भाबर की भूमि को क्यों बोला जाता है “खसमखांदी”?
(मनोज इष्टवाल)
“भाबर कु बास अर कुल कु नाश” यह शब्द शायद आपको भी कभी न कभी कानों में पड़ते ही सुना-सुना सा लगता होगा। दरअसल यह शब्द मुहावरे के तौर पर अक्सर पहाड़ों में काफी प्रचलन में रहा है लेकिन आज के भाबर को देखकर कौन विश्वास करेगा कि भाबर में बसने वाले व्यक्ति का कुल नाश हो सकता है! दरअसल उन्नीसवी सदी के पूर्वार्द्ध तक भाबर में बसने के नाम सुन्त्ते ही लोग बिदक जाया करते थे। द्वितीय विश्व युद्ध लड़ने वाले मेरे पिताजी को ब्रिटिश सरकार ने उनकी सैन्य सेवा में अदम्य साहस के लिए मैडल से तो सम्मानित किया ही था साथ ही साथ भाबर में 100 बीघा जमीन भी दी थी लेकिन उन्होंने जमीन लेने से साफ़ इनकार कर दिया था। ऐसे वे अकेले नहीं थे बल्कि कई अन्य भी थे। यह उदाहरण के तौर पर लिया गया प्रसंग है क्योंकि माँ अक्सर कहा करती थी कि इन्होने भाबर की जमीन के लिए इनकार नहीं किया होता तो आज हम खूब मालदार होते लेकिन तब तो हमारी सासू जी भी यही कहती थी कि भाबर कु बासु, कुल कु नाशु..!
आइये जानते हैं कि आखिर इस खसमखांदी जमीन या भाबर कु बास, कुल कु नाश क्यों बोला जाता था?
भाबर बसाने के प्रयत्न 19वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में रामजे और गर्सिन के द्वारा किए गए। गर्सिन ने खोह और मालिनी से कच्ची नहरें निकलवाई और वन काटकर गांव बसाने का कार्य ठेकेदारों को सौप दिया। आज भी इन्हीं नदियों की नहरों के सहारे चौकीघाट से लेकर कोटद्वार के बीच के प्रदेश में कृषि होती है और शेष क्षेत्रों में बन फैले हैं।
सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ शिब प्रसाद “चारण” अपनी किताब “अलकनंदा-उत्पयका” के पृष्ठ संख्या 129 में लिखते हैं कि भाबर का जलवायु, जो कि ग्रीष्म में अत्यधिक शुष्क और प्रतप्त तथा बरसात में अत्यधिक प्रतप्त और आर्द्र होता है, उपत्यका के पहाड़ प्रदेश के निवासियों के अनुकूल नहीं है। वे ‘भाबर का बास, कुल का नाश’ समझते हैं। इसलिए थोड़े से भूमिहीन हरिजनों तथा कतिपय साहसी सवर्ण गढ़वालियो को छोड़कर आरम्भ में भाबर में मुख्यतः थाडू/थारु, बोक्सा और बिजनौर के चमार ही बस सके।
वृक्षों की पत्तियों और जीवांश से भरी भाबर की उपजाऊ मिट्टी में सिंचाई से उत्तम धान, गेहू और सरसों की खेती होने लगी और धीरे-धीरे गांवों की संख्या और कृषि भूमि का क्षेत्रफल, दोनों बसने लगे ।
ज्यों-ज्यों पहाड़ की जनसंख्या बढ़ती गई, पहाड़ प्रदेश के निवासी भाबर की उपजाऊ भूमि के प्रति अधिकाधिक आकर्षित होते गए।
द्वितीय महायुद्ध के दिनों में अन्न अत्याधिक मंहगा हो जाने तथा पहाड़ प्रदेश में कुछ वर्षों से लगातार अन्न अकाल पड़ते रहने के कारण गढ़वाली जनता में भूमि की भूख अत्यधिक बढ़ गई और अनेक परिवार आकर भाबर में बसने लगे ।
