(मनोज इष्टवाल)
अद्भुत यह नहीं है कि संस्कृति के नाम को हम “उत्तराखंड लोक विरासत” का नाम दे दें बल्कि अद्भुत यह है कि इस विरासत ने चार बर्षों में उत्तराखंड के समाज को क्या कुछ नया दिया। लोक संस्कृति के नाम पर तो यूँ भी उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में रोज संस्कृतिरुपी चौसर बिछती है जिसमें अधिकत्तर घिसे-पिटे गीत संगीत में नृत्यांगनाएं व नृतक लोक कलाकार व नई गीत रचना का गायक लोकगायक का ठप्पा लगा देता है। वे खुद नहीं लगाते बल्कि यह ठप्पा हम आप जैसे मंच संचालक लगा देते हैं। यकीन मानिये अगर ऐसे कलाकारों के बीच जाकर हम संवाद करते हुए उन्हें लोक की परिभाषा पूछें तो उन्हें बड़ी असहजता होगी। यह भी हो सकता है कि वो ही नहीं दर्शक दीर्घा में खड़े हम भी इस लोक शब्द के अर्थ के साथ निरुत्तर होंगे।
जो जन्मजात लोक गायक व लोक कलाकार हैं, उन्हें मेरी बात पसंद आएगी लेकिन जिनका इस सबसे वास्ता नहीं है वे लोग क्या कहेंगे यह भी मैं बहुत अच्छे से जानता हूँ। कडुवा लिखता हूँ.. शायद इसीलिए लोकोत्सव मनाने वाले लोगों की नजरों में अखरता भी हूँ। जिसकी मुझे जरा सा भी परवाह इसलिए नहीं होती क्योंकि उत्तराखंड के लोक समाज व लोक संस्कृति के प्रति अपनी जिम्मेदारी को ईमानदारी से निभाने की हर कोशिश करता रहता हूँ.
विगत बर्ष की भांति बलूनी स्कूल्स के मैदान में इस बर्ष भी “उत्तराखंड लोक विरासत” का दो दिवसीय शानदार आगाज रहा। ठंड व पाले की अधिकता ने जरूर इस बर्ष विगत बर्ष से दर्शक संख्या रात्रिकाल में थोड़ा कम कर दी लेकिन इस बर्ष दुकानें लाज़वाब अंदाज में लगाई गई थी। लग रहा था कि पिंडारी से चाईशिल के पहाड़ और असकोट से आराकोट तक के गाँव समाज की वानगी की ख़ुशबु इन स्टॉल में रची बसी हो। “लोक” का चितेरा समाज भी खूब आनंदित था।
अब आते हैं कि उत्तराखंड के परिवेश में क्या सच में हम जनमानस के दिलो-दिमाग में उस लोक की तस्वीर का खाका खींचने में सफल रह पाये? जिसके लिए चारधाम हॉस्पिटल ट्रस्ट के सर्वेसर्वा डॉ के. पी. जोशी व उनकी टीम के सिपहसलार विगत चार बर्षों से पूरी शिद्द्त के साथ मेहनत-मशक्क़त करते आ रहे हैं। यह सिर्फ़ नृत्य संगीत तक तो सीमित नहीं था! फिर इसमें अनूठा क्या हुआ जो कलम चलाई जाय। आइये बात करते हैं इन सब लोक से जुड़े मुद्दों की :-
मशकबीन पर मंगल धुन, महासू की संगत , पौंणा, बगड्डाल, मुखौटा नृत्य, थाड्या, चौफला, बाजूबंद, खुदेड़ , डिजरीडू वादन, डबल ड्रोन फ्लूट, गौरागणपति मुखौटा, नृत्य, पाण्डव नृत्य, डौंर, बुड़देवा, हुड़का थाली वादन, राजुला मालूशाही, भगनौल, न्योली, छपेली, ढोल प्रस्तुति इत्यादि की प्रस्तुति! लेकिन आश्चर्यजनक यह है कि मैंने कभी भी इन विधाओं के लोक कलाकारों को इन लोक कलाओं पर आपस में बात करते हुए नहीं पाया, सीखना समझना तो बहुत दूर की बात है।
