Saturday, September 7, 2024
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अनूठी पंरपरा है- भिटौली!

अनूठी पंरपरा है- भिटौली!

(प्रयाग पांडे)

कुमाऊँ अंचल की सामाजिक परंपराएं, रीति-रिवाज और मान्यताएं विशिष्ट हैं। यहाँ के लोक जीवन में प्रकृति का गहरा प्रभाव है। यहाँ की अधिकांश परंपराएं और रीति – रिवाज प्रकृति पर आधारित हैं। कुमाऊँ में ऋतु के अनुसार लोक पर्व मनाए जाते हैं। यहाँ विभिन्न ऋतुओं में अलग-अलग लोक पर्व मनाने की परंपरा है।

बसंत ऋतु को ऋतुराज कहा जाता है। बसंत ऋतु के आगमन से ठंड का मौसम विदा होने लगता है। बसंत ऋतु में प्रकृति का सौंदर्य निखर जाता है। प्रकृति में नवचेतना भर जाती है। संपूर्ण वातावरण में उल्लास भर जाता है। ठंड के मौसम में हरियाली विहीन हो गए पेड़-पौधों में कोंपल हरियाली और गुलाबीपन की छटाएं दृष्टिगोचर होने लगती हैं।संपूर्ण प्रकृति में यौवन की बहार फूटने लगती है। चारों ओर कुदरत खुशियां मनाने लगती है। सरसों फूलने लगती है। काफल के वृक्षों में रसभरे काफल के छोटे-छोटे दाने नज़र आने लगे हैं। बुराँस फूलने लगता है। पेड़-पौधे बहुरंगी फूल-फलों से लदने लगते हैं।

प्रकृति के इस नवयौवन को देख मानव मन भी हर्ष और उल्लास से भर जाता है। हर्षोल्लास की इस ऋतु में मानव को अपने प्रियजनों की याद सताने लगती है। विशेष अवसरों, तीज-त्यौहारों में अपने प्रियजनों की याद सबको सताती है, लेकिन बसंत भूली- बिसरी यादों को यकायक ताजा कर देता है। बसंत ऋतु में अपने प्रियजनों से भेंट करने की तीव्र इच्छा जागृत हो उठती है। भेंट करने की आकांक्षा को पूर्ण करने के लिए बसंत ऋतु में कुमाऊँ अंचल में अत्यंत आत्मीय और भावुक कर देने वाली परंपरा का निर्वहन किया जाता है, जिसे ‘भिटौली’ कहते हैं।

बसंत का सुआगमन होते बुराँश और सरसों सहित नाना प्रकार के फल-फूल लिखने लगें, कपुवा के साथ ही अन्य पंछियों के सुमधुर स्वर सुनाई दें और प्रकृति के चारों ओर उल्लास का वातावरण हो तो समझिए कि कुमाऊँ में भिटौली का महीना आ गया है। भिटौली का महीना चैत्र के आते ही ब्याहता बेटी- बहिनें ससुराल में अपने पिता और भाइयों की प्रतीक्षा करने लगती हैं।

पहले के जमाने में पहाड़ में बाल्यावस्था में ही बच्चियों की शादी कर दी जाती थी। उस दौर में पहाड़ में यातायात और संचार के कोई साधन नहीं थे। अपनी बेटी -बहन से भेंट- मुलाकात बमुश्किल हो पाती थी। माता-पिता और भाई को सदैव अपनी बेटी-बहन की याद सताती रहती थी। बसंत के आते ही माता-पिता और भाई को अपनी ब्याहता बेटी- बहन की याद और अधिक सताने लगती थी, सो,अपनी बेटी-बहन से भेंट कर कुशल-क्षेम जानने के निमित्त ‘भिटौली’ नामक परंपरा ने जन्म लिया।

(साभार – गुणानंद जखमोला ज़ी की फेसबुक वाल से )

चैत्र मास में पहाड़ में आमतौर पर मांगलिक कार्य नहीं होते हैं। लेकिन चैत्र माह को पहाड़ में भिटौली का महीना माना जाता है। कुमाऊँ में इस महीने विवाहिता बेटी-बहनों को भिटौली देने की प्राचीन परंपरा है। भिटौली यानी उपहारों के साथ भेंट-मुलाकात। भिटौली के बहाने बेटी-बहन की आशल – कुशल भी ज्ञात हो जाती थी।

भाई या पिता भिटौली देने के लिए बेटी-बहन के ससुराल जाते हैं। पहले से भिटौली की एक टोकरी ले जाई जाती थी, जिसे स्थानीय भाषा में ‘छापरी’ कहते हैं। भिटौली में अपनी प्यारी बिटिया को वस्त्र, सामर्थ्यानुसार विभिन्न प्रकार के स्थानीय पकवान, मिठाई और नगदी भेंट दिए जाने की परंपरा है। मायके से भिटौली के रूप में आए पकवानों और मिष्ठान को बेटी- बहनें अपने ससुराल में वितरित करतीं थीं।

