Saturday, July 27, 2024
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देवभूमि की जागरों में समाहित है कुसुम्बा कोलिण व श्रीकृष्ण की प्रेम-गाथा। कैंदू कोली से बचने के लिए नारायण ने किन-किन को दिया श्राप और हल्दी को क्या बोले?

क्या कोली सचमुच राजपूतों की श्रेणी में आते हैं?

(मनोज इष्टवाल)

देवभूमि उत्तराखंड जहां देवताओं का निवास स्थल रहा है, वहीं इसे ऋषि मुनियों की तपस्थली के रूप में भी जाना जाता है। देवताओं के अलावा यहाँ दानवी प्रवृत्ति के राक्षसों का आना जाना भी रहा तो देवलोक की अप्सराओं का अवतरण भी…। द्वापर युग के यहाँ कई क़िस्से कहानियाँ व ऐतिहासिक प्रमाण दिखाई व सुनाई देते हैं। कृष्ण लीलाओं का वर्णन तो यहाँ की थाती-माटी के कण-कण में समाहित है। चाहे वह कृष्ण व गंगू रमोला से सम्बंधित हो या फिर कृष्ण भगवान व कुसुम्बा कोलिण की प्रेम गाथा से सम्बंधित..! यहाँ क़े लोक में प्रचलित डौंर-थाली में कुसुम्बा कोलिण व नारायण कृष्ण की लोकगाथा का जब गायन होता है तो इनके पश्वा आज भी अवतरित कर नृत्य करने लगते हैं।

कुसुम्बा व कृष्ण की प्रेमगाथा के संदर्भ तब सामने आते हैं जब मकरैनी पर्व पर कुसुम्बा कोलिण सुबह सबेरे कौंलगढ़ नामक स्थान से स्नान करने जमुना जी के एक छोर पर पहुँचती है व कृष्ण भगवान दूसरे छोर पर…। कुसुम्बा चाँदन्यूँ का पानी नामक स्थान पर स्नान करते-करते कंफुल्यूँ (पैरों से नाक-कान तक पहुँचने वाले पानी) तक स्नान करने नदी में उतर जाती है। कंचन सी देह वाली कुसुम्बा के रूप क़ा वर्णन जागर व लोकगीतों में कुछ ऐसे मिलता है- “रूप की खजानी, बिगरौ की निशानी। आगी सी अगेली, दीवा जसी जोत। वींकि लट्टी छई, नौ हत्त नौ बेंत॥ (रंग रूप जा ख़ज़ाना, सुन्दरता में अप्रितम। आग सी लाल उदंकार, दीये की सी जोत। उसके सुनहरे बाल नौ हाथ व नौ बिलस्त लम्बे थे॥)

कुसुम्बा के नहाते समय बाल टूटकर जमुना नदी में बहते-बहते कृष्ण भगवान की अंगुलियों में फँस जाते हैं। वे उन सोने जैसे चमकीले बालों को देख इतने आत्ममुग्ध हो जाते हैं कि वह कल्पना करने लगते हैं कि जिसके बाल इतने लम्बे हैं वह कितनी सुंदर होगी। वह फटाफट अपने अंग वस्त्र लपेटकर जमुना जी के बहाव के उलट ऊपर की ओर उस रूपसी को ढूँढने निकल पड़ते हैं तो देखते हैं कि यमुना नदी के दूसरे छोर पर एक बेहद गोर वर्ण की अतुलनीय ख़ूबसूरत महिला नहाकर वापस लौट रही है। वह जल्दी से यमुना जी को पार करना चाहते हैं लेकिन उन्हें उचित जगह नहीं मिलती लेकिन जब तक वह पार करते हैं तब तक सूर्य निकल आते हैं व दूसरी ओर गाँव के ग्वाले गाय चुगाने गाँव से निकल आते हैं। जिन्हें श्रीकृष्ण तिल चावल देकर कुसुम्बा का पता पूछते हैं। पता पूछते-पूछते वे ऊँचे कौंलगढ़ कुसुम्बा के घर पहुँच जाते हैं। जहां कुसुम्बा भगवान श्रीकृष्ण को देखकर अचंभित हो जाती है। अपनी बातों की शुरुआत से पहले कुसुम्बा उन्हें “सिमन्या ठाकुरो” कहकर उन्हें प्रणाम करती हैं। कृष्ण भगवान उन्हें “जीती रह कोलिण” का जबाब देकर कहते हैं कि तेरा पति कैंदु कोली कहाँ है? इसके जवाब में कुसुम्बा कहती है कि वे छः माह के प्रवास पर राजा इंद्र के आवास बनाने गए हुए हैं।

