Thursday, December 12, 2024
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गढ़वाली भाषा में नारी रूपों के सौंदर्यीकरण का अथाह शब्द सागर !

गढ़वाली भाषा कोष में है अथाह शब्द सागर..! क्या किसी साहित्य में मिल पायेगा नारी रूपों का ऐसा सौंदर्यीकरण?

* गढ़वाली भाषा कोष में है अथाह शब्द सागर..! क्या किसी साहित्य में मिल पायेगा नारी रूपों का ऐसा सौंदर्यीकरण?

(मनोज इष्टवाल)

क्यों प्रसव पीड़ा होते ही उत्तराखंड के नामी गिरामी थोकदारों के सबल/कुदाल तैयार हो जाते थे! क्यों बेटी के जन्म की चीत्कार पड़ते ही उसके लिए मृत शैय्या का खड्ड तैयार किया जाता था! क्यों उसे ज़िंदा ही गाड़ दिया जाता था? आखिर क्यों…! इन सबका जवाब शायद ऐतिहासिक लोक गाथाओं में चर्चित वे प्रेम प्रसंग हैं जिन्होंने खूबसूरत नारी के पीछे कई परिवार नष्ट किये! जाने कैसी कैसी लड़ाईयां लड़ी! आइये इसी प्रसंग को लेकर आज नारी सौन्दर्य के शब्द बिन्हास पर चर्चा करते हैं! 

संदर्भ और संदर्भित बिषय बड़ा ब्यापक है! नारी का श्रृंगार हर कोई आँखों से देख लेता है लेकिन उसका शब्द श्रृंगार इतने तरीकों से होता होगा यह शायद हम में से कम ही लोग जानते होंगे! ये शब्द श्रृंगार भी उस काल का है जिस काम में चेहरा देखने के लिए आइना नहीं बल्कि पानी होता था! जिसमें महिलायें सिर्फ अपनी शक्ल ही देख पाती थी! गढ़वाली लोक गाथाओं, लोक कथाओं व पौराणिक प्रेम प्रसंगों में शब्द की मार सहती नारी श्रृंगार को हर काल में अद्भुत कूची से संजोने का प्रयास किया गया है!

प्रसंग राजुला-मालूशाही का हो या फिर जीतू भरणा का! या फिर गजू मलारी का …हर जगह नारी के सौन्दर्य पर चर्चा को बिशेष आयाम शब्दों ने दिया है! राजुला-मालूशाही की प्रेम गाथा को लोकगाथा में संजोने वाले शब्द राजुला के रूप की तारीफ़ कुछ इस तरह करते हैं:-

पालिंगा सी ठेंगी, हिंसर सी गोंदी!
कमरी होली वींकी कुमाली जसो ठाण!
दान्तुदी दिखेंदी वींकी, दालिमों जस फांक!
नाकुली दिखेंदी वींकी खांडा धार जसी!!
अगाड़ी चलदी, पिछाड़ी ढलकदी, अपणा ही जोवन मा…
(पालक के डंठल जैसी, हिंसर के फल सी, कमर है उसकी कुमाली जैसी पतली! दांत अनार की फांक जैसे, नाक कुल्हाड़ी सी धार! आगे चलती है तो पीछे ढलकती है अपने ही यौवन में…!)

जीतू- भरणा प्रसंग में भरणा की खूबसूरती का बखान करते शब्द कुछ इस तरह उसके रूप यौवन की बात करते हैं:-

दीवा जसी जोत होली, चीणा जसी दाणी!
नौ गज धौंपेली होली, नाग सी लांबी!
आंखी जनी बौ काटदी माछी!
फ्यूंली सी गात होली, पीफल सी पात!
फागण सी दिन होली, मांगसीर सी रात!
पूष की सी घाम होली, कुमाली सी ठाण!
डाली सी पोतली होली, चैत सी फ्योंली!
सोना सी पिंगुली भरणा, रूपा सी धौली!
आन्ख्यों मा दिखेंद वींकी माया सी छ्लार!

(दीये की सी जोत है, अन्न के से बीज! नौ गज लम्बे बाल होंगे, नाग की तरह लम्बे! आँखें ऐसे मानों मछली तैर रही हो! फ्योंली के फूल सा बदन, पीतल से पत्ते सी! फागुन से दिन होगी, मार्गशीर्ष सी रात! पौष की सी धुप है, कुमाली सी सा श्रृंगार! पेड़ की सी पुतली होगी, चैत्र मास की फ्योंली! सोने सी काया की भरणा, रूप में धौली नदी सी! आँखों में दिखती है उसके प्रेम का प्रतिबिम्ब!)

