Wednesday, March 12, 2025
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टिहरी गढ़वाल के सोनगढ़े असवाल किसके वंशज?

(मनोज इष्टवाल)

यह भी एक दुर्लभ शोध ही कहियेगा कि जब 1992-93 के दौर में मेरे द्वारा ब्रिटिश गढ़वाल के इतिहास में थोकदारों की भूमिका पर शोध कार्य प्रारम्भ किया गया था। तब “अधौ असवाल, अधौ गढ़वाल”अश्वरोहि असवाल अर्थात असवाल यानि गढ़वाल राजा की फ़ौज के घुड़सवार व असवाल ठाकुर मौर्यूँ भज्यूँ नि चयेंदू, निथर गुण त बौत छन व “भैर ग्वला, भित्तर ग्वला.. अर्ज पुर्ज कैमा करला?” जैसे प्रश्नों के जबाब ने मुझे बहुत कन्फ्यूज किया। सच कहूं तो आपसी ईर्ष्या ध्वेश में लिखे गए इतिहास में उस थोकदारी को ही जमींदोज करने की हर सम्भव कोशिश की जिसने कभी भी राजा के अधीन चाकरी नहीं की। यह अद्भुत इतिहास ब्रिटिश गढ़वाल में पहले 84 गाँव असवालस्यूँ के गढ़पति असवाल (1500 ई.) अर्थात लंगूर गढ़ी (भैरव गढ़ी) तदोपरांत पीड़ा-कंदोली, सीला-बरस्वार, दुगड्डा -महाबगढ़, नाली, बड़ोली-रणचूला (घुड़केंडा गढ़) यानि निम्न शिवालिक श्रेणियों के बिशाल भू-भाग में फैले असवालों का गौरवपूर्ण अध्याय से जुडा रहा। जो संवत 844 ई. में नागपुर गढ़ी  (चमोली गढ़वाल) के गढ़पति अश्वपाल उर्फ़ असलपाल चाहमान जो अपभ्रश होकर चौह्वाण हुआ और बाद में यही असलपाल नाम अपभ्रश होकर असिपाल और अंत में असवाल कहलाने लगा। मूलत: ये लोग राजस्थान के नाडौल रियासत के चाहमान जो कालांतर में चौहान कहलाए उनके वंशज रहे। ये पृथ्वीराज चौहान को अपना वंशज मानते हैं जबकि इतिहास इसके बिल्कुल उलट है क्योंकि पृथ्वीराज चौहान असलपाल के वंशज हुए। जिनमें पृथ्वीराज चौहान प्रथम, पृथ्वीराज चौहान द्वितीय एवं पृथ्वीराज चौहान तृतीय का जन्म में हुआ।

यह यकीनन हैरान कर देने वाली बात है कि असलपाल का उत्तराखंड आगमन का समय शक संवत के ठीक उसी काल से मिलता है जो गढ़वाल के इतिहास में वर्णित है। अगर हम राजस्थान के पाली (नाडोल) रियासत के चाहमान उर्फ़ चव्हाण उर्फ़ चौह्वाण उर्फ़ चौहान राजाओं से इस सूची को मिलायें तो इस सूची में वर्णित छठवें राजा अश्वपाल उर्फ़ असलपाल ही एकमात्र ऐसे राजा हैं जो शक संवत 1019 में चारधाम भ्रमण पर देवभूमि आये थे व बद्रीनाथ दर्शन कर चाँदपुर गढ़ के राजा भानूप्रताप का आतिथ्य ग्रहण करने के बाद उनके छोटे भाई की पुत्री से विवाह कर नागपुर रियासत के स्वतंत्र गढ़पति हुए।

अगर हम नाडौल रियासत के  चाहमान राजवंश शासकों की सूची देखें तो इसके पहले राजा लक्ष्मण (950–982)पहला शासक फिर क्रमशः शोभित (982–986), बलिराज (986–990), विग्रहपाल(990–994) महिंदू (994–1015) के पश्चात छठे शासक अश्वपाल (1015–1019) हुए। तदोप्रान्त अहिल (1019–1024), अनहिल्ल (1024–1055), बालप्रसाद (1055–1070), जेंद्र राज (1070–1080), फिर ग्याहरवें शासक पृथ्वीपाल चौहान (1080–1090), जोजलदेव (1090–1110), आशाराज (1110–1119),  रतनपाल (1119–1132), रायपाल (1132–1145), कटुकराज (1145–1148), अल्हणदेव (1148–1163), कल्हणदेव (1163–1193) और अंत में जयता सिंह (1193–1197) अंतिम शासक उन्नीसवें शासक के रूप में हुए।

