Tuesday, October 8, 2024
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थोकदारी हुंकार, रणीहाट की आह.. व बादी का खण्डबाजे जाने कहाँ गायब हुए असवालस्यूं डुंक गांव से।

थोकदारी हुंकार, रणीहाट की आह.. व बादी का खण्डबाजे जाने कहाँ गायब हुए असवालस्यूं डुंक गांव से।

(मनोज इष्टवाल)

बर्ष 1998 की बात होगी। गर्मियों की भरी दोपहर सुरालगांव असवालस्यूं की चढ़ाई चढ़ते हुए निचली सड़क अर्थात पिपला बैंड से खिल्ला गांव के पानी से ऊपर सड़क तक पहुँचते हुए मैं उन विशालकाय आम के पेड़ों से टपके खट्टे मीठे आम चूसता आगे बढ़ रहा था। कंधे में अपने स्टाइल का थैला, चश्मा भला आँखों से कहाँ छूटने वाला था। जीन्स पर हल्की धूल मैल की परत, सफेद कमीज के कॉलर का रंग मेरे रंग से मैच करता हुआ और धूल फांकते जूतों की हालत मेरी जेब की कड़की बयां करती आगे बढ़ रही थी।

(वाइट स्पॉट…यहीं हुआ करता था कभी रौथाणों का क्वाठा (किला) फ़ोटो-मलकीत रौथाण)

तल्ला असवालस्यूं की भौगोलिक स्थिति समझने व वहां की बसासतों की जानकारी जुटाने के लिये मेरे पास अरुण कुकसाल जी से बेहतर विकल्प और कोई ऑप्शन हो नहीं सकता था। उन्होंने जानकारी दी कि खिल्लागांव जोकि शिल्पियों/शिल्पकारों का है, वे भी उन्हीं के साथ कुमाऊं से आकर चामी बसे व उसके बाद खीला में उन्होंने अपना अलग गांव बनाकर रहना प्रारम्भ किया।

उन्होंने बताया कि तल्ला असवालस्यूं में यूँ भी खुगशाल जाति के 07 गांव हैं। जिनमें खुगशा, किनगोड़ी, बकरौली, लयड, सिलण, कंडार, तल्ली-मल्ली चामी मूलतः हैं। हम लोग चम्पावत कफलांग गांव के जोशी परिवार से माने जाते हैं। हमारा कोई पूर्वज बकरी या अन्य व्यापार के लिए नजीबाबाद-कोटद्वार-सतपुली आया तो असवाल थोकदार ने उन्हें  खुगसा गांव में जमीन देकर ससम्मान बसासत दी। यहां खगशा की झाड़ियां होने के कारण उन्हें जातिगत खुगशाल ही माना गया। यहीं उन्होंने नौडियाल कन्या से विवाह रचाया और खुगशा, किनगोड़ी, बकरौली, लयड, सिलण, कंडार, तल्ली-मल्ली चामी इत्यादि गांव तक फैलावट हुई। हमारे जितने गांव बसते रहे उनमें ज्यादात्तर शिल्पकार कुमाऊं से आये ही हमारे साथ साथ अपनी बसासत बढ़ाते रहे। कालांतर में डुंक गांव के रौथाण व असवालों के सम्बन्धों में क्या तल्खी आई इसका कोई प्रमाणिक आधार तो नहीं लेकिन किंवदंतियों के आधार पर कहा जाता है कि डुंक के रौथाणों ने तल्ला-मल्ला चामी में हमें बसाया और हमारे साथ खिल्ला गांव के शिल्पकार आ बसे।

बहरहाल मैंने एक बात का तो गहरा अध्ययन किया है कि जेब कड़की हो तो आप में स्वाभाविक रूप से काव्य में भी अंगारे जैसे शब्द फूटते हैं और साहित्य इतिहास के शोधों में गहराइयाँ…! धन्यवाद अरुण कुकसाल भाई जी…आपने अपने इर्द गिर्द के गांवों की भौगोलिकता का अनुभव करवाया। अब और आगे बढ़ते हैं। 

उस दौर में मुझ में एक धुन सी सवार थी, और वह यह कि ब्रिटिश गढ़वाल के इतिहास में थोकदारों की भूमिका पर जो लिखना था मुझे। असवालों के गांव मिरचौडा, पलई, नगर, पीड़ा, बरस्वार, रणचूला, बड़ोली, कंडोली, सीला, खेड़ा, रणचूला सहित सभी गांव निबटा चुका था। इन्हीं थोकदारों से इकट्ठा हुए चंदे से यात्रा सफर भी करता था। आज भी मुझे याद है कि नगर गांव के ग्राम प्रधान तब चौहान जी हुआ करते थे जिन्होंने गांव से इकट्ठा किये गए 717 रुपये का चंदा मुझे सप्रेम भेंट किया था। 

यहां बड़े थोकदारों में रौथाण व बिष्ट जातियों की बसासत पर मेरा ज्यादा ध्यान केंद्रित था। दरअसल रौथाण थोकदारों का असवालस्यूँ में बसागत होना जरा अटपटा सा लग रहा था, क्योंकि पूरे असवालस्यूँ में डुंक ही एकमात्र ऐसा गांव था। जहां रौथाण रहते थे।  व उनका गांव सीमा विस्तार नीचे नयार से लेकर ऊपर नाव-सीरों तक व चामी सुरालगांव से लेकर लगभग 3 किमी लम्बाई लिए हुए था।

