीं है लेकिन यह अकाट्य सत्य है कि यहाँ से रिश्ते कभी भी श्रीनगर गढवाल नहीं हुए।

कहा तो यह भी जाता है कि जौनसार बावर के गुलदार के नाम से प्रसिद्ध नंतराम नेगी भी लोदी रिखोला का पोता था जो कालान्तर में हिमाचल के राजा का वीर भड कहलाया व मुगलों से युद्ध में उसने जौनसार बावर का नाम रोशन किया जिसकी हारुल मोडे मोड़ाईले केडे मोड़ाईले…! आज भी इस क्षेत्र में गई जाती है! यह ज्यादात्तर वृत्तांत किंवदन्तियों पर आधारित है जिसके बारे में आज भी शोध की नितांत आवश्यकता है।

इसीलिए तो सच ही कहा गया है कि सदियों में ही ऐसे वीर जन्म लेते हैं, जिनके मरने के बाद भी उनकी कई पुश्तें राज करती हैं। ऐसे वीर पुरुषों की सात पुश्तें कम से कम उनके नाम से जीती हैं लेकिन लोदी रिखोला के वंशजों ने तो 300 साल से भी अधिक उनके कर्मों का फल भोगा। वह भी पूर्वी पश्चिमी नयार से लेकर मंदाल घाटी व रामगंगा घाट तक। यह सारा साम्राज्य विस्तार लोदी रिखोला व उनके पिता भौं रिखोला की ही वीर भड गाथाओं की देन है।

कैसे पहचान हुई कि लोदी रिखोला वीर भड है?

कहते हैं कि तब बयेली गाँव में कोई शुभकार्य था व पानी की इस गाँव में बड़ी किल्लत थी। भौं रिखोला आंछरियों से मांगे गए एक बहुत बड़े आकार के ग्याडा (बिशालकाय गागरनुमा) पानी की तुरतुरी धार पर लगा आये थे व कार्यवश कहीं चले गए थे। गाँव में बारात पहुँच गयी और पानी की कमी पड़ने लगी तो गाँव की महिलायें बंठे-गागर लेकर उस ग्याडा से पानी निकालने लगे। किसी ने भौं रिखोला की पत्नी  मैना देवी को सुनाते हुए कह दिया कि अगर भौं रिखोला होते तो बात ही क्या थी! लगता है अब यहाँ कोई भड पैदा नहीं हुआ। मैना देवी को बात आकर गयी उन्होंने अपने 08 बर्षीय पुत्र लोदी रिखोला को कहा – जा लोदी, वह ग्याड़ा ही उठाकर ले आओ ! उनकी बात सुनकर सब हंस पड़े। यह बात आठ साल के बालक लोधी रिखोला को नागवार गुजरी और वह पनघट से अकेले ही पानी का भरा ग्याडा लेकर आ पहुंचे। बताते हैं कि जो ग्याडा खाली ही दो मन का था तो उसमें पानी कितना आया होगा? पूरे गाँव में आये मेहमानों के बीच लोदी का यह बल चर्चा का बिषय बन गया और सब जगह खबर पहुँच गयी कि भौं रिखोला का पुत्र भी अपने बाप की तरह वीर भड है, यही बात आग की तरह फैलती हुई अब श्रीनगर दरबार तक पहुँच चुकी थी।

राज्य विस्तार- मंगसीरी बग्वाळ व रिख बग्वाळ!

मंगसीरी बग्वाळरिख बग्वाळ एक ही युद्ध की देन है जिसे जीतने के बाद यह विजयी जश्न के रूप में गढवाल के कुछ क्षेत्रों में मनाया गया। राजा भले ही एक थे जो श्रीनगर की गद्दी पर आसीन थे लेकिन 52 गढ़ के गढ़पतियों ने इसे पूरी तरह अंगीकार नहीं किया वरना यह दीवाली या बग्वाळ सम्पूर्ण गढवाल में जरुर मनाई जाती।

सन 1627-28 में राजा महिपत शाह के राज्यकाल में गढ़भूमि को दो ऐसे सूरमा सेनापति मिले जिनकी युद्ध कौशलता व बहादुरी के किस्से न सिर्फ गढवाल में बल्कि दिल्ली दरबार तक प्रचलित थे! इन्हीं के बदौलत राजा महिपत शाह ने सिरमौरी रियासत का बड़ा हिस्सा जौनसार-बावर,  सिलाई-फते पर्वत से हाटकोटी-रोहडू तक, कुमाऊं के द्वाराहाट क्षेत्र, व सुदूर तिब्बत के द्वापाघाट तक अपना राज्य विस्तार किया।

