अपनों से दूर होती जौनसार बावर क्षेत्र की लोक संस्कृति की धरोहर “गायण नृत्य कला”
(मनोज इष्टवाल)
बस अब चुनिंदे कहूँ या बिरले.. ही युवा हैं इस क्षेत्र में जो अपनी लोक सांस्कृतिक धरोहर को अपने कंधों पर लादे युवावस्था में कदम बढ़ा रहे नौनिहालों को इस नृत्य कला के माध्यम से जागृत कर चौकीदार की भूमिका में जागते रहो..! जागते रहो! का जागरण करते दिखाई दे रहे हैं। क्योंकि मैं महाभारत का ‘संजय’ बन दृष्टराष्ट्र को महाभारत के उस युद्ध की भांति उस जीवित संस्कृति की लोकगाथा सुनाने का आवाहन कर रहा हूँ जिसने विगत 25 बर्षों में तेजी से ह्रास होती जौनसारी लोक संस्कृति व लोक समाज की वानगी देखी है।
इस समाज से अब इसके आँगन उसी तरह विरक्त हो रहे हैं जिस तरह से गढ़वाल के पौड़ी जिले में 50 बर्ष पूर्व होने शुरू हो गए थे। लोक समाज के ह्रास की शुरुआत ही उसके सांस्कृतिक परिवेश से होती है। सच कहूँ तो इन 25 बर्षों में मैंने जौनसार बावर क्षेत्र के लोक समाज से विरक्त होते निम्न पहलुओं को बेहद करीब से देखा है :-
* रोज शांय पंचायती आँगन में उमड़ने वाली भीड़ के गीत नृत्य
* काम के बाद आराम करती वार्तालाप में सुख दुःख साझा करती खुमडी
* गाँव का मेहमान हम सबका मेहमान से दूरियाँ बनाता वर्तमान लोकसमाज
* लोकगीतों के गायन परम्परा में नये बाजों का इस्तेमाल व लोक से विरक्त होते गीत।
* मेलों /त्यौहारों में सीमित हो रहे क्षेत्र के लोक पकवान
बहरहाल ऐसे कई बिंदुओं पर अपने आगे के लेखों में लिखूंगा लेकिन “गायणा या गायण” नृत्य गीत कला का वह अछूता पहलु आज सोशल मीडिया प्लेटफार्म से तब हाथ लगा जब उत्तराखंड के सूचना एवं जन सम्पर्क विभाग के संयुक्त निदेशक व उत्तराखंड फ़िल्म विकास परिषद के पूर्व नोडल अफसर के एस चौहान व जौनसार बावर क्षेत्र के सामाजिक कार्यकर्त्ता एवं गढ़ बैराट समाचार पत्र के सम्पादक भारत सिंह चौहान को केएस चौहान जी के छोटे भाई के जोजोड़ा (शादी) गायण नृत्य करते देखा। आइये जानते हैं क्या होता है गायण नृत्य!
गायण नृत्य
यह नृत्य कला जौनसार बावर ही नहीं अपितु तमसा नदी पार हिमाचल, रुपिन सुपिन नदी क्षेत्र पर्वत, यमुना नदी पार रवाई व जौनपुर के क्षेत्रों में बहुत पौराणिक समय से प्रचलन में रही है। हिमाचल में इसे मरोज के दिन मुंजरा नृत्य भी बोलते हैं। देखा-देखी में जौनसार में भी कुछ क्षेत्र में इस नृत्य को लोगों ने मुंजरा के स्थान पर मुजरा बोलना प्रारम्भ किया तो कहीं इसे छुमका नृत्य कला कहा जाने लगा। जबकि इसका पौराणिक स्वरूप गायण नृत्य के रूप में ही जाना जाता रहा है।
गायण अर्थात गाओ और नृत्य करो। माघ मास में मरोज से प्रचलन में यह नृत्य पौराणिक काल से इसलिए प्रसिद्ध था क्योंकि तब उत्तराखंड में पर्यावरणीय संतुलन बेजोड़ था व जौनसार बावर क्षेत्र की पहाडियां बर्फ से लबालब ढक जाया करती थी। जहाँ सम्पूर्ण भारत बर्ष के अधिकत्तर क्षेत्र माघ में मांस मदिरा का सेवन वर्जित रखते हैं वहीं इस क्षेत्र में “मरोज उत्सव” के रूप में माँ काली को समर्पित बड़ी संख्या में बकरों की बलि का प्रचलन है व एक निहित तिथि पर काटे गए बकरे का मांस साल भर तक न सड़ता है न गलता है।
इन दिनों ग्रामीणो के पास कोई काम-काज नहीं होता इसलिए हर शाम दावतों का दौर होता था जो पूरे महीने भर चलती थी। एक के घर आज तो दूसरे के घर कल…। मनोरंजन के साधनों में गायन व नृत्य ही सबसे खूबसूरत पहलु होता था। महफिल जमी हो तो फनकार अपनी आवाज से, संगीतकार अपनी संगीत कौशलता से व नृत्यकार अपनी नृत्य विविधताओं से हर शाम गुलजार करते व देर रात्रि तक ऐसे कार्यक्रम चलते रहते। बस यहीं से शुरू हुआ “गायण नृत्य”..!