इन सब विधाओं पर आनंद ले रहे युवक युवतियों के समूह जरूर मैदान में अपने सांस्कृतिक धरोहर से जुड़े नृत्य की छटा बिखेरते नजर आये। संगीत कोई भी बज रहा हो लेकिन ये युवा अपने क्षेत्र में प्रचलित लोक नृत्य की थिरकन उस संगीत में भी महसूस करते नजर आ रहे थे व अपने क्षेत्र के लोक नृत्य कर उस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते नजर आ रहे थे।
उत्तराखण्ड के परम्परिक लोकगीत, लोकनृत्य एवं लोकवाद्यों की प्रस्तुति:
प्रेम दास विथयानी, नानक चंद जौनमाटी, प्रेम हिंदवाल ग्रुप जैसे ढ़ोल वादकों की ढ़ोल पर गजाबल की चोट व अंगुलियों की कारामात भला कौन नहीं सुनना पसंद करेगा। तीनों ही कालावंत अद्भुत हैं। लोक के धनि पद्मश्री डॉ० प्रीतम भरतवाण या अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ट्रेंड कर रही लोक गायिका कमला देवी के सुरों में सजे संसार को भला कौन सुनना पसंद नहीं करेगा। अभिषेक थपलियाल, हरीश भारती, कमला देवी, अनुरागी ब्रदर्स/निर्मल अनुरागी का भी धमाल कमाल का रहा। इसके अलावा मशकबीन पर मंगल धुन, आकाशवाणी कलाकार द्वारा महासू की संगत, (महासू देवता के वाद्ययंत्र),गढ़वाल की भोटिया जनजाति के पौंणा, बगड्डाल, मुखौटा नृत्य, थाड्या, चौफला, बाजूवंद, खुदेड, डिजटरीडू वादन, डबल ड्रोन फ्लूट, गोरागणपति मुखौटा नृत्य, पाण्डव नृत्य, डॉट, वुड़देवा, हुड़का थाली वादन, राजुला मालूशाही, भगनौल, न्योली, छपेली की मनमोहक प्रस्तुतियाँ यकीनन मन मोहक रही लेकिन क्या ये सब प्रस्तुतियाँ हमें पहली बार दिखने सुनने को मिली? शायद सभी का जबाब होगा कि बहुत बार सुनने आ रहे हैं। क्या सुनते ही आ रहे हैं या गुणते भी हैं… यह प्रश्न बड़ा है जिसका जबाब हम सब जानते हैं।
इस सबसे इत्तर डॉ के पी जोशी जी के साथ साहित्यविद्ध नंदकिशोर हटवाल व टीम की जुगलबंदी ने जो नया करिश्मा कर दिखाया वह मंच से भले ही न दिखता हो लेकिन लोक की रंगत लोग की अवधारणा पर ही केंद्रित होती है। उत्तराखंड लोक विरासत में लोक को मजबूती देता उत्तराखंड की परम्परागत वेशभूषा एवं वस्त्र आभूषण रहे हैं जिन्होंने पूरे विरासत कार्यक्रम के दूसरे दिवस मैदान के एक ओर से दूसरे छोर तक यौवन के जौवन की परिकल्पनाओं में खोये युवक युवतियों के मध्य बहस छेडे रखी। एक युवती अपनी फैशन डिज़ाइनर मित्र को बोल रही थी, देख ना कितना रिच है हमारा कल्चर…! दूसरी बोली – हाँ यार कितना कलरफुल भी! यकीन नहीं हो रहा है कि हमने यह सब क्यों अपनी जड़ों से मिटा दिया। अरे वो देख तो उस काली ड्रेस व वह लाल ड्रेस में सजी उस लड़की के गले में वो चांदी का लम्बा सा जूलरी सेट कैसे साइन मारकर उनके चेहरे को और खूबसूरत बना रहा है यार..! दूसरी हाँ यार… सच में! काश… हमारे पास भी होता यार। दूसरी – तेरे पास होता तो क्या तू उसे पहने रखती। बात करती है। अरे यह सब सिर्फ़ मंचों में ही अच्छा लगता है। अन्य – चुप बे…। तू चुप ही रह यार। मैं तो इस पूरे ड्रेसअप में पूरे वर्ल्ड के मंचों पर रैंप शो करूँ। फिर आपस में इस बात पर चर्चा होने लगी कि उसको बोलते क्या हैं। मैं उनकी बातों का बड़ा आनंद ले रहा था। लड़कियों का सिक्स सेन्स ठहरा। एक बोली – देख ये अंकल हम पर हँस रहा है। मेरे कान सतर्क थे इसलिए मैं मुस्कराते हुए बोला कि नहीं हँस नहीं रहा हूँ बल्कि अपनी आने वाली पीढ़ी के इस रोमांचक बिषय का आनंद ले रहा हूँ। जिसे आप लोग लम्बा सा चांदी का हार कह रही हैं, कभी उत्तराखंडी जनमानस के राजघरानों व धन्नासेठों के परिवार की महिलाएं ऐसा ही सोने का नौलखा हार पहनती थी। इसलिए आप इसे नौलखा हार कह सकती हैं। लेकिन मूलत: यह चंद्राहार है। उनमें से एक ने कहा थैंक्स अंकल…। मैं मुस्कराया और आगे बढ़ गया। एक युवती पीछे से नकल उतारती बोली – मुझे नौलखा मंगा दे रे.. वो साइंया दीवाने। मैंने पीछे पलटकर देखना उचित नहीं समझा और जा पहुंचा कपिल डोभाल के फ़ूड कांसेप्ट “बूढ दादी” में। कपिल ने एक सूप का गिलास थमाया और मैं सूप का मजा लेकर आगे बढ़ा। देखा – एक महिला अपनी सहेली की ओर मुखातिब होकर कह रही थी। सुन यार… अबकी मुझे भी अपने उत्तराखंड की ऐसी ड्रेस न्यूजीलैंड ले जानी है। जुलरी तो लगभग है मेरे पास… बाकी ये जुलरी बनती कहाँ होगी पता करुँगी। पिछली बार जब लोकगायक नेगी जी न्यूजीलैंड आये थे तब भी हम लोगों ने कोशिश की थी कि हम कुछ ऐसा ही करें लेकिन अब यहाँ अपनी लोक पोशाकें व आभूषण देख कर मन प्रसन्न हो रहा है। सच कहूं तो ईर्ष्या हो रही है। वहीँ सुप्रसिद्ध चित्रकार मुकुल बड़ोनी की स्टॉल के बाहर नृत्य करती महिलाओं को एक टक उनकी स्टॉल से निहारते पत्रकार मित्र प्रेम पंचोली की नजर जब मुझ पर पड़ी तो बोले – अरे भाई जी, इधर तो आओ। सभी महिलाएं देखो अपने लोक पर कितना सुंदर नृत्य कर रही हैं। और. मैं देखो स्टॉल पर पडे उनके पर्स, जैकेट व मफलर इत्यादि की चौकीदारी कर रहा हूँ। नृत्य खत्म होने के बाद मैं उन महिलाओं के मुखातिब हुआ व बोला अब आप लोगों को मंच में नृत्य करना चाहिए। उनमें से एक भद्र महिला बोली – भाई साहब, अगले बर्ष हम सब अपनी भेशभूषा व जेवर पहनकर आएंगे तब लगाएंगे तांदी व थड्या, चौंफला…।
