(मनोज इष्टवाल)
यूँ तो पौड़ी में विकास भवन की स्थापना बर्ष 1840 में हो गई थी जब 1839 में अंग्रेज अपर आयुक्त कार्यालय श्रीनगर गढ़वाल से पौड़ी शिफ्ट किया गया था। सच मानिये तो पौड़ी शहर की अवस्थापना ब्रिटिश सरकार द्वारा ही की गई थी। तब से लेकर अगस्त 2020 तक अर्थात 180 बर्ष विकास भवन के रूप में पौड़ी का पुराना जिलाधिकारी कार्यालय भवन ही रहा।
भले ही नये विकास भवन के निर्माण की परिकल्पना राज्य निर्माण बर्ष 2000 में तत्कालीन जिलाधिकारी प्रभात कुमार सारंगी के दौर में होनी शुरू हो गई थी लेकिन इस नये विकास भवन पौड़ी का निर्माण की शुरुआत 2006 में जिलाधिकारी हरीश चंद्र जोशी के कार्यकाल में शुरू हुआ और 20 अगस्त 2020 को इसका लोकार्पण तत्कालीन जिलाधिकारी धिराज गर्ब्याल के कार्यकाल में किया गया।
जब यह विकास भवन बन रहा था तब इसके निर्माण को लेकर कर्मचारियों व अधिकारियों में रोष था। क्योंकि कोई भी अधिकारी व कर्मचारी मेन बाजार कार्यालय छोड़कर स्टेशन से विकास भवन तक की हाँफने वाली चढ़ाई नापना पसंद नहीं कर रहा था। कई स्वास के पीड़ित रिटायरमेंट के करीब पहुँचे अधिकारी कर्मचारियों के लिए यह विकास मार्ग की चढ़ाई आती-जाती स्वाँस के समान थी।
विकास भवन बनकर तैयार हुआ तो इस सांस फुलाने वाली चढ़ाई ने उन आराम पसंद कर्मचारी, अधिकारियों के लिए महीना पंद्रह दिन में ही एक नई ऊर्जा का संचार करना शुरू कर दिया। फेफड़ों को मिलने वाली स्वास ने योगा का काम करना क्या प्रारम्भ किया, वही कर्मचारी अधिकारी रोग मुक्त होने लगे। वर्तमान में सबके लिए विकास भवन की चढ़ाई नापना एक अच्छाई का मानक बन गया है।
विकास मार्ग निवास वरिष्ठ पत्रकार त्रिभुवन उनियाल का मानना है वर्तमान के भौतिक परिवेश व यूरिया खाद्य निर्मित अन्न से कुपोषित हम सबके लिए विकास भवन उस आंदि जांदी सांस (आती जाती सांस) के समान है जो हमें निरोग रखने में अहम् योगदान निभा रहा है। पौड़ी की हवा और पानी के साथ हिमायल के दिव्य दर्शन के साथ शुद्ध पर्यायवरण को छोड़कर जो लोग पौड़ी छोड़कर देहरादून व अन्य मैदानी शहरों में सेवानिवृत्ति का जीवन जी रहे हैं वे ज्यादात्तर वहाँ अस्पतालों के चक्कर काटते नजर आते हैं। पहाड़ विकट जरूर है लेकिन इसमें जीने वाला जीवन विकास भवन की तरह दिव्य व मजबूत हर्ट बीट वाला है।
बहरहाल आम चर्चा में ज़ब यह बिषय सामने आया तो लगा इस पर सोच पैदा करना ही अपने आप को स्वस्थ रखने की परिकल्पना जैसा है। हम चढ़ाई के परिश्रम को थकान मान लेते हैं लेकिन जो स्वास हमारे फेफड़ों को तरोताजा रखती हैं उसके लिए देश भर के लोग ध्यान और योग के अभ्यास हेतु हजारों-हजार की धनराशि खर्च करते हैं।