गढ़ बैराट के सम्पादक भारत सिंह चौहान व संयुक्त निदेशक सूचना एवं जनसंपर्क विभाग केएस चौहान की इस जोड़ी का यह नृत्य अपने आप में बेहद अद्भुत है। डांगरे (फरसा) को पूरे वेग में घुमाकर नृत्य करना, मुंह में रखकर नृत्य करना और तालियों एवं बोलों के साथ हाव-भाव प्रदर्शित करना ही इस नृत्य की बिशेषता है। लोक समाज के इन दो बिम्बों के साथ अब क्षेत्र के कई बुद्धिजीवियों ने जुड़कर अपनी लोक संस्कृति की विरासत को संवारने का कार्य विगत बर्षों से शुरू कर दिया है। शायद इन्हें भी भान हो गया है कि अगर समय रहते हमने यह सब संभाला संवारा नहीं तो बहुत जल्दी ही हम जनजाति की श्रेणी से बाहर हो जाएंगे व हमारा समाज उत्तराखंड के लोक समाज व लोक संस्कृति के ध्वजवाहक का श्रेय भी खो देगा।
गायण नृत्य कला को बेशक ‘भित्तरा के गीत’ के रूप में भी प्रचलन में लाया गया है क्योंकि यह नृत्य कला होती ही बैठकी के दौरान है। अब सम्पन्नता ने भले ही इसे टेंट और तम्बूओं के बीच ला दिया हो लेकिन इसकी विविधता का एक ही स्वरूप है कि यह न सिर्फ़ शादी विवाह बल्कि हर तीज त्यौहार के गायण नृत्य कला का अभिन्न अंग है। बुग्यालों व ऊँची थातों पर जुड़े मेलों में हारुल, झेंता, रासो, घूंडिया रासो के थके कदम भी जब विश्राम की स्थिति में होते हैं तब एकाएक ही आपको गोल घेरे के बीच गायण नृत्य कला इस क्षेत्र में दिखने को मिल जाएगी। शायद इसी विविधता ने इसको बहुतेरे नाम भी दे दिए।
भारत चौहान ने दूरभाष पर जानकारी देते हुए बताया कि फटेऊ गाँव जौनसार के इस जोजोड़ा में हिमाचल के कई लोक कलाकारों के साथ जौनसार क्षेत्र के लोक संस्कृतिकर्मी सीताराम चौहान सहित कई अन्य संस्कृतिकर्मी भी मौजूद थे। उन्होंने बताया कि यह देखना सुखद रहा कि महानगरों में जन्मे व बड़े हुए क्षेत्रीय युवा युवतियाँ इस नृत्य कला को बेहद चाव के साथ निहार रहे थे व उनकी जिज्ञासा भी इसमें प्रवीणता लेने की है। गढ़ बैराट के सम्पादक भारत चौहान आगे कहते हैं कि ऐसा नहीं है कि गायण नृत्य हम करना भूल गए हैं। यह तो जौनसारी लोक समाज की रग-रग में बसा है व कोई भी ग्रामीण इससे अछूता नहीं है लेकिन आपकी बात भी सही है कि हम तेजी से अपने लोक समाज के इन विविधता भरे रंगों को छोड़कर आगे लपकने की तैयारी कर रहे हैं। हमें डर है कि आने वाले 10-15 बर्षों बाद कहीं ऐसा न हो कि हमारा लोक हमें ही पीछे धकिया दे।
यकीनन भारत सिंह चौहान की यह पीड़ा जायज है। कोई भी लोक संस्कृति तब तक जिंदा है जब तक हम उसे अंगीकार किये हुए हैं, जिस दिन हम इसे छोड़ देते हैं उस दिन दुनिया की भीड़ में शामिल हमारा वजूद एक आदमी का ही रह जाता है। जिन देशों ने प्रगतिशीलता के साथ आगे बढ़कर अपना लोकसमाज व लोक संस्कृति छोड़ा उनका हश्र हम यूनान, मिश्र व रोम की तरह देख चुके हैं।