अगर हम शक संवत के हिसाब से देखें तो हमें संवत 1019 से 135 बर्ष घटाकर देखने होंगे जो लगभग सन 884 बताता है। यही काल असवालों का बद्रीनाथ यात्रा का व चाँदपुर गढ़ी के आगमन का है।

( नगर गाँव)

टिहरी के सौनगरा असवाल और ब्रिटिश गढ़वाल के गढ़पति असवालों में भिन्नता।

नाडौल (पाली) के शासक अखैराज जी सोनगरा( चौहान) थे, जिनको लगभग हर राजस्थान की छोटी बडी रियासतों द्वारा मुगलों के खिलाफ युद्ध के लिए आमंत्रित किया जाता था। ये महाराणा प्रताप के नाना थे ।
वह एक ऐसा समय था जब मुगलों द्वारा किसी रियासत पर हमले के वक्त वीर राजपूत यौद्धाओं को निमंत्रण दिया जाता था तथा इस निमंत्रण को वे शान समझते थे, युद्ध के लिए ऐसे मतवालों का इतिहास ही अजब अनोखा है जहां युद्ध में प्राण गंवाने के लिए वीर राजपूत तत्पर रहते थे।
नाडोल के चौहान:

चौहानों की इस शाखा के संस्थापक शाकंभरी नरेश वाक्पति के पुत्र लक्ष्मण चौहान थे, जिन्होंने 960 ई. के आसपास चावड़ा राजपूतों के आधिपत्य से मुक्त होकर चौहान वंश का शासन स्थापित किया।
चौहान वंश (चाहमान वंश) एक भारतीय राजवंश था जिसके शासकों ने वर्तमान राजस्थान, गुजरात एवं इसके समीपवर्ती क्षेत्रों पर सातवीं शताब्दी से लेकर 12वीं शताब्दी तक शासन किया। उनके द्वारा शासित क्षेत्र ‘सपादलक्ष‘ कहलाता था। वे चरणमान (चौहान) कबीले के सबसे प्रमुख शासक परिवार थे। मध्ययुगीन किंवदंतियों के अनुसार वे अग्निवंशी थे जो बाद में राजपूत समूह में मिल गए। इनके पूर्वज वासुदेव चौहान माने जाते हैं। जिनका जन्म संवत 551 माना जाता है। नद्दूल वंश वृक्ष में चौहानों की जो राजवंशी शाखा हुई उन्होंने गढ़राजवंश में विवाह किया इसलिए वह गढ़पति कहलाएं लेकिन सोनगरा चौहान पृथ्वीराज चौहान के वे वंशज रहे जिन्होंने मोहम्मद गौरी से हार के बाद दिल्ली सल्तनत छोड़कर उत्तर भारत की ओर प्रस्थान किया। जबकि उनके पूर्णज जगदेव चौहान संवत 1151 ईस्वी. में ही उत्तर भारत के मैदान में आ बसे थे, जिन्होंने बुलंदशहर, एटा, मैनपुरी व बिजनौर में अपना साम्राज्य कायम किया। लोगों का तो यह भी मत है कि जगदेव पंवार ही जगदेव चौहान थे लेकिन इस पर अभी शोध करना बाकी है।

वैसे चौहानों की शाखा में खींची, हाडा, सोनगरा, भदौरिया, देवडा और निरबाण इत्यादि शामिल हैं लेकिन गढ़वाल में देवड़ा (कोलिय) व सोनगरा के साथ-साथ देवड़ा चाहमान राजवंश का आना भी बताया जाता है।  टिहरी के असवाल सोनगरा चाहमान रहे, जो हैं तो राजवंशीय ही लेकिन ये वे राजपूत थे जो मुस्लिम शासन काल में अपने साथ स्वर्ण आभूषण लेकर यहाँ ज्वेलर्स का काम करने लगे। ठीक वैसे ही जैसे गढ़वाल में लिंगवाल व कुमाऊं में साह….। इनकी बसासत पहले श्रीनगर में रही व ये राजमहल के कुशल स्वर्णकार माने गए। टिहरी नथ का जन्म तो श्रीनगर में हुए लेकिन यह वह समय में हुआ जब गोरखा आक्रमण से गढ़वाल त्रस्त था व ब्रिटिश संधि के बाद राजा को गंगा पार टिहरी राजधानी बसानी पड़ी। तब ये असवाल भी राजा के साथ टिहरी गढ़वाल ही जा बसे लेकिन ब्रिटिश गढ़वाल के असवालों ने इन्हें कभी अपना भाई नहीं माना जबकि ये एक ही राजघराने के रहे।