कुमाली शब्द की आवृत्ति हो सकता है आगे भी हो! यह एक ऐसा जीब है जो चींटी के आकार से ज़रा सा बड़ा होता है! यह जब चींटी पर फांक लगते हैं तब उसी की तरह दिखने वाला होता है लेकिन यह उस से आकृति में थोड़ा बड़ा होता है! यह आज भी है कि नहीं लेकिन बचपन में हम गाँवों में इस जीव से खूब खेला करते थे! इसकी घूं-घूं के बोलों में अजीब सा संगीत था! इसे हम कपडे से पकड़कर कान के पास ले जाते और फिर उसकी आवाज सुनते! लगता है यह जीव अब लुप्त प्राय: हो गया है या फिर प्रकृति के बदलते परिवेश में इसका संसार तबाह हो गया है!

गजू मलारी वह प्रेमी युगल रहा जिसकी आत्माएं आज भी अतृप्त बुग्यालों में घुमती विचरण करती हैं! ऐसे जनमानस का मानना है! मलारी के रूप बिन्हास पर चंद शब्द हैं :-

बौर का घुंडा बैठी मलारी, शोभ जसी पूनों सी चाँद!
सिसेरी गोडी, अगास जशी गईणी!
सलारी सोना कु गेंदुवा, मलारी पृथी को मोल!
दुई सुण बांठीण, दुई जसी होंदे तराजू सी तोल!

(भौंरे की जाँघों में बैठी मलारी, चौदहवीं का चाँद! शीशे की गोली जैसी, आकाश की तारिका जैसी! सलारी सोने की गेंद तो मलारी पृथ्वी का मोल! दोनों खूबसूरती में तराजू के एक तोल सी थी)

गजू और मलारी के प्रेम प्रसंग में सलारी का भी जिक्र है वह मलारी की बहन थी व अथाह खूबसूरत! इसलिए मलारी से उसके रूप की प्रतियोगिता करते ये शब्द दिखने में भले ही बौने हों लेकिन हैं बेहद कीमती!

अब आते हैं कुसुमा कोलिण के रूप पर:-

कंचन देई छई कुसुमा कोलिण!
रूप की खजानी छई, बिगरौ की निशाणी!
वींकी गोरी आत्मा होली नौंण सी कुंगली!
आग जसी आंखी होली, दीप जसी जोत!
स्युंदोली होली वींकी, नौ हाथ नौ बेत!
नागीण सी लम्बी होली, खांडा धार सी पैनी!
वींकी मुखडी का पाणी मा ह्वेली रूप सी छ्लार!
वींका रूपन जमुना होली कजौली!
जमुना ह्वेली कजौली, सूरज धुमैलो!

(कुसुमा कोलिण कंचन देह वाली थी! वह रूप की खान थी, खूबसूरती की निशानी! उसका गोरा शरीर मक्खन सा कोमल था! आग सी आँखें होंगी, दीये की सी जोत! उसकी बेणी होगी नौ हाथ नौ बालिस्त लम्बी!  नागिन सी लम्बी है, तलवार सी धार! उसके मुख में पानी की उद्दाम तरंगे थी! उसके रूप के आगे जमुना नदी गुन्दमैली लगती थी! जमुना गुन्दमैली व सूरज फीका लगता था)

नारी रूपों की लोकगाथाओं, कथा कहानियों में चर्चा आगे भी निरंतर जारी रखने का प्रयास करूंगा बशर्ते आप मेरा अपने शब्दों के साथ उत्साह बढाते रहें! सबसे बड़ी बात यह है कि ऐसा नारी शब्द श्रृंगार शायद ही किसी एनी साहित्य में हो जिसकी तुलना प्रकृति प्रदत्त संसाधनों से जोड़कर ऐसी अकाट्य उपमाएं दी गयी हैं जिनका तोड़ मिल पाना असम्भव सा नजर आता है! ये शब्द उपमाएं किसी विद्वान् की नहीं बल्कि उन भाट, चारणों व बाजगी, औजी व बेदावर्त ज्ञाताओं की हैं जो शिक्षित होने के नाम पर अंगूठा छाप कहे जाते थे! युग युगों से ये गाथाएँ योंहीं हम तक शब्दों में ढलकर पहुँचती रही हैं!

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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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