यह सब देखते हुए ब्रिटिश सरकार ने नहरें पक्की और लम्बी बना दीं। तथा कुछ भागों में नलों द्वारा पीने का पानी भी पहुंचा दिया है। भाबर को बसाने के लिए अंग्रेज अधिकारी रामजे और गर्सिन जी जान लगा दी, क्योंकि वे भली प्रकार से जानते थे कि पहाड़ी इलाकों की खेती से भुखमरी नहीं बचाई जा सकती इसलिए इन दोनों ने सबसे पहले मच्छर व मलेरिया की रोकथाम के लिए अथक प्रयत्न किए। फलतः वनों को काटकर कुछ ऐसे स्थानों पर भी खेती होने लगी है, जहां सिंचाई की सुविधा नहीं थी या केवल बरसात में वहां बरसाती पानी से खेती की जा सकती थी। उन्होंने पीने के पानी व मालन, सूखरो व खोह नदी से नहरों का निर्माण प्रारम्भ किया। मालन के चौकीघाटा से लेकर समस्त भाबर क्षेत्र में आज भी ब्रिटिशकाल की नहरें दिखाई देती हैं। जबकि सिद्धबलि से पहले जहाँ लालपुल है व पूर्व में पुलिस चेकपोस्ट हुआ करती थी अर्थात खोहद्वार नामक स्थान से खोहनदी पर नहरें निकाली गयी जो आज भी सड़क मार्ग से खंडित अवस्था में दिखाई देती हैं। इससे गांवों की संख्या और कृषि भूमि में वेग से वृद्धि हुई है, इतिहास के पन्ने अगर पलटे जाएँ तो आपको आश्चर्य होगा कि कोटद्वार से पहले भाबर बसा जबकि कोटद्वार में सिर्फ खोहद्वार के पास ढाकर मंडी हुआ करती थी उसके बाद ज्यादात्तर जंगल हुआ करते थे।
रामजे व गर्सिन के समय के गजेटियर इबेटसन का भाबर के आंकड़े व खाम कार्यालय के आंकड़ों का अगर मिलान किया जाय तो आपको आश्चर्य होगा कि सम्पूर्ण कोटद्वार भाबर क्षेत्र में 1850 तक चुनिन्दा पांच गाँव ही थे जो थारु व बोक्सा जनजाति के लोगों के थे व उनका भी आम नागरिकों से कोई सम्बन्ध नहीं होता था। पहाड़वासियों के लिए वे दूसरी दुनिया हुआ करते थे। रामजे व गर्सिन के प्रयासों से यहाँ जंगल काटकर गाँव बसाने का यत्न शुरू हुआ। यह अचंभित कर देने वाली बात है कि जिस कोटद्वार-भाबर क्षेत्र में 18वीं सदी तक मानवशून्य हो गया था वहां आठवीं सदी में कत्यूरी राजवंश ने कण्वाश्रम की पुनर्स्थापना की थी जिसके पाषाण व शिलाओं का डीएनए करने से ययः विधित हुआ कि यहाँ कण्वाश्रम आठवीं सदी में दुबारा से निर्मित हुआ था। क्या कण्वाश्रम उसी भाबर क्षेत्र में था जहाँ आज कण्वाश्रम है? या फिर ये बड़े बड़े तरासे गए शिलाखंड व पाषाण मूर्तियाँ मालन नदी के बहाव में यहाँ बहकर आई हैं? इस पर अभी खोज की ज्जानी बाकी है। अगर कोटद्वार भाबर क्षेत्र में मानव बसासत के आंकड़ों की बात करें तो हमें ब्रिटिश काल में ये आंकड़े प्राप्त होते हैं जैसा कि निम्न तालिका से स्पष्ट है:-
सन 1869-70 में भाबर क्षेत्र में गांवों की संख्या मात्र 18 थी व 2069 बीघा कृषि भूमि, यही आंकड़ा सन 1899 में 62 गाँव व 25542 बीघा कृषि भूमि, सन 1907 में 68 गाँव व 37561 बीघा कृषि भूमि, सन 1961 में 81 में 86409 बीघा कृषि भूमि थी। आज पूरा कोटद्वार भाबर क्षेत्र सरसब्ज है व यहाँ गाँवों की तादात में सैकड़ा पार हो गया है जबकि कई गाँव कोटद्वार जैसे शहर में समां गए हैं। सच तो यह है कि भाबर में कृषि के क्षेत्र में गढ़वालियों को अधिक सफलता मिली है और धीरे-धीरे उन्होंने भाबर में पहले से बसे हुए थारु, बोक्सा, चमार और कुमाउनियों से उनकी अधिकांश भूमि प्राप्त कर ली है। कुमाउनी यहाँ बांस काटने आये थे व अब सिर्फ एक सिमट कर रह गए हैं। पुराने बसे हुए पैनों और चाँदकोट वालों से सलाण और राठ-निवासियों ने बहुत सी भूमि खरीद ली है। आज गढ़वालियों ने गढ़वाल भाबर को गढ़वाल का एक अभिन्न अंग बना दिया है।
भाबर की भूमि का इसलिए हुआ “खसमखांदी” नामकरण।
