Friday, January 24, 2025
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“मैरै गाँव की बाट” आखिर क्यों है कहती सुनाई दी घुर्रौ घुघुति अब नि घुर्री बूटोंक्या छाँव दी…।

अभी तीन दिन तक हॉउस फुल है सेंटिरिओ मॉल का पिक्चर हॉल 

(मनोज इष्टवाल)

अभिनव कहूँ या अभिनय…! अब आप ही बताइयेगा कि अचानक पर्दे पर आना और क्षितिज पर छा जाना! ऐसा भी भला कभी होता है। इस अभिनेता पर बाद में बात करता हूँ पहले जौनसार बावर जैसे छोटे से क्षेत्र के दर्शकों के लिए बड़े पर्दे की फ़िल्म लाने का दुस्साहस करने वाले केएस चौहान व फ़िल्म निर्माता आयुष गोयल व अभिनव को सैलूट।

फ़िल्म कहूँ तो मेरी परिकल्पनाओं से परे है। मध्यांतर से ऐन 15-20 मिनट पहले व और मध्यान्तर के ऐन 15-20 मिनट बाद तक मैं समझ ही नहीं पा रहा था कि यह फ़िल्म है या म्यूजिकल ड्रामा…! दरअसल जब फ़िल्म शुरू हुई तो अपने पूरे शाबाब पर दिखाई दी। सेब के बागीचे में अभिनेत्री की एंट्री का सारा क्रेडिट तो बाल कलाकार ले गए और फिर अभिनेत्री के पैर में चोट वाला बिना भाव का ओवर रिएक्शन…!

फिर समझ आया कि मैं हिंदी फीचर फ़िल्म या गढ़वाली फीचर फ़िल्म नहीं देख रहा हूँ बल्कि एक ऐसे लोक समाज पर बनी फ़िल्म देख रहा हूँ जिसकी रग – रग में सांस्कृतिक विरासत का वह पहलु रचा बसा है जो घर आँगन ही नहीं बल्कि घर के अंदर भी अपने गायन व लोक नृत्यों को संजोये रखे है। शायद यही कारण भी रहा कि पूरी फ़िल्म में 09 गीत शामिल किये गए हैं। गीत संवाद का अद्भुत मिश्रण जहाँ इस फ़िल्म में दिखने का मिला वहीं अभिनेता अभिनव चौहान द्वारा जौनसारी भाषा संवाद में हिंदी का पुट सुनकर लगा कि यहाँ कोई कमी है लेकिन निर्देशक अनुज जोशी व केएस चौहान से इस बिषय में बात करने से साफ हो गया कि ऐसा जान बूझकर इसलिए किया गया था क्योंकि अभिनेता बचपन में ही प्रवासी हो गया था व कई बर्षों बाद अपने गाँव लौटा था इसलिए स्वाभाविक था कि उसकी भाषाई कमांड पर पकड़ ढीली दिखाई गई।

अभिनेता अभिनव चौहान :

अभिनव चौहान को पहली बार मैंने अभिनय के क्षेत्र में गढ़वाली फीचर फ़िल्म “असगार” में अभिनय करते देखा था। तब अभिनव का अभिनय औसत दर्जे से थोड़ा ऊपर दिखा। स्वाभाविक है अभिनय करते समय आपके चेहरे पर बनावटीपन झलके तो लगता है कहीं न कहीं चूक हुई है। लेकिन इस फ़िल्म में अभिनव चौहान के अभिनय ने यह सोचने को मजबूर कर दिया कि इस युवा को अभिनव ही कहूँ या अभिनय?

