Friday, July 26, 2024
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पंवाली कांठा….। जहाँ भगवान कृष्ण व उनके भाई ब्रह्म कौँळ ने मोती माला व पत्थरमाला बहनों को जीतकर किया था विवाह।

पंवाली कांठा….। जहाँ भगवान श्री कृष्ण व उनके भाई ब्रह्म कौँळ ने मोती माला व पत्थरमाला बहनों को जीतकर किया था विवाह।

(मनोज इष्टवाल)

हम सब जानते हैं कि भगवान श्री कृष्ण को रूप का रसिया व फूलों का हौसिया कहा जाता है। यह भी कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण की 16,100 रानियां थी। लेकिन कोई यह नहीं जानता कि ये 16,100 रानियां श्रीकृष्ण ने अंगीकार की जरूर थी लेकिन उनसे कभी शारीरिक संबंध स्थापित नहीं किये थे। उनकी मात्र आठ ब्याहता रानियां ही थी।अब प्रश्न ये उठता है कि फिर कृष्ण की ब्याहता कौन थी? सब कहते हैं रुकमणि…! क्या हम जानते हैं कि देवभूमि उत्तराखंड के टिहरी उत्तरकाशी जनपद के शीर्ष में बसे हिंवाली कांठा की राजकुमारी मोतीमाला के रूप यौवन की चर्चा पर श्रीकृष्ण इतने मंत्र मुग्ध हो गये थे उन्होंने अपने भाई ब्रह्मी कौँळ को पंवाली कांठा जाने का आदेश जाकर दिया व उसे जीतकर लाने का हुक्म भी दिया।

जाने कितने ट्रैकर्स आये दिन पंवाली कांठा के उन खूबसूरत बुग्यालों की गुदगुदी घास व बिल्कुल सामने खड़े उतुंग हिमालय के दर्शन कर प्रफुल्लित हो उठते हैं। जाने कितने थक हार कर यहाँ तक पहुंचे साहसिक पर्यटन के शौक़ीन लोग अपनी थकान के बीच यहाँ की जटामासी, गूगल, व बेसकीमती हिमालयी औषधि पादप व सैकड़ों की तादात में खिले बहुरंगी फूलों की महकती खुशबु में भाव-विभोर हो जाया करते हैं लेकिन यह आश्चर्य जनक है कि आजतक किसी ने भी हिंवाली कांठा के उन पहलुओं को छूने की जहमत नहीं उठाई जो त्रेता युगीन दक्षिण द्वारिका के रज्जा भगवान श्रीकृष्ण व उनके छोटे भाई ब्रह्मी कौँळ (ब्रह्म कुंवर) के बारे में बर्णित है। दरअसल हमें आदत ही नहीं है कि हम जिस सफर पर निकल रहे हैं, उसकी महत्तता को जाने की जिज्ञासा पैदा कर उस पर शोध कर सकें। जैसे कि मैंने नंदाराज यात्रा के दौरान जौंळ मंगरी ढूंढ कर जब उसका पटाक्षेप किया तो कई मित्रों नें प्रश्न किया – ताज्जुब है.. हमने तो दो से तीन बार यात्रा कर ली लेकिन आज तक देखी नहीं! मैं तब मुस्कराया व बोला था यात्राएं मनोरंजन के लिए करेंगे तो यही होगा क्योंकि हम उस भू भाग के निवासियों से चर्चा नहीं करेंगे तो कैसे यह सब अपने में समेट पाएंगे। आइये आज आपको लिए चलता हूँ हिंवच कांठा..! जहाँ ब्रह्म कौँळ की रघुवंशी घोड़ी हवा में उठती हुई जा पहुंची थी व जहाँ उन्होंने चांदी की चौपड व सोने का पासा खेलकर विश्व की अद्वितीय सुंदरी मोती माला को हराकर उसे श्री कृष्ण भगवान की इच्छा से जीतकर उन्हें सौंप दिया था।

यह सब जानने के लिए मुझे श्रीकृष्ण की लीलाओं में बर्णित उस जागर विधा को जानने की उत्सुकता हुई जिसे उत्तराखंड की देवभूमि में घड़ियाला नाम से जाना जाता है, या फिर यह कहा जा सकता है कि नौ बैणी आँछरियों की नृत्य विधा की यह जागर गायी जाती है। गढ़वाल के कतिपय क्षेत्र में इसे रमोल गाथा भी कहा जाता है।

