Saturday, July 27, 2024
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अपने आभूषण-लोक पहनावे से अपनी जड़ों से जुडती जौनसार की जनजातीय महिलायें..!

कुछ समय लगा कि अब सब पीछे छूट जाएगा ..लेकिन फिर से अपने लोक बसासत पर लौट रहा है यह समाज 

कुछ समय लगा कि अब सब पीछे छूट जाएगा ..लेकिन फिर से अपने लोक बसासत पर लौट रहा है यह समाज 

(मनोज इष्टवाल)

“यारा चंदेरु ढाया आइगो नेडा यार चंदेरू…यारा चंदेरु अस्के-पिनवे भाणा यारा चंदेरू” कुछ ऐसे ही शब्द जौनसार बावर के गीतकार व एक काल के सुप्रसिद्ध गायक फकीरा सिंह चौहान के थे. वह दौर नए नये राज्य निर्माण का था व जौनसार क्षेत्र में ऑडियो निर्माण के बाद उसको विजुअलाइजेशन करने का दौर शुरू हुआ था. जौनसार बावर के मंचों के माध्यम से एक संस्था ने मुझे आमंत्रित किया कि मैं उनके गीतों का वीडियो एल्बम बनाकर बाजार तक लाऊं. इस सम्बन्ध में सूचना विभाग में कार्यरत (वर्तमान में सयुंक्त निदेशक सूचना) केएस चौहान व चतर सिंह चौहान उर्फ़ गुरु जी से मेरी चर्चा तब हुई जब मैं 2003 में गढ़वाली एल्बम “झुमकी” की शूटिंग करने डाकपत्थर बंगले में ठहरा हुआ था. भले ही “झुमकी” (गीतकार गणेश वीरान व गायिका अनुराधा निराला) का वह वीडियो बाजार में नहीं आ पाया लेकिन उसी बर्ष मिस उत्तराखंड बनी मधुरिमा तुली के लिए यह शूट वरदान साबित हुआ और वह मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में आज सफल अभिनेत्री के रूप में स्थापित है.

अब इंट्रो में यह चर्चा क्यों हुई उसका इस लेख से क्या वास्ता …? इत्यादि इत्यादि कई प्रश्न जरुर आपके मनोमस्तिष्क पर मंडरा रहे होंगे. फिर यह भी कि संस्कृति से जुड़े इन लेखों के बीच मैं अपनी चर्चा क्यों ले आता हूँ? स्वाभाविक है यह सब कहना सुनना व जानना ..! इसका सीधा सा उत्तर है कि जौनसार बावर की लोकसंस्कृति में वीडियो सीडी का निर्माण की यहीं से शुरुआत जो हुई थी. पहला वीडियो एल्यबम जो विधिवत बाजार में उतरा उसका नाम था “तेरी जवानी फुलूटे जोसि” … यह वह काल था जब मुझे लगा झुमकी के स्थान पर तुंगल व गुलोबंद के स्थान पर कोंठी भी कोई जेवर है. यह वह दौर था जब मैंने स्वर्ण हार के स्थान पर शूच देखा व मुर्खलियों के स्थान पर उतराई हाथ की कलाई में धागुले के स्थान पर गिलास लोक पहनावे में धोती, साडी, ब्लाउज के स्थान पर  घाघरा, कुर्ती, ढांटूमेकड़ी …. ने अधिग्रहण कर लिया.

यही तो लोकसंस्कृति के रंग हुए . ऐसा कैसे हो सकता है है कि जनजातीय क्षेत्र हो व उसकी विरासत में उसकी पहचान न छुपी हो. तुंगल व शूच दो ऐसे जेवर ह्म्मेशा मेरे लिए पहेली बने रहे क्योंकि ये पान के पत्ते के आकार के हैं और पान के पत्ते किसी भी हिसाब से जौनसार बावर क्षेत्र का हिस्सा नहीं रहे. इस से यह तो साबित होता है कि इस लोकसंस्कृति के लोग पुरातनकाल में विश्व के किसी अन्य हिस्से से आकर यहाँ बसे हैं और धीरे धीरे इन्होने सनातन हिन्दू परम्पराओं में रच बस कर अपनी लोक संस्कृति के उस अभिन्न हिस्से को अपने लोक पहनावे में और आभूषणों में बचाकर रखा जो इनके पुरखों की इज्जत अस्मत का हिस्सा रही है. यहाँ के कोई लोग कहते हैं कि हम पांडवों के वंशज हैं तो कई बुद्धिजीवी समाज के लोग कहे देते हैं कि हम पांडवों के आश्रयदाता हैं. लेकिन यहाँ की परम्पराओं में पांडवों के रीति-रिवाजों की झलक कहीं न कहीं यह दर्शाती है कि इस समाज द्वारा पांडव प्रथाएं अपनाई गयी हैं.