शब्दों के साथ कुदरती हाव-भाव भाव-भंगिमा! सम्पूर्ण बॉडी एक्सप्रेशन में कमाल का रूहानीपन…। इस अभिनेता को आने वाले कल में ऊँचाईयाँ देगा ऐसा मेरा मानना है। स्वयं अभिनव चौहान का कहना है कि वह अभिनय को करते नहीं हैं बल्कि पूजते हैं। यह जज्बा और जज्बात आपको ऊँचाई दे ऐसी शुभकामनायें।

अभिनेत्री प्रियंका तोमर :

एक बड़ी नामी ब्लॉगर के रूप में फेसबुक जैसे प्लेटफार्म पर अच्छा नाम कमाने वाली फ़िल्म की मुख्य अभिनेत्री प्रियंका से बहुत उम्मीदें थी लेकिन उनका अभिनय बेहद औसत दर्जे का रहा, भले ही आखिरी क्षणो में वह अभिनय में लौटती दिखाई दी है। हो सकता है इसके पीछे गाँव की एक भोली भाली लड़की का किरदार करने जैसी बात रही हो।

सह अभिनेता अभिनेत्री :

फ़िल्म में अभिनव यानि मुख्य अभिनेता के भाई का अभिनय कर रहे अमित ने अपने किरदार के साथ प्रॉपर न्याय किया है। वहीं इस फ़िल्म में उनकी पत्नी का अभिनय कर रही सह अभिनेत्री ने अपने छोटे से किरदार से ही दर्शकों को प्रभावित किया है। उसकी बॉडी लैंग्वेज में पूरा जौनसार सम्माहित लगा।

बड़े बाबा श्रीचंद शर्मा :

पहली बार रुपहले पर्दे पर दिखाई दिए श्रीचंद शर्मा मूलत: साहित्यकार हैं लेकिन उनके डायलॉग डिलीवरी से लेकर हाव भाव सब में एक ऐसा कलाकार छुपा दिखाई दिया जिसने अपने अभिनय के साथ पूरा न्याय किया।

बालम – विक्रम की जोड़ी।

इस जोड़ी से मुझे कुछ अद्भुत कर गुजरने की उम्मीद थी लेकिन सीन एन्ड सिचुक्शन ने शायद उनके मुंह एवं हाव भाव पर लगाम लगाए रखी। यह रुपहले पर्दे की वह जोड़ी है जिन्होने 2003 में जब वीडिओ एल्बम में कदम रखा था तब से लेकर वर्तमान तक अपने अभिनय का लोहा मनवाया। इस फ़िल्म में भी यह बेहतर अभिनय करते दिखाई दिए।

बाल कलाकार तनिष्क व आरुषि :

कहते हैं कला व कलाकार जन्मजात होता है। यह बात इन दोनों पर बखूबी खपती व फबती है। केएस चौहान व अनुज जोशी ने जौनसार बावर के भविष्य के लिए ऐसे दो बाल कलाकार फ़िल्म जगत के लिए लाकर खड़े कर दिए हैं जिन्हें इस फ़िल्म में देखने के बाद निर्माता निर्देशक स्वयं चाहेंगे कि ये उनकी पहली पसंद बने। वाह… पूरी फ़िल्म का शाबाब लूट लेने के लिए दोनों को शुभकामनायें :

गीतकार श्याम सिंह चौहान /के एस चौहान :

06 गीत एवं 03 गीत संवाद (पार्श्व ध्वनित) पर कलम को उठाकर उसको इतनी बारिकियां देने के लिए श्याम सिंह चौहान व केएस चौहान की जितनी प्रशंसा की जाय कम है। श्याम सिंह चौहान के जमीनी गीत हृदय पर छा जाते हैं वहीं केएस चौहान सीन व सिचुक्शन के हिसाब से जो गीत श्याम सिंह चौहान से लिखवा  दिए वे सब अतुलनीय हैं।

गायक / गायिका:

