Thursday, December 12, 2024
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“जोझोड़ा” बारात दुल्हन लेकर दूल्हे के घर पहुंची। जौनसार – बावर क्षेत्र की अनूठी परम्परा

“जोझोड़ा” बारात दुल्हन लेकर दूल्हे के घर पहुंची। जौनसार – बावर क्षेत्र की अनूठी परम्परा

(मनोज इष्टवाल)

उत्तराखंड की राजधानी देहरादून से लगभग 135 किमी. दूर उत्तरकाशी जनपद के करीब जौनसार बावर क्षेत्र का च्यामा गाँव जो खत्त बौँदुर में पड़ता है व जिसके निकट गोरा घाटी, मानथात व लाखामंडल जैसे ऐतिहासिक स्थल हैं, हमें “जोझोड़ा” में शामिल होने का अवसर मिला। इस विवाह के प्रति उत्सुकता सिर्फ़ हमारे मन में ही नहीं थी अपितु जनजातीय क्षेत्र की परम्पराओं को जानने समझने के लिए प्रदेश सरकार में तीन महत्वपूर्ण विभाग जिनमें शिक्षा, एमडीडीए, सूचना का कार्यभार संभाल रहे अपर सचिव बंशीधर तिवारी, एसपी इंटेलिजेंट तृप्ति भट्ट व अन्य गणमान्य भी पहुँचे थे। इस विवाह के लिए दूल्हे की बहन वैज्ञानिक डॉ लीला चौहान ने इन बिशेष अतिथियों को बिशेष रूप से आमंत्रण भेजा था, ताकि उनके क्षेत्र से गायब हो रही जोझोड़ा विवाह पद्धति की परम्पराएँ जीवित रहें व उनके प्रति समाज में जन चेतना जागे।

मूलत: जोझोड़ा विवाह पद्धति जौनसार बावर क्षेत्र की चार प्रकार की विवाह पद्धतियों में सर्वोपरि कही जाती है। इसे जोझोडा के साथ -साथ “बाजदिया” विवाह पद्धति भी कहा जाता है। इसके अलावा इस क्षेत्र में बोईदोली, बौबाकीछूट प्रथा नामक विवाह प्रचलन में हैं। लेकिन इस सबसे पुरानी एक और शादी की परम्परा भी इस जनजातीय क्षेत्र में थी जिसे चियां-बियां कहते हैं। शायद ही आज का समाज इस परम्परा के बारे में जानता हो।

यूँ तो मेरे द्वारा पूर्व में हिमाचल से लगे गाँव बलावट की एक “जोझोड़ा” विवाह पद्धति का आँखों देखा हाल पूर्व में लेख के माध्यम से पहले भी आप सबके सम्मुख लाया जा चुका है लेकिन डॉ लीला चौहान ने बिशेष आग्रह करते हुए कहा है कि मै इस लेख के माध्यम से सम्पूर्ण जनजाति की इस विवाह परम्परा पर प्रकाश डालूं।

च्यामा गाँव खत्त बौँदुर बारात लेकर पहुंची गडोल गाँव खत्त कोरु से दुल्हन सुचिता राठौर

नियति का खेल देखिये सुचिता का विवाह च्यामा गाँव के इसी घर में बड़े पुत्र अनिल चौहान से होना था लेकिन विधाता को कुछ और ही मंजूर था। अचानक एक घटनाक्रम में अनिल स्वर्ग सिधार जाते हैं। अनिल की बहन डॉ लीला चौहान के लिए ही नहीं बल्कि दोनों परिवारों के लिए यह झकझोर देने वाली घटना थी। एक बेटी ही दूसरी बेटी की पीड़ जान सकती थी। डॉ लीला को लगा कि इसमें सुचिता का क्या दोष…। वह तो हृदय से उसे अपनी भाभी या बहु मान चुकी थी। जैसे तैसे परिवार संभला, गडोल गाँव के सुचिता के परिवार तक कैसे संवाद कायम किया जाय इसके लिए डॉ लीला ने क्षेत्रीय समाजसेवी इंद्र सिंह नेगी को माध्यम के रूप में चुना जिन्होंने दोनों परिवारों के रिश्ते को बांधे रखने के लिए एक सेतु का काम किया और सुचिता एवं उनके पिता मिठन सिंह राठौर व परिवार को इस बात के लिए राजी किया कि वह सुचिता का रिश्ता अनिल के भाई गंभीर सिंह चौहान पुत्र सूरत सिंह चौहान से कर दोनों परिवारों के संबंधों को सुमधुर बनाएं ताकि दुल्हन के हृदय में भी यह न रहे कि विधाता ने उनके साथ क्या खेल खेला।