यकीन मानिये ऐसी ही मिलती जुलती चर्चायें तब कई समूहों में हो रही थी जब ये लोक कलाकार अपने अपने क्षेत्र की पोशाकों में आकर गीत के कुछ बोलों में नृत्य करते और फिर अपने क्षेत्र की पोशाक व आभूषणों का ब्योरा प्रस्तुत करते।
ज्ञात हो कि इस बार लोककलाकारा व ड्रेस स्पेशलिस्ट श्रीमती उषा नेगी के निर्देशन में उत्तरकाशी जनपद के रवांई घाटी, बंगाण व पर्वत क्षेत्र व जाड़ जनजाति, उत्तरकाशी के लोक कलाकार सुरक्षा रावत के नेतृत्व में अपनी विशिष्ट भेषभूषा एवं वस्त्र विन्हास व आभूषणों के साथ मंच पर उपस्थित रहे।
दूसरी ओर देहरादून जिले के जनजातीय क्षेत्र जौनसार बावर क्षेत्र के लोक कलाकार जौनसारी वेशभूषा एवं वस्त्र आभूषणों के साथ, पिथौरागढ़ जिले के रं जनजाति (धार्चुला) के लोक कलाकार की वेशभूषा एवं वस्त्र आभूषणों के साथ, साथ ही कुमाउनी वेशभूषा एवं वस्त्र आभूषणों के साथ व चमोली जिले की भोटिया जनजाति के लोक कलाकार अपनी वेशभूषा एवं वस्त्र आभूषणों के साथ जिसमें टकनौर घाटी के लोक कलाकार भी शामिल हैं। वहीँ पौड़ी गढ़वाल के बारहस्यूँ -चाँदकोट-सलाण के लोक कलाकार अपनी वेशभूषा एवं वस्त्र आभूषणों के साथ मंच पर उपस्थिति सिर्फ दर्ज ही नहीं करवा गए अपितु लोगों के मध्य एक बहस छेड़ गए कि अपने लोक की असली ताकत है क्या? बहुत से लोग हस्तशिल्प की दुकानों में अपने लोक से जुड़े वस्त्रो की खरीद फरोख्त करते दिखे उनमें हमारे पत्रकार मित्र प्रियांक मोहन वशिष्ठ भी शामिल थे जिन्होंने ठेठ जोहारी दार्मा चौंदास घाटी का प्रतिनिधित्व करते वस्त्र को खरीदा व उसे पहनकर ही अपनी उपस्थिति दर्ज की।
इस दौरान उत्तराखंड के सुप्रसिद्ध गायक व लोकगायकों ने अपनी शानदार प्रस्तुतियाँ भी दी जिनमें विवेक नौटियाल, वीरेन्द्र डंगवाल,पम्मी नवल,गौरव पाण्डे, रजनीकान्त सेमवाल, महेन्द्र चौहान (जौनसारी),ओम बधाणी, किशन महिपाल, संगीता ढौंडियाल व गढ़रत्न नरेन्द्र सिंह नेगी प्रमुख थे।
उत्तराखंड लोक विरासत में स्कूली बच्चों के उत्तराखण्डी लोक सांस्कृति पर आधारित कार्यक्रम प्रस्तुत किये जबकि लोककलाकारों का मैदान में सांस्कृतिक रैली, अपने-अपने ग्रुप के साथ सामूहिक नृत्य, वाद्यवृंद वादन इत्यादि किया।
बहरहाल चारधाम हॉस्पिटल ट्रस्ट के सौजन्य से चौथे बर्ष में प्रवेश कर चुके “उत्तराखंड लोक विरासत” ने उत्तराखंड की नौजवान पीढ़ी की रूचि में सबसे अधिक जिस बात की ललक पैदा की वह लोक समाज में लोक का प्रतिनिधित्व करती भेषभूषा व आभूषण थे। यह एक सार्थक पहल कही जा सकती है।