जौनसार बावर के आभूषण 

तमसा व यमुना के बीच बसा 400 गाँवों का यह समूह जौनसारी जनजाति के रूप में 1967 में तब जनजातीय कहलाया जब सम्पूर्ण उत्तराखंड की पांच जातियों की पहचान यहाँ आदिवासी जनजाति के रूप में हुई जिनमें जौनसारी, भोटिया, राजी, थारुबुक्सा प्रमुख हैं. इनमें भी दो जातियां थारू व राजी  को आदिम जनजाति माना जाता है. इस जनजाति में महिला प्रदान समाज को प्राथमिकता दी गयी है व महिलायें ही यहाँ व्यवहारिक भाषा में घर परिवार की सम्पूर्ण जिम्मेवारियों के निर्वहन में पुरुष समाज के साथ खड़ी मिलती हैं. स्वाभाविक है कि जहाँ नारी समाज पूजनीय  हो तो वह समाज देवतुल्य माना ही जाएगा.

यहाँ की बिरासत के अंग में यहाँ के लोक समाज की पहचान व परिकल्पना ही नारी के रूप सौन्दर्य व लोक पहनावे व आभूषण से होती है. एक दौर था जब यहाँ नारी के रूप विन्हास में उसकी तोतई नाक को ज्यादा प्राथमिकता से देखा जाता  था. ढांटू इनके लोक पहनावे का वह अभिन्न वस्त्र है जो बड़े बड़े विवाद सुलझा लेता है. यहाँ के आभूषणों में अब मांगटीका, पाजेब, मंगलसूत्र, स्वर्ण चेन, हाथ चूड़ियाँ इत्यादि भी शामिल हो गयी हैं जबकि ब्रिटिश काल में नौ तोला नाथ यहाँ के सम्भ्रान्त परिवारों ने अपनानी शुरू कर दी उस से पूर्व नाथ प्रचलन में रही हो ऐसा कहीं इतिहास में दर्ज नहीं हैं क्योंकि यहाँ की नाथ (नथ) का डिजाईन भी उत्तराखंड की आम नथों से मिलता जुलता है.

जौनसार के आभूषणों उतराई कानों के उपरी हिस्सों में पहनी जाती हैं जो चूड़ियों की तरह गोलकार में घूमी होती हैं व उनका बोझ संभालती शीशफूल की भाँति इसी उतराई का बड़ा हिस्सा सिर की शोभा बढ़ाता बालों में गुंथा होता है जिसे कई अनजान लोग मांग टीका कहे देते हैं. तुंगल कानों में पहने जाने वाली झुमकी, बाली, टॉप्स इत्यादि के स्थान में पान के पत्ते के आकार में झूलती हुई कंधों के हिस्सों को छूते हुए आकर्षक जेवर होते हैं. फिर आती है तिमौणीया…! यह आभूषण नेपाली व कुमाउनी तिमौणी से कुछ हद तक मिलता है लेकिन यह उनकी भाँती लम्बा लटका नहीं होता बल्कि यह गले के घेरे में सबसे करीबी समझा जाने वाला जेवर है. इसमें तीन दाने स्वर्ण व कांच के टुकड़े लगे होते हैं और पहले यही शादीशुदा महिलाओं का मंगलसूत्र होता था. अविवाहिताएं व विवाहिताएं भी कांच पहना करती थी, जो गुलोबंद की भाँति गले की शोभा बढाते थे लेकिन आश्चर्य कि तिमौणीयाकाँच बहुत तेजी से इस जनजाति के आभूषणों से दूर होते जा रहे हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह हारखगाल्टे या खगालिये अब यदा कदा ही महिलाओं के गले में दिखाई देते हैं.