सुप्रसिद्ध लोकगायिका मीना राणा ने यूँ तो दर्जनों जौनसारी गीत गायें हैं लेकिन इस फ़िल्म के गायन में उनकी आवाज में वह रूहानी जज्बा अलग था जिसके फील से अंतर्मन तर्र हो गया। “बोल बोल मेरे साथिया, तूने ऐसा क्यों किया” जैसे हिंदी के शब्दों से शुरू हुआ यह गीत जब जौनसारी बोलों में सम्माहित हुआ तो मुझे istwal series के लाल दुपट्टा एल्बम की याद दिला गया जिसमें ऐसा प्रयोग हुआ था। लोकगायक सीताराम चौहान का गाया तांडी जिसे हम हारुल भी कह सकते हैं गीत “घुर्रौ घुघुति अब नि घुर्री बूटोंक्या छाँव दी…।अबे न रोई पुराणी रूँवु के गाँव दी।” अंतरात्मा को झकझोर जाता है। वहीं लोकगायक अतर शाह व अज्जू तोमर का तांदी गीत “तेरे कानों रे झुमके बांठीणे, कुण सुनारै गौडे” में आवाज व नृत्य कमाल का था।  पहली बार इस फ़िल्म में जौनसार मांगड (मांगल) गीत ने ठेठ जौनसार के लोक समाज के मध्य पहुंचा दिया वहीं पौणाई गीत “सुणो जोजुडयों सुणो भै सुणो, चा चायते जीभ न फुक्यां, नमकीन बिस्कुट उंदै न थूक्यां” ने रौनक़ ला दी। इसमें जौनसार बावर की सुप्रसिद्ध गायिका सितारा व परिमा राणा की आवाज का जादू दिखने को मिला। वहीँ फ़िल्म का शुरुआती गीत फ़िल्म के अभिनेता अभिनव चौहान ने गाया है।

संगीत पक्ष :

मैं तो यही कहूंगा कमाल कर गए संगीतकार अमित वी कपूर…! जौनसार बावर की रगों व जड़ों में रचे बसे लोक संगीत के पुट देकर आपने कमाल कर दिया। बिशेषकर तांदी गीतों में… सच में मजा आ गया.

पंचिंग डायलॉग :

फ़िल्म के अंतिम समय में अभिनेता की माँ का अभिनेत्री के पिता के लिए बोला गया डायलॉग मन द्रवित कर देता है। जब अभिनेता की माँ कहती है “हाऊं भी देखुणु चाऊँ… तुम्हारे वास्ते ठाकुरों की जुबान बड़ी, कि जौनसार की राइणी का मान बढ़ा” वैसे अभिनेता के माँ व पिता के पास सीमित डायलॉग रहे लेकिन यह फ़िल्म का सबसे पंचिंग डायलॉग है जो आंसू भी लाता है और मन में सुखद अहसास भी करवाता है साथ ही एक सभ्यता का प्रतीत भी है जो बड़े से बड़े झगड़े मिटा देता है।

बहरहाल लड़की के पिता का किरदार भले ही चंद डायलॉग में सीमित है लेकिन वे अपने अभिनय के साथ पूरा पूरा इन्साफ करते दिखे। यह आश्चर्यजनक है कि फ़िल्म में लगभग 94 प्रतिशत कलाकारों ने पहली बार पर्दे पर काम किया है लेकिन फ़िल्म में उनकी यह उपस्थिति लाजवाब रही। निर्देशक अनुज जोशी को बधाई कि वह उस समाज को साकार करने के प्रयास में सफल रहे जिस समाज से व्यक्तिगत तौर पर वह ढंग से रूबरू भी नहीं हैं। केएस चौहान पर इसलिए गर्व है कि उन्होंने अपने समाज के लिए इतना बड़ा बजट खर्च किया जबकि वह पूर्व में उत्तराखंड फ़िल्म विकास परिषद के नोडल अधिकारी रहे हैं व भले से जानते हैं कि उनका लगाया सम्पूर्ण पैंसा किसी भी हाल में वापस नहीं लौट सकता।

फ़िल्म समीक्षा करना मेरा मकसद था। सभी जानते हैं मैं समालोचक के रूप में समीक्षा लिखता हूँ लेकिन अभी यही कहूंगा कि यह समालोचना का समय नहीं है बल्कि एक बेहतरीन फ़िल्म व बेहतरीन लोक समाज को देखने समझने का समय है जो आप पिक्चर हाल जाकर ही देख व समझ सकेंगे। लेकिन इस बात का भी ध्यान रखियेगा कि रविवार तक सेंटिरिओ मॉल देहरादून का हॉल हाउस फुल है।

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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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