Sunday, September 8, 2024
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चितौड़गढ़ के राणाओं की आत्माएं पहुँचने लगी उत्तराखंड के ठेला गाँव..

चितौड़गढ़ के राणाओं की आत्माएं पहुँचने लगी ठेला गाँव.........

पिछले अंक में ….“कैलाखुरी अब मुगलों के अधीन हो चुका है, तुम यहां मत रहना, इनकी अधीनता स्वीकार मत करना।” सबका संहार करने के पश्चात विजय सिंह ने अपने पेट में तलवार से प्रहार कर अपनी भी जीवन लीला समाप्त कर दी।” 

गतांक से आगे…

चितौड़गढ़ के राणाओं की आत्माएं पहुँचने लगी ठेला गाँव………

(मनोज इष्टवाल)

अंत में खून से एक दीवार पर भूप सिंह के लिए संदेश लिख दिया:-“कैलाखुरी अब मुगलों के अधीन हो चुका है, तुम यहां मत रहना, इनकी अधीनता स्वीकार मत करना।” सबका संहार करने के पश्चात विजय सिंह ने अपने पेट में तलवार से प्रहार कर अपनी भी जीवन लीला समाप्त कर दी।
इधर, “अल्लाह हो अकबर” का घोष करते हुए फाटक तोड़कर मुगल सेना महल के अंदर प्रविष्ट हुई। वहां का दृश्य देखकर उसे लगा कि हम विजयी होकर भी पराजित हो गए। अंदर कोई भी प्राणी जीवित न था, हर जगह शव बिखरे पड़े थे। इस हृदय विदारक शोक समाचार के मिलने पर भूप सिंह अपने राज्य में पहुंचे। दीवार पर लिखे संदेश को पढ़कर भूप सिंह ने सभी परिजनों की अंत्येष्टि महल के अंदर ही कर दी और उनकी अस्थियां विसर्जित करने हरिद्वार आ पहुंचे।
वहां उनकी भेंट एक ब्राह्मण युवक से हुई। युवक ने भूप सिंह को बताया कि मैं गढ़‌वाल का रहने वाला हूं। मेरे माता-पिता के मुझ समेत तीन पुत्र थे। एक दिन राज दरबारी ने मेरे पिताजी से दरबार में एक अशर्फी जमा करने को कहा, उनसे यह न हो सका। मैं अपने गुरुजी के साथ गया हुआ था कि पिता जी ने खीर में पूरे परिवार को विष खिलाया और पिताजी समेत पूरा परिवार मृत्यु के मुंह में चला गया। मैंने घर के अंदर ही उनकी अंत्येष्टि की और अस्थि विसर्जन के लिए यहां आया हूं।
दोनों युवकों का अतीत समान होने के कारण उस पंडित युवक और भूप सिंह में मेल-जोल बढ़ गया। ब्राह्मण ने भूप सिंह के परिजनों के अस्थियां विसर्जित करवाई। भूप सिंह ने उक्त ब्राह्मण को अपना गुरु ग्रहण कर लिया। दोनों बदरीनाथ की यात्रा पर गए और लौटते समय ब्राह्मण भूप सिंह को अपने गांव बरैण्या (वर्तमान में ठेला गांव के ऊपर) ले गया। इस घाटी के अनुपम नैसर्गिक सौंदर्य को देख भूप सिंह ने यहां रहने का निर्णय लिया और वहीं अपने लिए मकान बना दिया। कुछ समय पश्चात पंडित जी बरैण्या से भटवाड़ा चले गए और भूप सिंह गढ़ अथवा गहड़ (ठेला के निकट) में बस गए, लेकिन वहां हड्डिया भैरू पक्का और दुमंजिला मकान नहीं बनाने देता था, अतः भूप सिंह ने अपना स्थायी आवास ठेला गांव में बना लिया। पहले यहां ठेलियाल जाति के लोग थे, बाढ़ के कारण ये लोग अन्यत्र चले गए थे, इसलिए ठेलियालों के कारण इस गांव का नाम ठेला पड़ा।