गंभीर सिंह चौहान आईटीआई किया युवा है व सर्वगुण सम्पन्न है। भला क्या सुचिता के पिता व क्या परिवार को इस सब में आपत्ति होती। डॉ लीला बताती हैं कि उन्होंने अपने भाई गंभीर पिता सूरत सिंह चौहान व परिजनों से कहा कि इस बात का हमें ध्यान रखना होगा कि हम सुचिता को बहु के रूप में नहीं बल्कि बेटी के रूप में अपने घर ला रहे हैं उसे यहाँ कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए।

बहरहाल रिश्ते को मंजूरी मिली व विगत मार्च को मुहूर्त के अनुसार सुचिता ढ़ोल नगाढों के साथ शुभ मुहूर्त (12:00 बजे दोपहर) गडोल से कुछ सगे संबधियों के अपनी बारात लेकर अपनी ससुराल च्यामा आ पहुंची। जहाँ गाँव की सरहद पर च्यामा गाँव के लोगों ने पूरे हर्षोल्लास के साथ उनका व बारात का स्वागत किया व उन्हें विवाह पंडाल पर ले आये। दुल्हन सुचिता के साथ उनके परिजनों में भाजपा संगठन के राजवीर सिंह राठौर, श्याम सिंह राठौर, स्वराज सिंह राठौर, सूरत सिंह राठौर व केदार सिंह राठौर च्यामा गाँव पहुँचे। फिर चला गीत व नृत्य का सिलसिला जिसमें विवाह समारोह में सम्मिलित होने पहुंची राजधानी देहरादून से एसपी इंटेलिजेंट तृप्ति भट्ट ने भी खूब ठुमके लगाए। वहीं प्रत्यक्षदर्शियों का कहना था कि इस दौरान अपर सचिव बंशीधर तिवारी जोकि मूलत: उत्तर प्रदेश से हैं, यहाँ की इस जोझोड़ा विवाह परम्परा के हर पहलु को बारिकी से समझने व जानने के इच्छुक दिखाई दिए। उन्होंने जनजाति की इस विवाह परम्परा की खुलेमन से प्रशंसा भी की। डॉ लीला चौहान कहती हैं कि “उन्हें इस बात का मलाल है कि बंशीधर तिवारी सर उनके घर से भूखे ही लौटे। क्योंकि हमारी समृद्ध वैवाहिक परम्पराओं में बड़ा खाना प्रचलन में है जिसमें बकरे काटे जाते हैं व तिवारी साहब मैदानी भू-भाग के शुद्ध शाकाहारी पंडित हैं। खैर महासू की कृपा हुई तो उन्हें आतिथ्य सत्कार हेतु दुबारा से आमंत्रित करुँगी। “
मूलत: कुमाऊँ मूल की (ससुराल टिहरी गढ़वाल) निवासी आईपीएस तृप्ति भट्ट का जौनसारी लोक संस्कृति से बेहद लगाव है। इस बात की पुष्टि करती बंगाल की बेटी व चमोली गढ़वाल की बहु (कॉमरेड इंद्रेश मैखुरी की पत्नी) मालती हलदार बेहद खुश दिखाई दी। वह बताती हैं कि “उन्होंने स्वयं भी तृप्ति भट्ट की तरह घाघरा चोली पहनकर खूब नृत्य किया। वह इस बात के लिए डॉ लीला चौहान को धन्यवाद देती हैं कि उन्होंने इस जनजाति की परम्पराओं में सरसब्ज “जोझोड़ा” वैवाहिक उत्सव में हमें भी आमंत्रित किया। मैं स्वयं भी इस परम्परा को अंगीकार कर बेहद खुश हूँ। ख़ुशी इस बात की है कि यहाँ के लोगों ने समृद्धि को छूने के पश्चात भी अपनी लोक संस्कृति व रीति-रिवाजों को जीवित रखा व पुनर्जीवित किया। ”