चैत्र मास प्रारंभ होते ही विवाहिता बेटी -बहनें भिटौली की बेसब्री से प्रतीक्षा करने लगती हैं।भाइयों वाली बहनें अपनी भाई की राह जोहती हैं कि वह भिटौली लेकर आता ही होगा। जिनके भाई नहीं होते वे उदास होती हैं।

भिटौली को लेकर कुमाऊँ के अनगिनत मर्मस्पर्शी लोक गीत रचे गए हैं, जो भिटौली परंपरा की तत्कालीन महत्ता को अभिव्यक्त करते हैं:-
‘चैत बैशाग भिटाइ मैनाँ,
भेटि औ भाया चाइ रौली बैना।’
अर्थात- ‘चैत और वैशाख बहिनों को भिटौली देने का महीना है। हे भाई, तुम बहन से भेंट कर आओ,वह राह देखती होगी।’ उधर भाई के आने की प्रतीक्षा में है,उसे घुघुती पक्षी की कुहुक भी कचोटती है:-
‘ए नि बासा घुघूती रून झुन,
म्यारा मैता का देसा रुन झुन,
मेरी ईजु सुणौली रुन झुन,
मैं चानै रै गयूं वीके बाट।’
अर्थात:- ‘ए घुघूती (पहाड़ में पाए जाने वाला एक खूबसूरत पक्षी) तू ऐसे उदास स्वर में मत कुहुक, मेरे मायके के क्षेत्र में ऐसे उदास स्वर में मत कुहुक, मेरी माँ उदास हो जाएगी,मैं अपने भाई की राह देखती थक गई,लेकिन वह नहीं आया।’

(साभार – राकेश भट्ट ज़ी की फेसबुक वाल से)

ब्याहता बहन अपने भाई से भेंट और भिटौली के लिए इतनी व्याकुल हो उठती है कि उसे स्वप्न में भी अपना भाई आते दीखता है:-
‘रितु ऐ गे रणा मणी, रितु ऐ रैणा।
डाली में कफुवा वासो, खेत फुली दैणा।
कावा जो कणाण, आजि रते वयांण।
खुट को तल मेरी आज जो खजांण,
इजु मेरी भाई भेजली भिटौली दीणा।
रितु ऐ गे रणा मणी,रितु ऐ रैणा।
वीको बाटो मैं चैंरुलो।
दिन भरी देली में भै रुंलो।
बैली रात देखछ मैं लै स्वीणा।
आँगन बटी कुनै ऊँनौछीयो –
कां हुनेली हो मेरी वैणा ?
रितु रैणा,ऐ गे रितु रैणा।
रितु ऐ गे रणा मणी, रितु ऐ रैणा।।’
भावार्थ :- ‘रुन झुन करती ऋतु आ गई है।ऋतु आ गई है रुन झुन करती।
डाल पर कफुवा पक्षी कुंजने लगा।
खेतों मे सरसों फूलने लगी।
आज तड़के ही जब कौआ घर के आगे बोलने लगा।
जब मेरे तलवे खुजलाने लगे,तो मैं समझ गई कि-
माँ अब भाई को मेरे पास भिटौली देने के लिए भेजेगी।
रुन झुन करती ऋतु आ गई है।
ऋतु आ गई है रुन झुन करती।
मैं अपने भाई की राह देखती रहूँगी।
दिन भर दरवाजे में बैठी उसकी प्रतीक्षा करुँगी।
कल रात मैंने स्वप्न देखा था।
मेरा भाई आंगन से ही यह कहता आ रहा था –
कहाँ होगी मेरी बहिन ?
रुन झुन करती ऋतु आ गई है।
ऋतु आ गई है रुन झुन करती।।’*

आज समूचा संसार अत्याधुनिक युग में प्रवेश कर चुका है। यातायात और संचार सुविधाओं में अकल्पनीय प्रगति हो गई है। इस सबके बावजूद तीज-त्यौहारों और लोक परंपराओं का महत्व और प्रासंगिकता आज भी पूर्ववत बनी हुई है। तीज-त्यौहार और समृद्ध लोक परंपराएं ही मानव को उसकी जड़ों से जोड़ती हैं,जैसे- भिटौली। हर साल ऋतु लौट कर आती है, भिटौली के बहाने प्रियजन एक-दूसरे से मिलते हैं। जब तक ऋतुएं आएंगी, स्वाभाविक है कि भिटौली भी आएगी। बार-बार। हर साल।

* कुमाऊँ का लोक साहित्य।

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