भूप सिंह अपने पैतृक और पंरपरागत मान-सम्मान, स्वाभिमान, मर्यादा ऐशो-आराम के साथ यहां जीवन व्यतीत करने लगे। इनके राजपूती ठाठ-बाट और गांव की रौनक के कारण यह गांव चर्चित हो गया। कुछ समय पश्चात भूप सिंह राणा पर उनकी कुलदेवी ज्वाला मां अवतरित हो गई। उन्हें यहां प्रतिष्ठापित कर दिया गया। फिर भूप सिंह पर अपने बड़े भाई विजय सिंह की आत्मा अवतरित हुई। भूप सिंह का वंश बढ़ने पर धीरे-धीरे अन्य परिजनों की आत्माएं भी राणा लोगों पर अवतरित होने लगी। मंडाण का आयोजन कर इन आत्माओं को उसमें नचाया जाने लगा। गांव में प्रत्येक वर्ष भिन्न आयोजन (एक साल आठवाड़ अर्थात अष्टबलि, एक माल पंडवार्त) होने के कारण चौथे वर्ष रणभूत नृत्य का प्रावधान किया गया। अब रणभूत नृत्य के वर्षों का अंतर और लंबा हो गया है। इस रणभूत नृत्य में दो प्रतिरोधी रसों, वीर एवं करुण का सुंदर प्रदर्शन होता है। हर पश्वा (पात्र) अपने चरित्रों का सुंदर और सशक्त चित्रण प्रस्तुत करता है।
रणभूत नृत्य जागर का आरंभ राणा शासक सबसे बड़े भाई सोहन सिंह के पश्वा द्वारा श्रीगणेश भगवान, पंचनाम देवताओं, सूर्य, चंद्रमा, पृथ्वी, आकाश, नगेला, ज्वाला देवी और सोहन सिंह के साथ मारे गए परिजनों को धूप की आरती (धुपाणा) किए जाने के साथ होता है। वह धूप देते हुए कहता है:-
आरती डुलोंदू मई खोळी का गणेश
आरती डुलोंदू मई पंचनमा देवतौं
आरती डुलोंदू मई दिन का सूरज
आरती डुलोंदू मई रात का चंद्रमा
आरती डुलोंदू मई धरती आसमान
आरती डुलोंदू मई अपणा वंशी भूमिया नगेला
आरती डुलोंदू मंई कुलदेवी ज्वाला
आरती डुलोंदू मई अपणी जिया बई
आरती डुलोंदू मई अपणी राणी बौराणी
आरती डुलोंदू मई सात भाइयों कुंवर
आरती डुलोंदू मई बैंण सोनदेई
आरती डुलोंदू मई छै मैना का बाळा।।
इसके पश्चात जागरी द्वारा वीर रस पूर्ण आह्वान के साथ राणा शासकों के शौर्य- साहस-पराक्रम का बखान किया जाता है:- तुम सूर्य वंशी छन मर्दो
तुम राणों का वंश का छन मर्दो
तुम कैलाखुरी का राणा छन मर्दो
तुम राजों का रौतेला छन मर्दो
तुम बैरी का बैरी छन मर्दो
तुम्हारी आंणी छन मर्दो
तुम्हारी दुहाई छन मर्दो। -2
रणभूतों के अवतरण के पश्चात् सभी पश्वा तलवारों के साथ नृत्य करने लगते हैं। यह नृत्य सांसें थमाने वाला होता है। इस दौरान ज्वाला देवी-नगेला भी अवतरित होते हैं। राणा बंधुओं का तलवार साधने का प्रदर्शन आश्वर्यचकित करता है। बताने है कि इनमें एक तलवार वह है, जिसे भूप सिंह राणा अपने साथ लाए थे।
अभिनय की दृष्टि से यह रणभूत नृत्य बड़ा महत्वपूर्ण एवं आकर्षक होता है। इसमें कही महत्वपूर्ण गतिविधियां अथवा प्रसंग दिखाए जाते हैं, जो घटनाएं सोहन सिंह क शासन काल में घंटे थे। तलवार साधने के साथ ही इसमें मुगल शासक द्वारा भेजे गए सदेश और उसके बाद की घटनाएं प्रदर्शित होती हैं। छठे दिन के मंडाण में दिखाया जाता है कि सभी भाई चौसर खेल रहे हैं, तभी मुगल शासक की ओर से अधीनता स्वीकार किए जाने के आदेश का संदेश कैलाखुरी रियासत को मिलता है। वे उसे प्रत्युत्तर दे देते हैं। मुगल शासक संघर्ष की घोषणा कर देता है। रणभूत नृत्य आयोजन स्थल पर लाल झंडा गाड़ा जाता है, जो मुगलों के संघर्ष छेड़ने का प्रतीक है, उसे विजय सिंह का पश्वा एक ही तलवार से काट डालता है। सभी भाई मूच्छिंत होकर गिर पड़ते हैं। बंदूक से गोली चलाने पर सभी चेतन हो उठते हैं।