कृष्ण भगवान यही तो चाहते थे। वह कुसुम्बा से बोले- मुझे तुम्हारे घर रुकना है। मुझे रहने के लिए स्थान दो। घर आए अतिथि का अनादर भला कुसुम्बा कैसे करे। वह श्री कृष्ण से कहती है कि आप ठाकुर हो और हम नापर (अछूत/शिल्पकार)….! ऐसे में भला मै आपको कैसे अपने घर में स्थान दूँ? लेकिन कृष्ण भगवान ज़िद में अड़े रहते हैं कि मैं यहीं रुकूँगा। कुसुम्बा कहती है फिर तो आपको भैंसों के भैंस्वाड़ा (भैंसों के साथ उनके आवास) में रहना होगा। कृष्ण बोलते हैं उस कीचड़ में कैसे रहूँगा? फिर कुसुम्बा उन्हें बकरियों की गोट (बकरियों की छान में बकरियों के संग) रहने को बोलती है। श्रीकृष्ण कहते हैं वहाँ मुझे पिस्सू काटेंगे। फिर कुसुम्बा कहती हैं कि आप कोठारी की सांधी (लकड़ी के बने अन्न बॉक्स) में लेट जाओ जिसके जवाब में श्रीकृष्ण कहते हैं कि उन पर लकड़ियाँ चुभेंगी। थक हारकर कुसुम्बा उन्हें कहती है क़ि वह उनके सुतरी पलंग पर लेट सकते हैं। कृष्ण भी यही चाहते हैं। सुतरी पलंग पर लेटे-लेटे कुसुम्बा भगवान के पाँव दबाना शुरू कर देती हैं। भगवान नारायण को इतनी गहरी नींद आ जाती है कि कई दिन कई रात गुज़र जाती हैं। कुसुम्बा बड़े सेवाभाव से उनके पैर दबाती रहती हैं।

अचानक एकदिन कुसुम्बा कोलिण अपने पति कैंदू कोली के पदचापों की आवाज़ सुन विचलित हो उठती है व ऊहापोह की स्थिति में आ जाती है कि सोए हुए नारायण को कैसे जगाऊँ लेकिन लोकलाज व मान सम्मान को देखकर व अपने पति को दरवाज़ा बजाते देखकर कुसुम्बा कृष्ण को झकझोर कर उठाती है व अपने पति के आने की ख़बर सुनाती है। इधर श्रीकृष्ण खिड़की से कूद कर क़ुलण (मकान के पिछले भाग) में छुपते हैं उधर कुसुम्बा दरवाज़ा खोलती है। कैंदू कोली अभी कुसुम्बा से सवाल जवाब कर ही रहा होता है कि कृष्ण को देखकर कुत्ते भौंकने शुरू होते हैं। कैंदू कोली लट्ठ लेकर श्रीकृष्ण के पीछे भागते हैं। कृष्ण अपनी लाज बचाने वहाँ से भागते समय कुत्तों को श्राप देते हैं कि “दुनिया तुम्हें दुतकारती रहे, तुम्हारी जग हंसाई हो।”

भागते हुए कृष्ण क्यालौं का किलवाना (केलों के बगीचे) पहुँचते हैं लेकिन केलों के पत्तों ने हिलकर कृष्ण का भेद खोल दिया। नारायण ने केलों को श्राप दिया- तुम एक बार ब्याह कर (केले देकर) गलकर नष्ट हो जाओगे। कृष्ण वहाँ से भागकर सर्प रूप धारण कर पिंडाल पूँगड (अरबी के खेत) में अरबी के पत्तों के बीच छुपते हैं लेकिन अरबी के पत्ते भडभड़ाकर उनके वहाँ छुपे रहने का भेद खोलते हैं। कैंदू लट्ठ लेकर यहाँ भी पहुँच जाते हैं। श्रीकृष्ण अरबी को श्राप देते हैं कि तू हमेशा खड्ड में ही रहे।

अंत में श्रीकृष्ण हल्दी के हल्द्वाड़ा (हल्दी के पत्तों के बीच) छुपते हैं। हल्दी के पत्ते शांत मन से उन्हें छुपाए रखते हैं। नारायण तब हल्दी को वरदान देते हैं कि “तू सुमंगली बने व सबके माथे सजे” । तब से हल्दी का टीका पवित्र माना जाता है। यह तो है कुसुम्बा व कृष्ण की प्रेम गाथा अब आते हैं कोली जाति के जातिवर्ण पर!