कॉमरेड इन्द्रेश मैखुरी इसे अद्भुत बताते हैं व कहते हैं “सच भी यही है कि कोई भी समाज तभी तक जीवित रहता है जब तक उसका लोक व लोक संस्कृति जिन्दा रहती है। डॉ लीला के माध्यम से हमें भी जोझोड़ा जैसी समृद्धशाली विवाह परम्परा देखने को मिली तो लगा हम चाँद पर पहुंचकर भी तभी अलग पहचाने जाएंगे जब हम अपने लोक समाज की रीति और नीति का निर्वाहन करेंगे।”

“जोझोड़ा” विवाह

इस विवाह पद्धति में लड़की की बारात खूब गाजे बाजे के साथ दूल्हे के घर जाती है। हिन्दू विवाह पद्धति के बिल्कुल उलट इस विवाह पद्धति में फेरे नहीं पड़ते, और शादी के सभी मुख्य पहलु एक घंटे में ही समाप्त हो जाते हैं। परन्तु वर्तमान में इस क्षेत्र के पंडित समाज के पंडितों द्वारा हिन्दू कर्मकांड का विधिवत ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात इस पद्धति में बदलाव आने शुरू हो गए हैं, और बाजदिया (जोझोड़ा) विवाह पद्धति में भी हिन्दू विवाह परंपरा की घुसपैठ शुरू हो गयी है जिसके कारण अब एक घंटे में समाप्त होने वाली यह वैवाहिक परंपरा घंटों तक चलती है। इस बार भी कुछ ऐसा ही दिखने को मिला जिसमें लगा कि जोझोड़ा परम्परा में पाश्चात्य संस्कृति की घुसपैठ शुरु हो गई है, जो यहीं नहीं बल्कि सम्पूर्ण उत्तराखंड में फोटोग्राफर्स की देन कही जा सकती है। यहाँ सुचिता की बारात अपने चंद सगे संबंधियों के साथ मुहूर्त अनुसार सुबह को तो पहुँच गई थी लेकिन बाकी बाराती गडोल से शांयकाल 7:00 बजे के उपरान्त पहुँचे, जिन्हें जोझोड़ा परम्परानुसार दुल्हन सुचिता व दूल्हा गंभीर गाँव की सरहद में ढ़ोल नगाड़े व ग्रामीणो के साथ लेने पहुँचते हैं व वहीं से दोनों पक्ष नाचते गाते फिर उसी आँगन में पहुँचते हैं जहाँ विवाह का तम्बू गढा होता है।

यहाँ एक परम्परा थोड़ा सा कमत्तर नजर आई। पहले जैसे ही बाराती गाँव की सरहद पर पहुँचते थे वहां से जंगू गाकर अपने आने की सूचना देते थे, जबाब में गाँव की महिलाएं जंगू में ही उन्हें प्रत्योत्तर देते हुए कहती थी कि आइये हमारे गाँव में आपका स्वागत है। यहाँ आँगन जैसे ही दुल्हन अपने बारातियों के साथ पहुंची एक चुनरी अचानक प्रकट होती है जो दुल्हन के सिर के ऊपर आ जाती है, यह प्रचलन पंजाबियों के विवाह में दिखने को मिलता था लेकिन फोटोग्राफी में खूबसूरती आये उसके लिए यह परम्परा यहाँ भी बीच में आ गई। यही नहीं स्टेज में जयमाला कार्यक्रम का शुभारम्भ हुआ, जबकि विवाह कार्यक्रम तो दिन में ही निबटा लिए गए थे। मेरा व्यक्तिगत रूप से मानना है कि अगर हम शुद्ध रूप से जोझोड़ा वैवाहिक परम्परा का निर्वहन करें तो वह ज्यादा समृद्ध लगेगा। हमें ऐसी जनजातीय परम्पराओं में यह घुसपैठ रोकनी चाहिए।