मेरे इस शोध ने यह तो साबित कर ही दिया कि संवत 1019 अर्थात सन 884 – 888 ई. में चाँदपुर गढ़ी के राजा कनकपाल ने अश्वपाल उर्फ़ असलपाल को आधा राज अर्थात नागपुर गढ़ी दे दिया था जिसके बाद “आधौ अश्वपाल (असवाल), आधौ गढ़वाल” कहा जाने लगा। फिर अश्वपाल का अर्थ भी समझ आ गया कि उन्हें घोड़ा पालक इसलिए कहा गया क्योंकि इनका नाम अश्वपाल था लेकिन ये अभी समझना था कि “असवाल ठाकुर मोर्यूँ भज्यूँ नि चयेंदु.. निथर गुण त खूब छन”…।

आखिर इस कहावत का पटाक्षेप खुद असवाल जातकों ने ही किया। सन 1500 ई. में असवालस्यूँ नगर बसाने वाले लंगूरगढ़ – महाब गढ़ के गढ़पति रणपाल असवाल के काल में ही उनके पड़पौत्र वीर भड़ भानदेव असवाल द्वारा 1680 के द्वाराहाट युद्ध में श्रीनगर राजा फतेशाह की हार का बदला चुकाने के लिए सन 1682 में कुमाऊ राजा उद्योतचंद को बुरी तरह द्वाराहाट में परास्त करने के बाद गुलाम बनाकर लाये गये राजवंशी वीणा पंवारी से प्रेम प्रसंग रचाने व उसे गर्भवती करने के विवाद से जुड़ा प्रसंग है। जिसके फलस्वरूप नगर किले के गढ़पति विजयपाल असवाल को भानद्यो असवाल को नगर निकाला कर सीला पट्टी की थोकदारी, चौकीघाटा की मालगुज़ारी, महाबगढ़ व असवाल गढ़ दिया गया। जबकि वीणा पंवारी को तछवाड गाँव व उसकी देखरेख का भार कुलासू के असवालों को सौंपा गया, वहीँ वीणा पंवारी के वंशजों को कुमाईगाँव बसाया गया व उनसे गुलामी हटा दी गई। कहा जाता है कि इस प्रकरण के बाद यह कहावत तब से लेकर अब तक चरितार्थ है।

कहाँ तो यह भी जाता है कि तभी से असवाल दो गुटों में बंट गए। सीला के असवाल या महाबगढ़ के असवालों ने आपस में दुश्मनी पाल ली व कलांतर में चौकी घाटा गए नगर के असवाल थोकदार ने जब भंधो असवाल के वंशज को यह कहकर विवाद खत्म करना चाहा कि मैं बड़ा हूँ इसलिए जैद्यो बोलकर इस विवाद को खत्म करो तो महाब गढ़ सीला के असवाल भड़क गए व उन्होंने उनका सिर मूंड दिया। गँजे सिर से ढाकर लेकर नगर गाँव पहुंचा थोकदार यह आत्मग्लानि बर्दास्त नहीं कर पाया और नगर गाँव छोड़कर चौंदकोट सिमार गाँव जा बसा।  एक प्रकरण अन्य भी है जिससे इस कहावत को जोड़कर देखा जाता है। कांडाखाल बनाली में श्रृंगारमति का डोला जबरदस्ती ले जाने के कारण व श्रृंगारमति के श्राप से असवालों को महाबगढ़ छोड़कर नाली गाँव जैसी उपजाऊ ज़मीन अपने रिश्तेदार बिष्ट वंशजो, कांडा बनाली अपने कुल पुरोहित कंडवालों को सौंपकर यहाँ  से जाना पड़ा। बहरहाल इतिहास को समझने की दृष्टि से इसे विस्तार दिया गया है ताकि शोध अंश भी समझ आ सके।

संदर्भ : (अर्ली चौहान डायनेस्टी – डॉ दशरथ चौहान, हमीर महाकाव्य – नयन चंद्र सूरी, राजपुताने का प्राचीन इतिहास व पृथ्वीराज विजय महाकाव्य- गौरीशंकर हीराचंद ओझा, गढ़वाली कथागोई व अलिखित किंवदंतियाँ / भड़ वार्ता, लोक गीत, वृदावळी प्रसंग )

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