Friday, July 26, 2024
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उत्तराखंड में जोहार, ब्यास, दारमा व चौंदास घाटी की रं समाज के वस्त्राभूषण

उत्तराखंड के जोहार, ब्यांस, दारमा व चौंदास घाटी की रं समाज का रूप यौवन व वस्त्राभूषण

उत्तराखंड के जोहार, ब्यांस, दारमा व चौंदास घाटी की रं समाज का रूप यौवन व वस्त्राभूषण ।

(मनोज इष्टवाल)

रंगीली चंगली पुतई कसि , फूल फटाना जून जसि। काकडे फुल्युण कसि…. ओ मेरी किसाणा। यह गीत लोक में जाने कब से गुंजायमान है लेकिन हमने इसे कुमाऊं के लोकगायक स्व. गोपाल बाबू गोस्वामी के सुर में जबसे सुना है, तब से यही सोच थी कि आखिर कोई कवि गीतकार ऐसे शब्द विन्हास कहाँ से जोड़ता होगा ?या फिर लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी के इस गीत को ही देख लीजिये- “फूल फ्योंळि बोलू कि बुराँस बोलू, बोल त्वी बोलू अब त्वेकू क्या बोलू. . क्याजि बोलू, ग्वीराळ बोलू कि गुलाब बोलू, बोल त्वी बोलू अब त्वेकू क्या बोलू. . क्याजि बोलू।” ये ऐसे गीत हैं जिन्होंने नारी की उपमा में प्रकृति के वे निराले रूप अभिव्यक्त किये हैं जो अप्रितम तो हैं लेकिन वह नारी सौंदर्य के आगे असमंजस सा पैदा करते दिख रहे हैं।
उत्तराखंड के नारी सौंदर्य के साथ यूँ ही प्रकृति के श्रृंगारों को पल्वित पुष्पित नहीं किया जाता। अब अगर उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्र में निवास करने वाले भोटिया रं समुदाय नारी सौंदर्य की बात की जाय तो वह ऐसा लगता है जैसे दूध से दही, दही से मक्खन व मक्खन से घी बनाया जाता है। यहाँ की प्रकृति में उत्पन्न शिशु भी बर्फ की तरह दूध व दूध की मलाई जैसा लगता है, बाल्यपन से कदम आगे क्या बढे तो रंग दही या मलाई की तरह व यौवनावस्था में कदम रखते ही मक्खन सा, और विवाह सम्बन्धों में बंधने के बाद साज-श्रृंगार आभूषण उस चेहरे व बदन में शुद्ध घी सा पीलापन ला देते हैं। ऐसा लगता है मानो बसंत की फ्योंलि का हिमालयी क्षेत्रों में पदार्पण हो गया हो।
यकीन मानिये इस लोक संस्कृति के रंग में रंगने से पूर्व हमें लगता है कि इस समाज के लोग मिलनसार प्रवृत्ति के कम होंगे लेकिन जब आप को यह समाज समझ लेता है तब आपको महसूस होता है, मानों समस्त हिमालय का भोलापन इस जन मानस की समृद्ध लोक संस्कृति के साथ पहाड़ों में उत्तर आया हो। लगता है जैसे देवी देवताओं के ये दत्तक पुत्र,पुत्रियां हों।
बहरहाल लोक संस्कृति के धनि इस समाज पर तब बरबस निगाह टिक जाया करती हैं जब इस लोक समाज की महिला व पुरुष अपनी भेष-भूषा के साथ अपनी लोक संस्कृति के त्यौहार व उत्सवों को बड़ी धूम-धाम से मनाया करते हैं। यहाँ के महिलाओं के लोक श्रृंगार में आपको गौरा, नंदा, पार्वती का अक्स ज्यादा दिखाई देता है जब ये अपने पूरे रूप श्रृंगार में उतरती हैं। यकीन मानिये ये परी लोक की गाथाओं में समाई ऐसी अप्सराएं सी दिखाई देती हैं जिन्हे नजर एकटक देखना पसंद करती है। इस एकटक नजर में कहीं भी आपके मन मस्तिष्क में गलत विचार नहीं आते अपितु इन्हे देखकर मन में देव तुल्य भावनाएं स्वत: ही जागृत हो उठती हैं।
रूप यौवन के बाद सबसे प्रमुख हैं यहाँ के आभूषण ! ये आभूषण ऐसे हैं जो आपको दुनिया के किसी भी बाजार में आसानी से क्या बड़ी मुश्किल से भी उपलब्ध नहीं हो सकेंगे। क्योंकि अगर आप इन्हे बनाने के लिए कारीगर को बोलेंगे भी तो क्या बोलेंगे कि हमें क्या बनवाना है। माना फोटो से आपने डिज़ाइन तैयार भी करवा दिया लेकिन जब आप उसे पहनकर निकलेंगे तो आप उसकी ब्याख्या में क्या कहेंगे? आइये पहले इस समाज में प्रचलित आभूषणों पर ही चर्चा करते हैं।