बाजदिया विवाह परंपरा भी जोझोड़ी होती है। लड़की पक्ष की ओर से ले जाई गयी बारात का लड़के पक्ष के लोग गाजे बाजे के साथ स्वागत करते हैं तथा हर संभव एक से एक किस्म का खाना जिसमें मांस शराब मिठाई के साथ बिभिन्न पकवान शामिल होते हैं, लड़की पक्ष की तरफ से आई बारात को खिलाते हैं। यहाँ की शादी बहुत खर्चीली साबित होती है, भले ही दहेज़ न लिया जाता है न दिया ही जाता है लेकिन हज़ारों की संख्या वाली बारात को खाना खिलाना ही सबसे बड़ी चुनौती होती है। पहले जौनसार बावर में दोनों जगह शादी को चिंयां-बियाँ कहा जाता था। बावर में आज तक भी चिंयाँ, दुल्हन को चिंयाहट तथा बारातियों को चिंयाँहित्यांण के नाम से पुकारा जाता है।

डेरा प्रचलन

यह प्रचलन बड़ा अद्भुत है। पूर्व में गाँव का ढाकी इस सबकी घोषणा करता था कि कौन से मेहमान किस डेरे में जाएंगे लेकिन अब तकनीकी सुविधाओं की बढ़ोत्तरी होने के कारण यह घोषणा लाउडस्पीकर के माध्यम से सब तक पहुँचाई जाती है। जब यह घोषणा हो रही थी तो मैंने उत्सुकता जताई कि यह डेरा वाला क्या सिस्टम होगा? पास खडे संयुक्त निदेशक सूचना के एस चौहान, गढ़ बैराट के सम्पादक भारत सिंह चौहान व हिन्दू के सम्पादक इंद्र सिंह नेगी ने इसे विस्तार दिया।

समाजसेवी व गढ़ बैराट के सम्पादक भारत सिंह चौहान बताते हैं कि “जोझोड़ा शब्द का अर्थ देखा जाय तो जूझने से है। सदियों पूर्व की इस परम्परा में अक्सर ज्यादात्तर लड़ाईयाँ दुल्हनों को लेकर होती थी। मुग़ल काल में यह ज्यादा बढ़ गई थी, इसलिए बारात दूल्हा ले जाए इसकी जगह दुल्हन गुपचुप तरीके से बारात लेकर दूल्हे के यहाँ पहुँचती और मात्र घंटे भर में विवाह रस्म पूरी कर दी जाया करती थी। दुल्हन के बाराती तलवार नृत्य करते हुए आगे बढ़ते थे ताकि उस हर आक्रमण से निबटा जा सके जो अप्रत्यक्ष हो।

भारत चौहान दलील देते हैं कि “जोझोड़ा” देव पालकी को भी कहा जाता है जो एक गाँव से दूसरे गाँव जाती है। क्योंकि पालकी चांदी से मढ़ी होती थी व उसमें देवमूर्तियाँ विराजमान रहती थी इसलिए उसकी रक्षा भी इसी तरह होती थी व इसे देव बारात भी कहा जाता था।

वह बताते हैं कि जो बाराती आते थे उन्हें रात्रि विश्राम हेतु सुविधायुक्त कोई ऐसा आवास उपलब्ध करवाया जाता था जिसमें सभी बाराती आ जाएँ। इसे ही डेरा कहा जाता है। डेरा शब्द बेहद पौराणिक कहा जा सकता है। जो परिवार अपने घर में डेरा देता था अर्थात रात्रि बिश्राम हेतु स्थान देता था, भोजन परोसते समय उस परिवार के मुखिया की भी एक थाली भोजन के लिए लगाई जाती थी।