मुझे पता था कि गांव की बनावट के हिसाब से यहां के रौथाणों की अपनी सामाजिक मान्यताएं अवश्य होंगी। मैं पता करते-करते आखिर उस शीर्ष के घर तक पहुंच ही गया, जहां डुंक गांव के रौथाणों का क्वाठा (किला) हुआ करता था। उसकी खंडहर दीवारों के अवशेष तब भी थे जबकि वे खेतों में तब्दील कर दिए गए थे। मैंने उस काल में उस खंडहर की दीवारों का माप भी लिया था लेकिन यह सारी पांडुलिपि खो जाने से मेरी बर्षों की मेहनत यूँहीं बर्बाद हुई।
यहां एक आध घर में पौराणिक तलवारें भी थी, जिन्हें पूजा स्थल में सब अपने घरों में रखे हुए थे, बस दूर से ही देखी जा सकती थी। तलवारें…. मैंने अपने शोध के दौरान बंठोली के क्वाठा भित्तर, सीला के क्वाठा भित्तरमल्ला इडागांव के क्वाठा भित्तर या फिर रणचूला देखी थी। ये ज्यादात्तर दुधारी तलवार थी जिनके विपरीत दिशा में तिरछी घूमती तलवार पर एक बिलस्त लम्बी धार होती थी। बंठोली गांव में गैंडे की खाल से निर्मित ढाल भी देखी थी, जो बेहद हल्की कही जा सकती है।

डुंक गांव के थोकदार अपनी देवी में भैंसे की बलि चढ़ाते थे। व कालांतर में यहां अठवाङ हुआ करती थी, जो धीरे-धीरे समाप्त हो गयी। इस से पूर्व यहां बादी मेला लगता था, जिसमें बादी समाज के लोग लांघ खेलते महादेव का नाम लेकर खण्ड बाजे बोला करते थे। साथ ही गांव की ऊंची सरहद से गांव के क्वाठा (किले) तक काठ की कठघोडी में फिसलते हुए आते थे। और यदि वे बीच में गिर गए तो उन्हें मार दिया जाता था। यह सिर्फ इसलिए होता था कि गांव में हैजा न फैले, फसल बारिश समय पर और खूब हो। अन्न धन की बरकत बनी रहे। वहीं वहीं जाने माने इतिहासकार व संस्कृतिकर्मी डॉ डीआर पुरोहित इस मार देने वाले तर्क से इत्तर एक तर्क देते हुए कहते हैं कि जब बद्दी समाज का व्यक्ति सफलता पूर्वक रस्सी से फिसलता हुआ नीचे पहुंच जाता था तब उसके बाल लेने के लिए भगदड़ मचती थी, हो सकता है ऐसे में ही कोई हादसा होता रहा होगा। 

यह अब निष्कंटक चल रहा था कि सन 1803 में गोरखा राज के बाद इन गांवों ने बड़ी त्रासदी झेली। हर बर्ष गोरखे नयार तट जहां आज भी यहां के ग्रामीण रणीहाट के नाम से पुकारते हैं, मानव मेला लगाते थे जिसमें क्षेत्र की बेटियां व बच्चे औने-पौने दामों पर बेची जाते थे। आज भी वह स्थान राणीहाट के नाम से जाना जाता है।
राणीहाट पर कुछ भ्रांतियां भी रही। कुछ का कहना था कि यहां रानी आकर स्नान करती थी जोकि सम्भव नहीं था। वक्त काल परिस्थिति बदली। सन 1815 में गोरखा शासन समाप्त हुआ तो उसी के साथ वह सभी ठाकुरों की ठकुराई का भी अंत कर गए। अकाल का दौर आया और अंग्रेजों ने असवालस्यूँ सहित बारहस्यूं के सभी थोकदारों के सारे ताम्रपत्र जब्त कर लिए। बताया जाता है कि इसके पीछे का कारण खातस्यूं व कफोलस्यूं के भूमि बंटवारे में हुए संघर्ष की घटना के बाद यह सब हुआ। जहां बारहस्यूं के थोकदारों की दुनाली व तलवारें म्यान से बाहर निकल गयी जिस कारण कई थोकदारी की गर्दनें धड़ से अलग हो गयी।

प्रधान कुलदीप सिंह रौथाण बताते हैं कि अन्य गांवों की तरह पलायन से उनका गांव भी अछूता नहीं है लेकिन यहां अन्य गांवों की अपेक्षा पलायन कम हुआ है। बलि प्रथा ग्रामीणों के व्यक्तिगत प्रयासों से बंद कर दी गयी है और आज हमारे गांव को निर्मल गांव पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।

बहरहाल डुंक गांव के एतिहासिक पन्ने टटोलने अभी भी बाकी रह गए हैं। हमारे पूर्वजों की एक बड़ी कमी रही है कि उन्होंने तलवारों के दम पर सत्ता-सुख तो भोगा लेकिन कलम में वे अंगूठा छाप रहे। इसीलिए करीब दो ढाई सौ साल पहले के इतिहास की जानकारी किसी से मिल माना अब सम्भव नहीं है क्योंकि न अब बद्दी मिरासी या औजी जाति के वे गुणीजन जिंदा हैं जो यह सब अपनी भड़ वार्ताओं, यशगानों में वंशावली जीवित रखते थे और न ही ऐसे थोकदारी हुंकार ही…जो ऐसे विषयों पर मशक्कत कर सकें।

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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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