गोल्जू की अद्भुत जागरशैली का गायन होता है उदयपुर में…!
●अन्य कहीं भी जागर वृदावली रूप में नहीं गई जाती.
●गोल्जू चावल देखकर करते हैं आज भी आपके प्रश्नों का हल…!
कुछ तो जरुर है इस देवभूमि में वरना ऐसा अजब गजब न होता यहाँ…! उदयपुर गोल्जू मंदिर में जब मैं पहुंचा तो लगभग संध्या काल शुरू हो गया था देवअर्चना की तैयारी चल रही थी. मंदिर समिति के सदस्यों द्वारा यथासंभव मेहमाननवाजी भी की. मैं उनका शुक्रिया अदा करता हूँ.
अब आते हैं गोल्जू देवता के इस नगाड़े पर जिसे बजाने वाले ढोली के हाथ में जो लान्कुड थी वी किसी पेड़ की टहनी से निर्मित नहीं बल्कि जड़ाऊ के सींग या फिर हाथी दांत से निर्मित लग रही थी. इस नगाड़े पर ब्राह्मी भाषा में कुछ अंकित किया गया है जिससे यह आभास होता है कि यह नगाड़ा कत्युरी काल से पूर्व का है जो बाद में चंद वंशी राजाओं से होता हुआ वर्तमान तक पहुंचा है. यह कहा जा सकता है कि यह नगाड़ा लगभग 2000 बर्ष पुराना है.
गोल्जू देवता की जागर मैंने न सिर्फ उदयपुर में सुनी बल्कि इससे पहले घोड़ाखाल, चितई, दान्या, चम्पावत सहित कई अन्य लोककलाकारों से इसे सुन चुका हूँ. लेकिन जो जागर गोलज्यू की उदयपुर के इस ढोली समाज ने लगाई वह जागर कम वृदावाली ज्यादा लगी उन्होंने धौली धुमागढ़ नहीं बल्कि गोलज्यू की विजय यात्रा में डोटी नेपाल के राजा कृष्णा शाही व सुबनिया डूट्याल से हुए उनके युद्ध का वर्णन किया जो मेरे लिए अद्भुत था क्योंकि अब यह काम और विस्तृत और शोध के लिए व्यापकता का केंद्र बन गया है. मैं तो इससे पूर्व सिर्फ धनगढ़ी नेपाल व बैतडी नेपाल की ही ख़ाक छानकर आया था अब लगता है मुझे नेपाल के धादिंग, गोरखा, ओबरे, ललितपुर व डोटी जिलों का भ्रमण भी करना होगा. लेकिन कब ..? यह कहना संभव नहीं है.
मैंने यहाँ गोलज्यू के साथ हीत व नाचते हुए देखा. लेकिन देवात्माएँ खेलने से पहले उनका श्रृंगार होते पहली बार देखा, गोल्जू को चांदी का मुकुट पहनाया गया. फिर जिस तरह गोल्जू अवतारी चावल देखकर सबकी समस्याओं के बारे में बता रहे थे. लगा जैसे सचमुच गोलज्यू का नुआ दरबार लगा हो.
मैंने स्वयम भी अपनी समस्याओं के निदान के लिए एक पत्रकार के तौर पर परीक्षा लेनी चाहि उलटे मेरे पूरे बदन में ही कंपकंपी होने लगी आँखे बंद होने लगी. तब लगा कि कुछ तो चमत्कार जरुर है. वरना इतनी ठिठुरन भरी रात को इतने महिला पुरुष यहाँ जागरण नहीं करते रहते.