जौनसार की समृद्ध परम्परा में बारात के बाद उन लोगों को डेरे में प्राथमिकता दी जाती थी जो दुरस्थ क्षेत्र जैसे गढ़वाल या अन्य क्षेत्रों से आते थे।

बाराती जिस डेरे में होते थे वहां वे लोग दूल्हन पक्ष की खत्त के उन लोगों को भी आमंत्रित करते थे जो उनकी खत्त के होते थे। साथ ही साथ वह दूल्हे पक्ष के बुजुर्गों को भी अपने डेरे में आमंत्रित करते थे।

रयांटुडी / ढ़याँटुडियों का सम्मान।

जौनसारी समाज में अविवाहिता युवती “ध्याण” और विवाहिता “रंईण” कहलाती है। लाड़ प्यार में इन्हें ‘ध्याटुंडी‘ और रंईटुडी‘ भी कहा जाता है। घ्याण और रंईण नारी अस्मिता के दो उच्च मानक यहां नारी को संपूर्ण आदर सम्मान व स्नेह से थोड़ी बेचारगी का भाव कौंधने लगता है। किन्तु विवाहिता महिला पिता के घर गांव में ध्यांटुडी की कहलाती है। ध्यांण को जहां पिता के घर में स्वच्छंदता पूर्वक जीने का अधिकार है वहीं ससुराल में रईण में नितांत प्रतिबंधित उच्च आदर्शो से परिपूर्ण प्रतिष्ठित जीवन जीती हैं। वह अचानक किसी के घर में नहीं जा सकती। रईण को ससम्मान अपने घर में आमंत्रित किया जाता है तथा घर में बुलाने पर उसे परम्परानुसार रूचिकर भोजन यथोचित मान सम्मान और निर्धारित शगुन देना पड़ता है।

जहाँ बाराती अपने क्षेत्र या गाँव खत्त से दूल्हे के गाँव में पूर्व में विवाही गई अपनी ढ़याँटुडियों (बेटियों) जोकि दूल्हे के यहाँ रयाँटुड़ी (बहु) कहलाती हैं को पूछते थे कि कोई उनके क्षेत्र की बेटी तो इस गाँव में नहीं है। वहीं वही बेटी उनके डेरे में आकर उन्हें अपने घर आने को आमंत्रित करती व अपने घर में उनका यथासंभव स्वागत सत्कार करती है। बदले में बाराती उसके हाथ में पैंसे रखकर उसका उसकी ससुराल में मान सम्मान बढ़ाते हैं।

विवाह समारोह हों या फिर अन्य समारोह नारी प्रदान समाज में यहाँ एक बड़ी समृद्ध परम्परा है जिसे रयांटुड़ी भोज कहते हैं। गाँव की जितनी भी बहुवें (रयाँटुड़ी) होती हैं उनके लिए अलग से भोज की व्यवस्था की जाती है।

मुंजरा / रैईणा रात

रात्रि विश्राम से पूर्व मनोरंजन के लिए रात भर बाराती पक्ष व घराती पक्ष में गीत नृत्य का कार्यक्रम चलता है। इस विवाह में भी गडोल गाँव के बारातियों ने मुंजरा (घर के भीतर का नृत्य) लगाया। रात भर खंजरी व ढोलकी में गीत व नृत्यों ने शमां बाँधकर रखी। फिर प्रात:काल में रैईणा रात में महासू देवता की आस्का लगाई जाती है। सभी के ऊपर गंगा जल या गौमूत्र छिड़ककर शुद्ध किया जाता है। व पिछली रात हुई किसी भी तरह के खान पान रहन सहन की भूल चूक माफ़ हेतु महासू देवता से प्रार्थना कर माफ़ी मांगे जाने का दस्तूर निभाया जाता है व देवता को खुश करने के लिए उसके जागर गीत गाये जाते हैं।

