अजीत द्विवेदी
आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल हर मुश्किल को मौका बनाने में माहिर नेता हैं। लेकिन शराब नीति का घोटाला उनके गले की हड्डी बन रहा है। इस मामले में उनके नेता एक एक करके जेल जा रहे हैं और पूरी पार्टी के ऊपर खतरा मंडरा रहा है। इस खतरे का दायरा इसलिए भी बड़ा हो गया है क्योंकि केजरीवाल के पास जनाधार वाले या राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले नेता नहीं बचे हैं। उन्होंने एक डिजाइन के तहत पार्टी के तमाम संस्थापक नेताओं को या ऐसे नेताओं को, जिनका कोई स्वतंत्र वजूद था उनको बाहर कर दिया। प्रशांत भूषण से लेकर योगेंद्र यादव, कुमार विश्वास, आनंद कुमार आदि की मिसाल दी जा सकती है। उसके बाद उनके पास एमएलए तो बहुत हो गए और राज्यसभा के सांसद भी 10 हो गए लेकिन नेता गिनती के बचे।
मनीष सिसोदिया और संजय सिंह के अलावा ले-देकर गोपाल राय और अब राज्यसभा में जाने के बाद राघव चड्ढा ही ऐसे नेता हैं, जो राजनीति के मैदान में दिखाई देते हैं। केंद्रीय जांच एजेंसियों ने मनीष सिसोदिया और संजय सिंह को गिरफ्तार कर लिया है। ये दोनों आम आदमी पार्टी का सबसे मुखर और लोकप्रिय चेहरा थे। सिसोदिया को जेल में आठ-नौ महीने हो गए। निचली अदालत और हाई कोर्ट ने उनकी जमानत नामंजूर कर दी है। लंबा समय बीत जाने और पत्नी की गंभीर बीमारी की दलीलों के बावजूद उनको जमानत नहीं मिली है। अब उनकी जमानत पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हो रही लेकिन वहां दूसरी मुश्किल खड़ी होती दिख रही है। सर्वोच्च अदालत ने उलटे एजेंसियों से यह पूछा है कि जब घोटाले का पैसा पार्टी के खाते में गया है तो पार्टी को आरोपी क्यों नहीं बनाया गया? ध्यान रहे एजेंसियों ने कहा है कि शराब घोटाले का पैसा गोवा के विधानसभा चुनाव में खर्च किया गया। सोचें, अगर इस वजह से पूरी आम आदमी पार्टी ही आरोपी हो जाए तो पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल कितने समय तक बच पाएंगे?
बहरहाल, आम आदमी पार्टी के संस्थापक नेताओं को निकालने के बाद भी केजरीवाल के पास मौका था कि वे मजबूत जनाधार वाले और राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले लोगों को राजनीति में आगे करते। पार्टी में पद देते, सांसद या विधायक बनाते लेकिन उन्होंने अपनी असुरक्षा में यह काम नहीं किया। उन्होंने बिना आधार वाले निराकार चेहरों को आगे किया। मिसाल के तौर पर दिल्ली से तीन राज्यसभा सदस्य बनाने का उनको मौका मिला तो उन्होंने एक सीट संजय सिंह को दी लेकिन दो सीटों पर सुशील गुप्ता और एनडी गुप्ता को उच्च सदन में भेजा, जिनका कोई राजनीतिक वजूद नहीं है। इसी तरह पंजाब में सात राज्यसभा सांसद बनाने का मौका मिला तो उन्होंने वहां भी क्रिकेटर हरभजन सिंह के अलावा तीन कारोबारियों- अशोक मित्तल, संजीव अरोड़ा और विक्रमजीत सिंह साहनी, एक चुनाव प्रबंधक संदीप पाठक और एक धार्मिक गुरू संत बलबीर सिंह को उच्च सदन में भेजा। वहां से ले-देकर एक राघव चड्ढा हैं, जो राजनीति करते दिखते हैं।
