पहाड़ में दिवाली बाजार को लील रहा है करवा चौथ।
(हरीश जोशी)
उत्तराखण्ड में पिछले दो दशक के भीतर आयातित संस्कृति का जादू सिर चढ़कर बोल रहा है।त्यौहारों के बाजारीकरण की विश्वव्यापी मुहीम और कारपोरेट मीडिया की दिमागी उपज ने पहाड़ में करवा चौथ के बाजार को खासा प्लेटफार्म दिया है।दिवाली से ठीक कोई एक हफ्ता पहले बाजार में इस त्यौहार की खरीददारी धमक से लगता है कि लोगों की दिवाली खरीददारी प्राथमिकताएं बदल रही हैं या यूँ कहें कि करवा चौथ बड़ी तेजी से दिवाली बाजार को लील रहा है।
करवा चौथ की धमक और उसके दूरगामी प्रभाव को लेकर उत्तराखण्ड के पहाड़ की घाटियों की बसासत में किये गये फौरी सर्वे ने बड़े दिलचस्प आंकड़े पेश किये हैं।औसतन एक सौ ग्राम सभाओं वाली बसासत में गाँवों की दस हजार महिलाएं इस व्रत को करने लगी हैं।इस व्रत के साथ बाहरी आडम्बर बहुत ज्यादा जुड़े हुए ही आये हैं जाहिर है सामग्री के लिये भी बाहर पर ही निर्भरता स्वाभाविक है।पूजा विधान और अन्य रस्मों की सभी सामग्री बाहरी है उत्तराखण्ड का कोई उत्पाद इसमें उपयोग हो पा रहा है तो वो सिर्फ पानी है।इतनी अधिक बाहरी निर्भरता से सीधा असर व्रती और उसके परिवार के बजट पर ही स्वाभाविक रूप से पड़ना है।
देखादेखी की नई बनती जा रही इस परम्परा का सनातन संस्कृति से दूर दूर तक कोई भी वास्ता न होने के बावजूद इतनी अधिक स्वीकार्यता सिर्फ और सिर्फ अपसंस्कृति की परिचायक बनती जा रही है।महिलाओं की पोशाक साज सज्जा आदि ने बड़े स्तर पर सामाजिक भौंडापन ही पेश किया है।
बाजार में इस व्रत और उसके विधानों की सामग्री की दरें बताती हैं कि औसतन प्रति महिला इस त्यौहार पर न्यूनतम पांच सौ रूपये से लेकर अधिकतम दस हजार रूपये तक खर्च कर रही हैं।प्रति महिला खर्च का औसत दो हजार रूपये की दर से दस हजार व्रती महिलाओं के खर्च का आंकड़ा समग्र में दो करोड़ रूपये से पार जाता है,मतलब पहाड़ के छोटे बाजार भी दो दिन के भीतर इतना बड़ा व्यापार सिर्फ और सिर्फ करवा चौथ का और वो भी दो दिन में कर पा रहे हैं। फौरी आंकड़े बताते हैं कि कोरोना काल की बेरोजगारी से पहाड़ अभी उबर नहीं पाये हैं लोगों की परचेजिंग पावर गिरती ही जा रही है बाजार की महंगाई चरम पर है उस पर देखादेखी का यह पर्व परिवारों के दैनिक बजट को तो बिगाड़ ही रहा है साथ ही कोई एक हफ्ते बाद की आसन्न दिवाली में खरीददारी की प्राथमिकताओं को भी बदल रहा है। किसी को भी कुछ करने से रोका जाना मकसद न होने के बाद भी कहना समीचीन होगा कि इस त्यौहार ने सनातनी संस्कृति को तेजी से तिलांजलि दी है।व्रत और त्यौहार की रस्मे बहुत कुछ रमजान का पुट लिये हैं मसलन सुबह उठते ही खा लेना फिर पूरा दिन पानी भी नहीं पीना।ऐसा तो सनातनी और पहाड़ की पूजा अनुष्ठान परम्परा में कहीं नजर नहीं आता।
पता नहीं क्या होगा इस अपसंस्कृति का भविष्य के आलोक में चिन्तन बेहद जरूरी है।