ब्रह्मी कौँळ की जागर गाथा:-

जागर स्वरूप में यह सम्पूर्ण गाथा पूर्ण रूप से गढ़वाली बोली के शब्दों में ढली व रचि बसी है जिसकी शुरुआत कुछ इस तरह से होती है –

खेला पासो.. बाळा खेला पासो-2

तू होलि कृष्णा छलबली नारैणा,

खेला पासो बाळा खेला पासो-2

अलबली कृष्णा तो छलबलि नारैणा।

खेला पासो बाला खेला पासो-2

पौँची गे नारद…. तेरी द्वारिका सभा मा।

खेला पासो बाला खेला पासो -2

दखिणी द्वारिका मां ग तिन ध्यान धैर्यली,

खेला पासो बाला खेला पासो -2 

रांडा की मोतीमाला औळण दे जांदी।

खेला पासो बाला खेला पासो -2 

चांदी की चौपड तैंकी सूना का छन पासा,

खेला पासो बाला खेला पासो -2 

ढळक़दो ह्यूंडलो तैंको पंवाली कांठा मा।

खेला पासो बाला खेला पासो -2 

देख ले कृष्ण त्वे थैंs धावडी लगाँदा,

खेला पासो बाला खेला पासो -2 

छै त आदि यख रे जसोदा नंदना।…

अब अगर मैं इस जागर को सम्पूर्ण गढ़वाली जागर शैली में ही प्रस्तुत करूँगा तो न उन यदुवंशियों की समझ आयेगा जो दक्षिण द्वारिका में भगवान कृष्ण की थाती के नाती हैं और न उन सबकी जो पंवाली कांठा के सैर सपाटे पर जाते हैं।

जागर गाथा कुछ इस तरह है कि “एक दिन भगवान श्री कृष्ण द्वारिका में बैठकर पासा खेल रहे थे। बातों ही बातों में नारद बोले -हिंवचलकांठा के जौलाताल स्थान में मोतीमाला नाम की एक राजकुमारी रहती है उसके पास सोने के पासे और चांदी की चौकी है। वह परियों की तरह सुंदर और दीपक की ज्योति के समान शुभ्र है।”

कृष्ण ने अपने छोटे भाई ब्रह्मकुंवर से कहा कि ‘तुम्हें हिंवचकांठा जाना होगा। हिंवच कांठा अर्थात हिंवाली कांठा जिसे वर्तमान में पंवाली कांठा नाम से जाना जाता है …। वहां से मेरे लिए मोतीमाला तथा उसके सोने के पासे व चांदी की चौकी को जीतकर लाना होगा।’ रघुवंशी घोड़ी सजाकर लाड़ला ब्रह्मकुंवर (ब्राह्मी कौँळ) हिंवलचकांठा की ओर चल दिया। ब्रह्मकुंवर अपनी आसमान में उड़ने वाली घोड़ी से हिंवचलकांठा पहुंचा और वहां जौंला-ताल (एक दूसरे से जुड़े उच्च हिमालयी क्षेत्र में अवस्थित ताल) में स्नान करने लगा। तभी वहां मोतीमाला की दासी शारदा आ पहुंची। उसकी दृष्टि लाड़ले ब्रह्मकुंवर पर पड़ी। वह दौड़ती हुए मोतीमाला के पास आई और उसे ब्रह्मकुंवर के आने की सूचना दी। मोतीमाला ने शारदा से ब्रह्मकुंवर कोराजमहल में बुला लाने का आदेश दिया। शारदा ब्रह्मकुंवर के पास आई और उससे उसका परिचय पूछने लगी।

 

(पंवाली कांठा के पास माँ जगदेई मंदिर)

ब्रह्मकुंवर ने उत्तर दिया, ‘मैं यदुवंशी श्रीकृष्ण का भाई व माता विमला का पुत्र हूँ । मैं मोतीमाला भाभी से मिलने आया हूं।’ तब शारदा ने बोली – राजकुंवारी मोतीमाला तो कुंवारी है, वह भला तुम्हारी भाभी कैसे हुई ? तीन सौ साठ राजा आए, कुछ हार गए और कुछ उसके गुलाम बन गए। वह सोच में पड़ गई कि यह छोकरा बैरियों के देश में क्यों आया है? शारदा को उस फूल जैसे नाजुक युवक पर दया आ गई। वह ब्रह्मकुंवर से बोली, रानी मोतीमाला पासे की शौकीन है। मेरी बात मानना, वह तुम्हें पासा खेलने के लिए जिस चौकी पर बिठाएगी तुम उस पर मत बैठना। क्योंकि अगर तुम उस पर बैठे तो सारे दांव हार जाओगे व वाह तुम्हें भी दास बनाकर हिमालय राज नागाधिराज की काल कोठरी में बंद कर प्रताडनाएं देंगी। ब्राह्मी कौँळ सिर्फ़ मुस्करा भर दिया।