सो, अपने असुरक्षा भाव में केजरीवाल ने जनाधार वाले और राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं को या तो किनारे कर दिया या पार्टी से निकाल दिया। उन्होंने पिछले कुछ दिनों से अपनी महत्वाकांक्षाओं को ताले में बंद करके विपक्षी पार्टियों के साथ संबंध सुधारे हैं। वे विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ की तीनों बैठकों में बड़े लाव-लश्कर के साथ शामिल हुए। लेकिन मुश्किल यह है कि विपक्षी पार्टियां खुद ही केंद्रीय एजेंसियों की जांच में फंसी हैं। ज्यादातर पार्टियों के खिलाफ वैसे ही कार्रवाई चल रही है, जैसे आम आदमी पार्टी के खिलाफ चल रही है। तृणमूल कांग्रेस से लेकर, झारखंड मुक्ति मोर्चा और राष्ट्रीय जनता दल से लेकर जनता दल यू तक तमाम क्षेत्रीय पार्टियां मुश्किल में हैं। कांग्रेस के भी कई नेताओं पर तलवार लटक रही है। इस मामले में एक मुश्किल यह भी है कि विपक्ष का शायद ही कोई नेता होगा, जिसको केजरीवाल ने अपनी शुरुआती राजनीति के दिनों में भ्रष्ट नहीं ठहराया था। सो, सबके मन में उसकी भी एक गांठ निश्चित रूप से होगी।
अब मुश्किल यह है कि अपनी पार्टी में केजरीवाल इकलौते नेता हैं और उन पर भी शिकंजा कस रहा है। अगर शराब नीति में हुए कथित घोटाले का पैसा पार्टी ने चुनाव में खर्च किया है और अदालत की टिप्पणी के बाद एजेंसियां पार्टी को भी आरोपी बनाती हैं तो सीधे केजरीवाल पर गाज गिरेगी। भारतीय जनता पार्टी ने कहना शुरू कर दिया है कि केजरीवाल के लिए भी हथकड़ी आने वाली है। ध्यान रहे केजरीवाल भाजपा के लिए बाकी किसी भी प्रादेशिक क्षत्रप से ज्यादा बड़ा खतरा हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह को पता है कि केजरीवाल इकलौते नेता हैं, जो किसी भी मामले में भाजपा से बड़ा इवेंट और नैरेटिव क्रिएट कर सकते हैं। वे कितना भी बड़ा झूठ बोल सकते हैं और कोई भी वादा कर सकते हैं। उनके ड्रामे बाकी पार्टियों से अलग होते हैं और जनता में उनकी अपील होती है। ऊपर से अब वे विपक्षी गठबंधन में शामिल हो गए हैं और कम से कम दो राज्यों पंजाब और दिल्ली में कांग्रेस के साथ गठबंधन की बात कर रहे हैं। तभी उनके खिलाफ कार्रवाई की संभावना दिख रही है।
तभी सवाल है कि क्या अपनी जान बचाने के लिए वे भाजपा और केंद्र सरकार के साथ कोई डील कर सकते हैं? इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है। बसपा, बीआरएस सहित कई पार्टियों के लिए ऐसा कहा जा रहा है कि केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई से बचने के लिए उन्होंने अंदरखाने कोई समझौता कर लिया है। केजरीवाल के सामने भी दो रास्ते दिख रहे हैं। पहला रास्ता तो सीधे भिडऩे का है। वे आम आदमी पार्टी के कट्टर ईमानदार और कट्टर देशभक्त पार्टी होने का एजेंडा लेकर सडक़ पर उतर सकते हैं। उन्होंने प्रेस कांफ्रेंस करके कहा है कि केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार अब तक की सबसे भ्रष्ट सरकार है। यह टकराव का रास्ता है, जिसमें जोखिम बहुत है। सो, देखना होगा कि केजरीवाल इस पर कितनी देर और कितनी दूर तक टिके रहते हैं। यहां यह ध्यान रखना होगा कि उनके पीछे कोई बड़ी ताकत नहीं है। दूसरी पार्टियां उनकी लड़ाई लड़ेंगी इसमें संदेह है। उनके सामने दूसरा रास्ता चुपचाप समझौता कर लेने का है। अगर वे टकराव बढ़ा कर विपक्षी गठबंधन से बाहर हो जाते हैं और अकेले लोकसभा चुनाव लडऩे का ऐलान कर देते हैं तो हो सकता है कि अगले साल के लोकसभा चुनाव तक कुछ राहत मिले।