ब्यास,चौदास व दारमा घाटी के सिर से नख तक नारी श्रृंगार के आभूषण-

छमरौ बाली- सिर पर पहने जाना वाला चांदी का आभूषण,इस आभूषण की बिशेषता यह है कि यह मांग भरने वाले स्थान पर सूर्य की भांति उदितमान लगता है और उसकी लड़ियाँ जो बालों के साथ पीछे गूंथ दी जाती हैं, वह सूर्य पुंज से निकलती किरणों के समान प्रतीत होती हैं। इससे स्वाभाविक तौर से यह माना जा सकता है कि ये सूर्यवंशी हैं लेकिन यह आश्चर्य जनक है कि यहाँ के समाज की महिलायें तो क्या पुरुष व विद्वानों को भी इन आभूषणों के कृतित्व की जानकारी नहीं है। यह मेरा व्यक्तिगत शोध है जो इस ओर इशारा करता है।, गाखर- कान पर पहनने का आभूषण,इन्हे गौखुर नाम से भी संबोधित किया जाता है ।, बुजिनी- कान पर पहनने का आभूषण।, मुरकी- कान पर पहनने का आभूषण । बिड- नाक में पहनने का स्वर्ण आभूषण, जिसे पुरुष तथा नारियाँ दोनों ही पहनते हैं।,नथ- बाँये पर पहनने का करी १० से.मी. व्यास तक का स्वर्ण आभूषण, जिसे केवल सुहागिन नारियाँ ही पहनती हैं।, अपिया- गले का एक ऐसा स्वर्ण हार जिसके मध्य में लगभग ५ से.मी. लम्बा ३ से.मी. चौड़ा बेल-बूटेदार मनका होता है। मनका के दोनों ओर सोने तथा मूँगे के कई दाने गूँथकर हार के रूप में पहनते हैं।,बलडंग- सबसे लम्बी चांदी के सिक्कों वाली माला, इसकी लम्बाई चन्द्रहार से ज्यादा होती है। यह मूलत: गले से घुटनों तक की लम्बाई लिए होता है। बलडंग के बारे में जानकारी मिली है कि इसे विवाह के दिन महिलायें अपने गले में धारण करती हैं व प्रतिबर्ष इसमें एक चाँदी का सिक्का अपनी शादी की सालगिरह पर गढ़वाती हैं। पौला- मूँगे की लगभग ४-५ लड़ियों का हार। एक लड़ी में कम से कम १५० दाने गूँथे होते हैं।, त्यलड- तीन लड़ियों वाला स्वर्ण या मूँगे का हार, चतरहार- अर्द्ध चन्द्रकार चांदी का बना हार।