सिरमौर रियासत में इनके कहर को इतना दर्दनाक बताया जाता था कि वहां की राजपूताना महिलाओं ने प्रण कर लिया था कि वे तब तक अपने बाल नहीं बांधेंगी व घाघरे पर नाड़ा नहीं डालेंगी जब तक वह लोदी रिखोला व माधौ भंडारी के खून से अपने बाल नहीं धो लेती। वहीँ यहाँ के राज घराने के सूरमाओं ने यह तय कर लिया था कि वह अपने मकानों की धूर तब तक नहीं चुनेंगे जब तक इन्हें परास्त नहीं कर लेते! दुर्भाग्य से न माधौ भंडारी और न ही लोदी रिखोला को सिरमौर रियासत कभी हरा पाई, बल्कि इसके उलट लोदी रिखोला ने सिरमौर राज्य तहस नहस कर राजा मान्धाता प्रकाश से कैलापीर का नगाड़ा व बदरीनाथ की ध्वज पताका छीन ली व उनकी पुत्री से विवाह कर गढ़ बैराट (जौनसार) में रहने लगा। (सिरमौर राज्य की सीमाएं –उत्तरी सीमा जुब्बल एवं बालसोंन राज्य तक, दक्षिणी पश्चिमी सीमा पंजाब की पहाड़ियों तक, पूर्वी सीमा गढ़वाल राज्य के कालसी बैराटगढ़ तक)!

लोदी के विरुद्ध षड्यंत्र!

इस विजय के बाद गढवाल राजा के वजीरों व सलाहकारों ने राजा के ऐसे कान भरे कि राजाज्ञा से गोपनीय तौर पर लोदी रिखोला को मारने का षड्यंत्र रचा गया और उन्हें दिल्ली द्वार उखाड़ लाने की आज्ञा दी गयी! जिसे वे उखाड़ भी लाये लेकिन उनका अभिमंत्रित भाला किसी ने छुपा दिया! किंवदंती है कि राजा ने दिल्ली द्वार ले आने वाले लोदी रिखोला से पूछा कि उसने द्वार किससे उखाड़ा तक लोदी ने जबाब दिया – अपने भाले से..! भाला कहाँ है? यह पूछे जाने पर लोदी को लगा कि वह भाला वहीँ भूल गया और भाला लेने चल दिया लेकिन रास्ते में मुख्यमार्ग में गड्डा खुदा होने व रात्रि समय दिखाई न देने पर लोदी रिखोला गड्डे में जा गिरे जहाँ जहरीले भाले पहले से खड़े किये गए थे जिनसे गुद जाने से उनकी मौत हो गयी! लोदी रिखोला की माँ मैंणा देवी ने राजा को श्राप दिया कि आज से इस धरती पर कोई वीर भड न पैदा हो व तेरी आने वाली पीढियां इस राज्य का सुख न भोग सकें! कालान्तर में हुआ भी वही ..! कहा जाता है कि राजमहल अलकनंदा में समा गया और उसके बाद गढवाल में वीर तो कई पैदा हुए लेकिन किसी भी माँ ने भड नहीं जने! वहीँ किंवदंती है कि आज भी दिल्ली दरवार रिखणीखाल ब्लाक मुख्यालय के आस-पास कहीं है! लोदी रिखोला कुमाऊँ क्षेत्र के आक्रमणों को रोकने के लिए इस क्षेत्र में नियुक्त थे इसका प्रमाण यह है कि आज भी रिखोला नेगियों के इस क्षेत्र में बड़खेत तल्ला-मल्ला, झर्त, कुमालडी, धामधार सहित कई गाँव हैं!