ब्राह्मी कौँळ राजकुमारी मोती माला के महल में पहुंचा। आदर पूर्वक भोजन करवाने के पश्चात मोतीमाला ने कहा- आओ! थोड़ी देर पासा खेलते हैं। फिर उसने चांदी की चौपड़ और सोने के पासे निकाले। चौकी पर बैठते ही ब्रह्मकुंवर ने पासा फेंका। पहले हो दांव में वह अपनी रंघुवंशी घोड़ी हार गया। फिर क्रमश: कानों के कुंडल, हाथों के मणिबंध एवं अन्य सभी आभूषण भी हार गया। उसके बाद वह सोचने लगा कि मैं किस बुरी घड़ी में हिंवचलकांठा आया। अब तो भगवान श्रीकृष्ण ही मेरी रक्षा कर सकते हैं।

भगवान श्रीकृष्ण को याद करते ही ब्रह्मकुंवर को शारदा की कही हुई बात याद आ गई। वह मोतीमाला से बोला- भाभी मोतीमाला, मुझे प्यास लगी है। तुम मेरे लिए जलधारा से पानी लेकर आओ। मैं दासी को लाया हुआ पानी नहीं पीता। मोती माला बांज के वृक्ष की जड़ों का ठंडा पानी लेने चली गई। इतने में ब्रह्मकुंवर ने अपनी चौकी बदलकर उसकी जगह अपनी चौकी रख दी तथा मोतीमाला की चौकी पर बैठ गया। जब पानी लेकर मोतीमाला पहुंची तो पुनः पासा खेलने पर पहले ही दांव में वह अपनी रघुकुंठी (रघुवंशी) घोड़ी जीत गया। उसने मोतीमाला के गले की हंसुली, सोने के पासे व चांदी की चौकी भी जीत ली। इतना ही नहीं, उसने मोतीमाला से सभी वस्त्राभूषण भी जीत लिए। किंतु उसकी लाज बचाने के लिए घाघरा ही उसके शरीर पर रहने दिया। उसने रघुकुंठी घोड़ी तैयार की ओर बोला-  हे भाभी मोतीमाला, तुम हार गई हो। अब तुम्हें मेरे साथ दक्षिणी द्वारिका चलना पड़ेगा जहाँ भगवान श्रीकृष्ण आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।

ब्राह्मी कौँळ की बात सुनकर मोतीमाला कहने लगी- ‘हे ब्रह्मकुंवर, यदि तू अपनी मां बिमला रौतेली और यदुवंशी का पुत्र होगा तो चंद्रागिरी जाकर मेरी छोटी बहन पत्थरमाला से तुझे विवाह करना होगा। मैं तभी द्वारिका जाऊंगी।’ ब्रह्मकुंवर तुरंत चंन्द्रागिरी पहुंचा। वहां के राजा भूपू नाग से युद्ध होने पर भूपू ने उसे नागफांस में बांध दिया। उधर कृष्ण को इसका आभास हो गया। कृष्ण ने अपना संदेश भंवरे के माध्यम से अपने मित्र सिदुआ के लिए रमोलीगढ़ भेजा। वहां से कृष्ण का मित्र सिदुवा चंद्रागिरीगढ़ पहुंचा तथा उसने एक ही चोट में नाग को मार डाला और कांऊर जड़ी से ब्रह्मकुंवर को जीवित कर दिया।

रानी पत्थरमाला सज-संवरकर तैयार हो गई। मोतीमाला ने भी अपना वचन पूरा किया। मोतीमाला और पत्थरमाला दोनों बहनें दक्षिण द्वारिका श्रीकृष्ण के महल में आ गईं। मोतीमाला का विवाह श्री कृष्ण से हुआ और ब्रह्मकुंवर से पत्थरमाला ब्याही गई। दक्षिण द्वारिका में मंगल गीतों  से गुंजायमान होने लगी।

अंत में आइये जानते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण की 16,100 रानियां कौन थी?