इसे मूलत: स्थानीय भाषा के स्थान पर चन्द्रहार पुकारा जाने लगा है। यह तीन लड़ियों की सहायता से लटका होता है व यह नाभि तक आते आते अर्द्ध चंद्राकार के रूप में बना होता है व नाभि स्थान में इसी अर्द्ध चन्द्रहार के ऊपर पूरा चन्द्रमा स्वरुप विराज मान रहता है। मूलत : इस आभूषण को डिज़ाइन करते समय वैज्ञानिक दृष्टि से इस बात का ध्यान रखा गया होगा कि नारी के पेट की समस्या नाभि तंत्र के माध्यम से स्वस्थ रहे व उनके अनुकूल रहे , पंचमनी/पंचमणि- पाँच लड़ियों वाला स्वर्ण हार,पूर्व में इसमें पांच सोने के सिक्के या पांच हीरे जवाहरात जड़े होते थे। इसीलिए इसका नाम पंचमणि रखा गया। ।, त्याड– चतरहार के नमूने का आभूषण, जो दोनों ओर से चाँदी का लड़ियों से जुड़ा होता है।, मोहन माला- सोना तथा मूँगे के दानों से गूँथा हार।
इसे ज्यूरुम सालै भी कहा जाता है।, सुतुवा- ठोस चाँदी का बना रिंग जिसे गले में पहनते हैं।, धागूला- हाथ में पहने जाने वाला चाँदी का कंगन, मुनड़ि- अगूंठी।,पौजि- के लगभग ४० दानों के एक साथ गूंथ कर कलाई पर बांधने का, चूड़ी/बहाँ- लगभग ८ से. मी. चौड़ी चाँदी की पट्टी, जो हाथ पर पहिनी जाती है। नारी श्रृंगार में इसे बहाँ कहा जाता है। , गिनाल- भीतर से खोखला चाँदी का गोल आभूषण, जिसे प्रायः लड़कियां ही पहनती है।,अतरदान- कमर पर लटकाये जाने वाला चाँदी का एक ऐसा आभूषण, जिसके अन्तिम सिरे पर इत्र रखने की एक छोटी सी डिबिया होती है। अत: इस इत्र दान या अतरदान कहते हैं।, स्यू साङल- अतर दान के साथ ही कमर पर लटकाये जाने वाली चाँदी की जंजीर जिसके सिरक पर चाँदी की ऐ छोटी सी चिमटी, कान साफ करने के लिये कनकुड़ी, कस्तूरी मृग के दाड़ (दाँत) तथा आभूषण साफ करने वाला सुर्याल (सुँअर के मोटे बाल) लटका होता है।, पुलिया- पाँव की तर्जनी अगली पर पहनने वाला चाँदी का आभूषण।, पैजाम- पाँव पर पहनने का चाँदी का आभूषण।, झड़तार-चाँदी से बना हुआ पाँव पर पहनने का आभूषण।, छाड़- चाँदी से बना हुआ पाँव पर पहनने का आभूषण।, अमृततार- चाँदी से बना हुआ पाँव पर पहनने का आभूषण।

ब्यास,चौदास व दारमा घाटी के सिर से नख तक पैराव (वस्त्र)

खौपि/चुप्ती- करीब 2 मीटर लम्बा सफेद लट्ठा का कपड़ा, जिसका एक सिर दुहरा सिला होता है और उसके बाहर की ओर मध्य कि लगभग 15%6 सेमी. नाकर मिखाब की पट्टी होती है। कपड़े का दूसरे किनारे को मोड़ कर नारियाँ घूँघट डालती हैं।, चुप्ती सिर में पहना जाने वाला वस्त्र हुआ जो महीन ऊन से बारीक कात कर बनाया जाता है व इसका रंग भी सफ़ेद ही अक्सर देखने में मिलता है।
चुब – यह महिलाओं का ऊपरी वस्त्र है जो तन पर पहना जाता है।, रकल्सा- नारी सौंदर्य का प्रतीक बाजुओं में कई रंग की पट्टीदार वस्त्र, भाला-नारी सौंदर्य का प्रतीक कमर से नीचे पहने जाने वाला वस्त्र,
महिलाओं के सम्पूर्ण वस्त्रों का अगर एकीकृत नाम बोला जाय तो उसे रं समाज के लोग चुंग-भाला नाम से संबोधित करते हैं।
टाँखों- पगड़ी।, टोपि-टोपी, कोट- कोट, भवाट्ट- वास्कट, खिल्ल- कमीज, (इन्हे सिर्फ पुरुष समाज ही पहनता है।) आँडरो- वास्कट् के आकार का पूरे बाहों वाला वस्त्र, जिसे केवल नारियाँ पहिनती हैं, पाकरो- लगभग ४ मीटर लम्बा सफेद लट्ठा का कपड़ा, जिसे केवल नारियाँ कमर पर लपेटती हैं।, कामालो- काले रंग का सूती या ऊनी चादर, जिसे नारियाँ लहँगा कबाहर कन्धे से नीचे की ओर लपेट कर पहिनती हैं।, घागरो-लहँगा जिसे केवल नारियाँ पहिनती हैं ।, सुतन- पैजामा, केवल पुरुष ही पहनते हैं।, सेक- बर्फ में चलते समय मोटा कपड़ा या चमड़ा, पाँव पर घुटने तक सिलाई करके कस दिया जाता है। जिससे कई घण्टे तक बर्फ में चलने पर भी शरीर के अन्दर पानी प्रवेश नहीं कर पाता है। , पौल- जूता,महिला -पुरुष दोनों ही पहनते हैं। व्याक्च- हाथ से बना हुआ कपड़े का बना जूता, जिसे केवल रसोई में पहनते हैं क्योंकि चमड़े का जूता अशुद्ध माना जाता है। महिला -पुरुष दोनों ही पहनते हैं।

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