असली कहानी मंगसीरी बग्वाळ या रिख बग्वाळ पर आकर ठहर जाती है! सन 1627-28 के दौरान तिब्बती लुटेरों का गढवाल राज्य की सीमान्त क्षेत्रों (टकनौर, पैनखंडा, दसोली)  में बड़ा भय था जिसे देखते हुए राजा ने तिब्बत के राजा को कई बार इस सम्बन्ध में चेतावनी पत्र भी भेजा लेकिन अपने मद में चूर तिब्बती राजा द्वारा राजाज्ञा की अवेहलना की गयी! फलस्वरूप राजा द्वारा अपने महानायक माधौ सिंह भंडारी व सेनापति लोदी रिखोला के नेतृत्व में तिब्बत फतह के लिए चमोली के पैनखंडा व उत्तरकाशी के टकनौर क्षेत्र से बड़ी सेना को द्वापा तिब्बत आक्रमण के लिए भेजा! आक्रमण माणा-नीतीचोरहोती होकर छपराड़ यानी दापाघाट के राजा काकुआमोर पर किया गया! यहाँ एक सन्दर्भ यह भी आता है कि राजा द्वारा माधौ सिंह भंडारी को इस युद्ध से वापस बुला लिया गया था क्योंकि तब लंगूर गढ़ी पर भी आक्रमण हुआ था लेकिन इसके प्रमाण नहीं मिलते! पूरा साल गुजर गया लेकिन श्रीनगर से मीलों दूर तिब्बत से कोई खबर नहीं मिल पाई! 12 बग्वाल 16 श्राद्ध भी निकल गए लेकिन जब इस सेना के सेनापतियों का कोई संदेश नहीं पहुंचा तो क्या माधौ भंडारी का मलेथा व क्या लोदी रिखोला का बयेली गाँव..! सब जगह मातम पसर गया! पूरा कार्तिक माह निकलने को था! दीवाली में भी पहाड़ का अन्धेरा छंटने का नाम नहीं ले रहा था! आखिर एक दिन एक दूत राजदरबार में संदेश लेकर पहुंचता है कि विजयी सेना तिब्बत फतह कर लौट रही है व महासेनापति माधौ सिंह भंडारी ने संदेश भिजवाया है कि श्रीनगर पहुँचने पर बग्वाली जश्न की तैयारी हो!

जेसुअट पादरी अन्तानियों के विवरण अनुसार राजा महीपति शाह के राजकाल में गढदेश ने तिब्बत पर आक्रमण के समय 11000 बंदूकें व 20 छोटी तोपों से आक्रमण किया था! इस से यह स्पष्ट होता है कि गढ़नरेश के पास भी बन्दूक चलाने वाले व तोप संचालन वाले सैनिक मौजूद थे!

वहीँ अगर मौलाराम के कृतित्व की बात हो तो उन्होंने 1635 में महीपति शाह व 1753 ई. में प्रदीप शाह के पास सवा लाख फ़ौज होने की बात कही है! वहीँ जेसुअट पादरी अन्तानियों के अनुसार तिब्बत आक्रमण में महिपत शाह की सेना में 20 हजार पैदल सैनिक, 11 हजार बन्दूकची व 20 तोपची सैनिकों का दल मौजूद था! इस से यह आभास होता है कि तिब्बत तब शक्तिशाली राष्ट्र हुआ करता था!

माधौ सिंह भंडारी व लोदी रिखोला की सेना कार्तिक माह के अंतिम चरण में श्रीनगर विजय होकर लौटी तब वह अपने साथ राजमहल के सुंदर स्वर्णकलश उठा ले आये जो राजा महीपति शाह के राजमहल में सुशोभित रहे! राजा ने खुश होकर सेनापति लोदी रिखोला को उपहार स्वरूप मानिकनाथ का डांडा, मंगरौ का सेरा, कालौं की कोठी, लालुड़ी गढ़, जाखीगढ़  दिया!

यहाँ यहाँ मात्र 8 बर्ष में यानि महिपतशाह के राजकाल (1624-1631) में गढवाल राजा को सदी के सबसे नायब सेनापति मिले जिनमें लोदी रिखोला, माधौ सिंह भंडारी, बनवारी लाल तुन्वर व दोस्तबेग मुग़ल  शामिल हैं! जिन्होंने गढ़वाल राज्य विस्तार सुदूर तिब्बत से लेकर सिरमौर तक व सहारनपुर तक फैलाया! इन्हीं के कारण राजा महिपत शाह द्वारा कुमाऊं नरेश त्रिमलचंद को

ध्वर्या उड्यार और तमखणी की आँछरी गुफा!

फिर से वहां की राजगद्दी में बिठाया! इन्हीं के कारण इस राजा की प्रसिद्धी इतनी फैली कि राजा महिपत शाह को गर्व भंजन” के नाम से जाना जाने लगा! यानि दुश्मन इनका नाम सुनकर ही कांपते थे!

ऐतिहासिक तथ्यों को छोड़ अब मेरा लक्ष्य किसी भी सूरत में वो तमखणी की आँछरी गुफा  थी जहाँ पहुंचना बेहद जटिल काम था लेकिन मुझ जैसे सनकी आदमी के लिए यह सचमुच इतना मुश्किल भी नहीं था!

 

 

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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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