समाजसेवी इंद्र सिंह नेगी कुछ खत्तों के ऐसे लोक कलाकारों का नाम लेकर बताते हैं कि विवाह समारोह में इन लोगों को बिशेष आमंत्रित किया जाता है जो गीत व नृत्य में हासिल किये हों व मुंजरा, जंगू भावी इत्यादि गायन में बिशेष पारंगत हों वह बताते हैं कि ” खत्त बहलाड – बघेल सिंह तोमर, चमन सिंह लाछा, सीला से कलम सिंह नेगी, बिसोई से ओम प्रकाश, मैसासा पूरण सिंह, श्याम सिंह, अमर सिंह क्वासा, शोभाराम द्वीना, शीबा जोगड़ा ठाणा, सिंना बाजगी गास्की, नानक चंद बिसोई, मुन्ना धाकी लोहन, थात कलोनी धीरोई मुन्ना, दीवान, सुन्नु ढाकी भुनोऊ, टीकाराम चिटाड, अतर सिंह ग्राम खुसेऊ, संतराम ग्राम मशराड, बडणु से खजान,कुंवर सिंह, डोडू, भजन लाल, लाच्छा के सूरत सिंह व जंगू गायन में लोक कलाकार नई पीढ़ी में बालम सिंह चौहान व विक्रम सिंह रावत इत्यादि प्रमुख हैं जो इस गायन परम्परा के सानी माने जाते हैं।

बाक़ने वाली महिलायें

बड़णु से लीला देवी, सकनी ग्राम से विपो देवी, सम्मो देवी

बाकने वाले

मैय्या सिंह बड़णु, थेचक सिंह भंजरा, दीवान सिंह सकनी, दीवान सिंह भंजरा, ग्यारु दास रावना, संत राम नेता रिखाड़, दीवान सिंह दोहा, भगत सिंह सवाई, क़ातगु दास मोना, कुंदन सिंह मटियावा।

कन्या दान।

यों तो जौनसारी समाज में दहेज़ प्रचलन में नहीं है फिर भी कन्यादान के रूप में कन्या को दैनिक उपयोग की वस्तुओं के रूप में पांच भंडयाई (पांच बर्तन), गाय, ओखली, दरांति व रस्सी इत्यादि दी जाती थी अब यह प्रचलन है भी या नहीं इतनी जानकारी नहीं है। डॉ लीला चौहान मुझे उस बक्से को दिखाती हैं जो सुचिता के मायके से आया होता है। वह कहती हैं यह “कोथडी” है।

कोथड़ी

कोथड़ी अर्थात यह एक बिशेष व्यवस्था महिलाओं के लिए है। विवाह के समय बेटी को मायके पक्ष से दिए गए व्याक्तिगत बिशेष धन जिसे कोथडी धन कहा जाता है, उस पर बेटी के स्वयं का धन का अधिकार होता है। विवाह के समय नगद धन लड़की को या साथ में पशु, गाय, भैंस, बकरी या मुर्गा आदि दान में दिए जाने की व्यवस्था है। इस प्रकार महिला इसी से अपनी आय (जिसे ज्वाड घन कहा जाता है) बढ़ा सकती है। इस कार्य में बेटी का पूरा मायके का परिवार उसे सहयोग करता है तथा उस धन पर उसी का अधिकार होता है, उसे वह जैसे मर्जी व्यय करे।

बहरहाल जोझोड़ा विवाह प्रथा जिसमें लड़की स्वयं लड़के के यहाँ बारात लेकर जाती है, मेरे अध्ययन में इतने ही तथ्य सामने आये हैं। इसके अलावा भी अगर कुछ प्रसंग रह गये हों तो इस जनजाति के बुद्धिजीवी समाज से अनुरोध है कि वह इस संदर्भ में मेरा मार्गदर्शन करे। डॉ लीला चौहान का हृदय से धन्यवाद कि उन्होंने मुझे इस विवाह में निमंत्रण देकर मुझे इस अनमोल जोझोडा विवाह प्रथा को जानने समझने व लिखने की जिजीविषा देकर जिज्ञासा प्रदान की।

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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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