खसम मूलतः पहाड़ी शब्द है या मैदानी …! इस पर भी विचार किया जाना चाहिए क्योंकि पहाड़ में यह शब्द पनपा होगा यह बात गले कम उतरती है। पहाड़ी शब्दों में तुच्छ शब्दावली तभी प्रकट होती है जब आपसी झगड़े में गाली गलौच होता है, इसलिए मेरा मानना है कि यह शब्द मैदानी भू-भाग से ही चलकर पहाड़ पहुंचा होगा व तब गढवालवासियों ने इसे इस्तेमाल में लाया होगा। अगर कोटद्वार भाबर की बात करें तो यह पूर्व में ठेकेदारों का शहर या ड्राईवर कंडक्टरों का शहर भी कहलाता था। आखिर कहलाये भी तो क्यों नहीं क्योंकि भाबर के गांव भी मुख्यतः उन साहसी व्यक्तियों या ठेकेदारों के नाम से प्रसिद्ध हैं, जिन्होंने अंगरेजी राज्यकाल में इधर-उधर से लोगों को बटोरकर उन्हें बसाया था। इसके विपरीत उपत्यका के पर्वतीय भागों के गांवों के नाम मुख्यतः किसी जाति से संबंधित हैं, जिसके पूर्वजों ने अपने कठोर परिश्रम से उस गांव में पहाड़ी ढालों को खोदकर वहाँ कृषि योग्य भूमि का निर्माण किया है। पहाड़ प्रदेश की जातियों के नाम उनके मूल गांवों के नामों के स्मारक हैं, और पहाड़ प्रदेश में व्यक्ति की अपेक्षा जाति या समाज का अधिक महत्व है।
‘भाबर की ‘खसमखांदी’ भूमि में दो-तीन पीढ़ी या कभी-कभी एक ही पीढ़ी हैं, या इससे भी पहले यह भूमि अपना स्वामी बदल देती है। क्योंकि अगर हम सत्यता को तलाशें तो पाते हैं कि जिस व्यक्ति के नाम से गांव का नाम जुड़ा है, उसके वंशज उस गांव में बहुत कम मिलते हैं। या फिर उसकी पीढियां ही कुछ समय बाद वहां से गुमनाम हो जाती हैं। इसीलिए इस भूमि को एक अवधारणा के तहत लोगों ने “खसमखांदी” भूमि कहना शुरू कर दिया था।
भाबर में जाति या समाज की अपेक्षा व्यक्ति प्रधान समाज देखने को मिलता है। वहां प्रत्येक गांव में, गढ़वाल, कुमाऊं या मैदान से आकर जो व्यक्ति बसे हैं, उनके आपस में कोई रक्त-सम्बन्ध न होने के कारण भी वे एक ही गांव की सीमा में रहते हुए भी, एक ही स्थान पर, पास-पास घर बनाना पसन्द नहीं करतेथे क्योंकि उनका लोक व्यवहार व लोक संस्कृति में भिन्नता थी अब यह मिथक बदल गया है व वर्तमान में एक ही गाँव के कई रक्त-सम्बन्ध व उनके नाते रिश्तेदार ही नहीं बल्कि नौकरी पेशा व्यक्ति भी अपना घर परिवार लेकर कोटद्वार में अपनी बसासत कर रहा है।
“भाबर कु बास अर कुल कु नाश’ या “खसमखांदी” भूमि का अगर सही आंकलन किया जाय तो वर्तमान परिवेश में यह कहावतें इसलिए कहीं चरितार्थ नहीं होती क्योंकि आज भाबर में न वे डेंगू वाले मच्छर हैं और न मलेरिया का ही डर है क्योंकि आधुनिक तरक्की में संसाधनों की वृद्धि के साथ अब इन मच्छरों व पानी के जहरीले लवणों का इलाज हो चुका है। पहाड़ की शुद्ध जलवायु वासियों ने न मच्छर देखा था न गन्दा या पानी…! न ही उन्होंने कभी भाबर जैसी गर्मी का आभास किया होगा, क्योंकि उस दौर में इतनी तरक्की कहाँ थी कि लोग सर्दियों में हीटर, गर्मियों में कूलर पंखे का प्रयोग कर अपने जीवन को सुरक्षित कर सकें। हाँ… एक “खसमखांदी’ जमीन के रूप में ऐसे कई विवाद इस भूमि से जुड़े हैं कि जैसे ही उनके नाम का गाँव बसा वे स्वर्ग सिधार गए । जहाँ कोटद्वार भाबर की यह कहावत थी वहीँ चंद वंशजों के राजकाज में इसे कालापानी भी कहा जाता था व अपराधी को तड़ीपार के लिए कोटद्वार भाबर के जंगलों में छोड़ दिया जाता था।