क्या कोली सचमुच राजपूतों की श्रेणी में आते हैं?

निश्चय ही कोली जाति उत्तराखंड की आदि जनजाति क़ोल भील में सम्मिलित रही है लेकिन फिर भी इस जाति के जातक अपने को राजपूतों के समकक्ष मानते हैं। यह इस दौर की बात है जब मै बमुश्किल छठवीं सातवीं कक्षा क़ा छात्र रहा होऊंगा। हमारे गांव के स्व. भगवान सिंह, विक्रम सिंह व महिपत सिंह नेगी भाई लोग अपना मकान बना रहे थे। तब अक्सर मेरे पिता जी व मढ़ी के गुनानंद महात्मा जी हमारे गाँव के राजमिस्त्री सिंधा कोली ब्वाड़ा के पास जा बैठते थे। ऐसे में एक दिन घरभोज पर बात आई तब महात्मा जी बोले कि आख़िर शिल्पकार समुदाय में सह भोज या घरभोज में इतनी दूरियाँ क्यों होती हैं। लोहार कोली के हाथ का और कोली लोहार के हाथ का नहीं खाते। आवज़ी तो बहुत दूर की बात हुई। तब सिंधा ब्वाड़ा बोले कि कोली अपने को राजपूतों के समकक्ष मानते हैं इसलिए लोहारों के हाथ का नहीं खाते। लोहार यह सोचकर नहीं खाते क़ि वो बड़े तो हम कहाँ छोटे हुए।

बात यहीं आई गयी हो गयी लेकिन भला मै इस बात को सुनकर कहाँ चुप रहने वाला था। मुझे इस बात की आत्मग्लानि जो थी कि पाँचवीं के पेपर देते समय शांति भाई जो कोली समाज का है ने भूलवश मेरी रोटियाँ छू ली थी जिन्हें मैने खा लिया था जबकि मै ब्राह्मण हुआ। उस दौर में छुआछूत हम सबकी रगों में भरी होती थी।मैं पिताजी के पीछे पड़ गया क़ि आख़िर कोली क्यों अपने को दोयम दर्जे का राजपूत मानते हैं। उन्होंने मुझे कहा कि उनके पुरखे तेल अटेरने का काम करते हैं इसलिए उन्हें शुद्ध माना जाता है। मै बोला – फिर सिंधा ब्वाड़ा लोग तो राजमिस्त्री हुए वे तो लोहे का काम करते हैं.…! मेरा प्रश्न पूरा नहीं हुआ था कि चूल्हे में रोटियाँ सेंक रही माँ बोली- आप इसे ऐसे नहीं टाल सकते आप जानते ही हो इसके प्रश्न कभी ख़त्म नहीं होंगे जब तक यह संतुष्ट नहीं होता। पिताजी झल्लाकर बोले- जब सब यही सच मानते हैं तो मैं क्या बताऊँ? माँ बोली – वही जो सच है । देवगाथा कुसुम्बा कोलिण .…! पिताजी बोले- अरे मैं तो यह बात भूल ही गया था। फिर उन्होंने सुनाई थी यह लोकगाथा। जो नारायण व कुसुम्बा के प्रेम प्रसंग से जुड़ी है। वर्षों बाद यही लोकगाथा गीत व वीडियो फ़िल्मांकन के बाद हम लोगों तक पहुँची है  जबकि देव जागर में डौंर-थाली में हम यह अक़्सर घड़ियाले में सुनते ही रहते हैं। भले ही कुछ लोग इस गाथा को निरंकार से जोड़कर भी देखते हैं। शायद यही वजह भी है कि कोली समाज अपने को नारायण व कुसुम्बा का वंशज मानकर स्वयं को ठाकुर कहलाना पसंद करता है। भले ही इस गाथा में कुसुम्बा व कृष्ण का प्रेमालाप कम व सेवाभाव ज़्यादा दर्शाया गया है लेकिन मेरा मानना है कि यह जानबूझकर सवर्ण समाज ने छुपाकर रखा होगा ताकि उन पर आँच न आए।

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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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