इस समाज के जो चांदी या स्वर्ण हार होते थे वह आम तौर पर चंद्राहार की लम्बाई लिए हुए होते थे लेकिन उन पर चाँद का आकार कम दिखने को मिलता था. खगाल्टे या खगालिये लगभग गढवाली हँसुली की भांति गले में गोलाकार पहने जाते हैं लेकिन यह देखने भी अब दुर्लभ हो गए हैं. बुलाक यहाँ के लोक पहनावे में का हिस्सा है जो नाक के बीच के हिस्से को भेदकर पहनी जाती है. पहले कानों में दोसरु भी पहना जाता था. यह लगभग कुमाउनी आभूषण गोखुरू की तरह का होता था.

शूच यहाँ की लोकपरम्पराओं में चांदी का वह आभूषण है जो गले में झूलता हुआ तीन चार या पांच लड़ी हार के मानिंद एक चौड़े से पान पत्ते को संभालता है. जिसकी खूबसूरत के लिए उस पर लाख या अन्य धातु रंग लगे होते हैं. इसका अंतिम हिस्सा झूलता हुआ नाभी तक पहुँचता है. तुंगलशूच ही ऐसे आभूषण हैं जो जौनसारी समाज की पैरवी करते हुए दिखाई देते हैं.

जौनसारी महिलाओं के हाथों में पहले चूड़ियों के स्थान पर गिलास नामक जेवर होता था जो मूलतः चांदी से निर्मित होता था व इसके आकृति गिलास की तरह ही होती थी. लेकिन यह भी अब प्रचलन से बाहर हो गया है. यह अचम्भित करने वाली बात है कि जौनसारी महिलाओं के पैरों में आभूषण के रूप में सिर्फ पोलिया हुआ करते थे. पोलिया यानी अँगुलियों में पहने जाने वाले बिच्छु. न इस समाज के पहनावे का हिस्सा पाजेब होती थी और न ही झंवरियां…!

और तो और दो तीन बर्ष पूर्व तक भौतिकता ने इस जनजाति में भी अपनी पैठ मजबूत कर दी थी व लगभग 20 बर्ष पूर्व तक यहाँ के युवा समाज ने अपनी लोकसंस्कृति के विभिन्न रंगों का तेजी से परित्याग करना शुरू कर दिया था. शहरी चकाचौन्ध में रचने बसने के बाद यहाँ के पढ़े लिखे युवा – युवतियों का अपने लोक पहनावे से मोहभंग होता सा प्रतीत होने लगा. लेकिन हाल के दो तीन बर्षों में इसी समाज के पढ़े लिखे बुद्धिजीवी लोगों ने लोकपंचायत नाम से एक  ऐसा संगठन बनाया जिसने फिर से नौनिहाल व युवाओं को अपनी जड़ों पर वापस लौटने  को मजबूर कर दिया. जो लोग कल तक अपनी लोक परम्पराओं के आभुषण व पहनावे से दूर भाग रहे थे आज वही युआ समाज फिर से उन्हें फैशन के तौर पर अपनाने लगा है.

इसमें कोई दोराय नहीं कि इसी जौनसारी जनजातीय समाज की देहरादून जिलापंचायत की अध्यक्ष श्रीमती मधु चौहान ने भी लोक बिम्बों व उनके प्रतीकों को अपनाते हुए लोक पहनावे व लोक आभूषणों के साथ सोशल साईट में अपनी फोटो साझा कर जनजागृति के लिए युवाओं को प्रेरित किया साथ ही उन्होंने अपने चुनावी दौर में भी ऐसी ही फोटो चस्पा कर इसका आकर्षण भी बरकरार रखा. यह और सुखद रहा कि खत्त पशगाँव के ग्राम दसऊ के युवा अनिल चौहान ने सोशल साईट पर अपनी धर्मपत्नी अंजू बिष्ट चौहान की उपरोक्त फोटो साझा कर मुझे मजबूर कर दिया कि मैं इस जनजातीय लोकसमाज के आभूषणों पर अपनी कलम चलाऊं।

बहरहाल यह फोटो जितनी आकर्षण लिए है उतना ही आकर्षण इस बात का भी दिखाई दे रहा है कि जौनसार बावर जनजाति के युवावर्ग में अपनी लोक परम्पराओं में व्याप्त अपने लोक समाज व लोक संस्कृति के रंगों में रंगे लोकआभूषणों के प्रति कितना लगाव व प्रेम है।

 

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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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