जब श्री कृष्ण ने नरकासुर का वध किया तो उन्होंने नरकासुर की इन 16100 यौन दासियों को मुक्त कर दिया। मुक्त कराने के बाद सभी कन्याओं ने श्री कृष्ण से अनुरोध किया कि वे उनसे विवाह करें क्योंकि समाज उन्हें कभी स्वीकार नहीं करेगा।

इसलिए उन्होंने भगवान कृष्ण से उन्हें स्वीकार करने का अनुरोध किया क्योंकि कोई भी उनसे विवाह नहीं करेगा और यदि वह उन्हें स्वीकार नहीं करेंगे, तो वे आत्महत्या कर लेंगी। धर्म में फँसे होने के कारण श्रीकृष्ण ने सभी स्त्रियों को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया ताकि वे सम्मानजनक जीवन जी सकें और कोई उनका उपहास करने का साहस न कर सके। उनका सम्मान लौटाने और उन्हें रानी का दर्जा देने के लिए श्री कृष्ण ने उनसे विवाह किया। इस प्रकार उसकी 16,108 पत्नियाँ हो गईं।

महाभारत तथा अन्य शास्त्रों के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण 8 पटरानियां एवं 16,100 रानियां थीं। विद्वानों के अनुसार कृष्ण की प्रमुख रानियां तो आठ ही थीं, शेष 16,100 रानियां प्रतीकात्मक थीं। इन 16,100 रानियां को वेदों की ऋचाएं माना गया है। ऐसा माना जाता है चारों वेदों में कुल एक लाख श्लोक हैं। इनमें से 80 हजार श्लोक यज्ञ के हैं, चार हजार श्लोक पराशक्तियों के हैं। शेष 16 हजार श्लोक ही गृहस्थों या आम लोगों के उपयोग के अर्थात भक्ति के हैं। जनसामान्य के लिए उपयोगी इन ऋचाओं को ही भगवान श्रीकृष्ण की रानियां कहा गया है।

ज्ञात हो कि उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल की समस्त हिमालयी शिखरों पर प्रथम सदी पूर्व नागवंशियों का शासन था, इसीलिए हिमालय को नागाधिराज हिमालय कहा जाता है। रमोल गाथा व नागर्जा की जागर में भगवान श्रीकृष्ण व गंगु रमोला, सिदूआ -विदुआ व कुसुम्बा कोलिण का बर्णन पढ़ने को मिलता है जो ऊपली रमोली व उत्तरकाशी जिले व टिहरी जिले की सरहदों के साथ साथ रूद्रप्रयाग जनपद से अपनी सीमाएं बांटता है। मेरा मानना है कि हम जब भी पंवाडी कांठा के ट्रैकिंग के लिए निकले तो भगवान श्रीकृष्ण नौ बैणी आँछरी, जगदे माँ व नाग देव का स्मरण कर इस क्षेत्र में ट्रैकिंग करें आपके सभी मनोरथ पूर्ण होंगे।

10826 फिट यानि लगभग 3900 मीटर की ऊँचाई पर अवस्थित पंवाली कांठा पहुँचने के लिए आप उत्तराखंड की राजधानी देहरादून हरिद्वार, ऋषिकेश तीनों स्थानों से यात्रा कर सकते हैँ। यहाँ से आप नरेंद्र नगर – चम्बा – नई टिहरी – घनसाली- बुढ़ाकेदार – घुत्तू  पहुँचते हैँ। घुत्तू से लगभग 16 से 19 किमी की पैदल यात्रा कर आप पंवाली कांठा पहुँच सकते हैँ।  यहीं से आप कनखुलिया खाल होते हुए मग्गू व वहां से त्रिजूगीनारायण पहुँच सकते हैँ। मुझे लगता है कि उत्तराखंड सरकार को पंवाली कांठा भगवान श्रीकृष्ण की ससुराल के रूप में विकसित कर यहाँ एक ऐसा श्रीकृष्ण मोती माला मंदिर बनाना चाहिए जिसमें चौपड़ व पासे चढ़ाये जाएँ ताकि यह सिर्फ़ ट्रैकर्स की पसंद ही न रहे अपितु यहाँ धार्मिक पर्यटन की सम्भावनायें भी बढ़ें व इस क्षेत्र को पर्यटन के रूप में रोजी रोटी का लाभ मिल सके।

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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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