यह प्रसंग और दृश्य बड़ा मार्मिक-कारुणिक होता है। यहां पर पश्वों पर जो रणभूत अवतरित होते हैं, उनकी भाव भंगिमाएं साहसिक और वीरत्व वाली न होकर घरवा भूत-हत्याओं वाली होती हैं। सभी भाई आपस में गले मिलकर मार्मिक विलाप करते हैं। सर्वाधिक विलाप और पश्चाताप विजय सिंह की आत्मा करती है। वह दिल्ली दरबार को कोसने के साथ ही उसे शाप देता है और अपने परिजनों की मृत्यु के लिए मुगल शासन के साथ ही स्वयं को कारण बताते हुए अपने जन्म को भी सौ बार आप देता है:-
कख होलि मेरी जिया बई
कख होली मेरी राणी बौराणी
चौहान्या बौराण रस्वाडू झल्योणी होली,
कख होली पल्या राणी?
छै मैना का बाळा भूख लगी होली
रोणू होलू भैजी बिबताणू होलू
कख होला मेरा भैजो सोहन सिंह?
सिर का छतर छया भैजी आदर सम्मान
कख होला मेरा सात भाई कुंवर
भूख होला प्यासा होला मेरा भाई कुंवर
कख होली मेरि बैंण सोनदेई।
सात भाइयों की लाडी छई बैण सोनदई
शत जाया सरापी दिल्ली दरबार
जैन आप हमु यू दिन दिखलाई
सत जाया सरापी भैजी मेरा जन्म
जैन अपणों कि भैजी हत्या करी।
जिया है मारी मैन सात भाई कुंवर
राणी बौराणी मारिन मैन बाप समान भाई
छै मैना के बालू मैन चौरा थिड़ी मारी
गुद्दी को पचाग भैजि आसमान गैन
छड़ी चौकीदार मारि मैन कछड़ी दीवान।
सत जाया सरापी भैजी दुश्मनों का बंगश
जौन यनु भैजी कारज कराई
सत जाया सरापी भैज दिलि दरबार
सत जाया सरापी भैजी अकबर बदशाही।
इस करुण क्रंदन के बीच विजय सिंह की मां, दोनों बहुओं, बहन सोनदेई की आत्माएं भी अवतरित हो जाती हैं।
भाई सोहन सिंह अब विजय सिंह को धैर्य और सांत्वना देते हैं कि भाग्य में लिखा भला कौन टाल सकता है? तुमने जो भी किया यह कोई अपराध नहीं, बल्कि तुमने अपनी कुल मर्यादा के लिए यह कदम उठाया:-
रुआंसु नि होंणु किस्मत की बात
विधाता कु लेख्यूं क्वी मिटे नि सकद हाथ
रुआंसु नि होंण नि कन मन छोटू
हमु छन भैजि क्षत्रिय बंगश
देश धर्म की खातिर मरणू हमारु धर्म
कुल का खातिर नि च भैजी जान प्यारी
तुमुन जु करि भैजी कुल कि खातिर करी।
रणभूत नृत्य में सती माता का अवतरण जहां प्राचीन सती प्रथा का प्रतिबिंबन करता है, वही उसके करुण विलाप से दर्शक श्रोताओं की आंखें नम हो जाती हैं। जनश्रुति है कि ठेला गांव के राणा परिवार से एक स्त्री बहुत पहले अपने पति की चिता में सती हुई थी, किंतु दो बच्चों पर मोह के कारण उसकी आत्मा भूतों के रूप में अवतरित होने लगी। राणा लोगों ने राजपूत प्रथा की सती प्रथा का निर्वाह करने वाली इस स्त्री के इस साहसिक कदम और शौर्य को अमर रखने के लिए उसे रणभूतों  के साथ नचाने का निर्णय किया। रणभूतों से पूछा गया, उन्होंने भी इसकी स्वीकृति दी। तब से रणभूतों के साथ सती भी नृत्य करती है। बताते हैं कि पति की मृत्यु के बाद वह भी पति की चिता पर सती होना चाहती थी, क्योंकि उसने अनेक क्षत्राणियों के सती होने की चर्चाएं सुनी हुई थीं। गांव के लोगों ने उसे ऐसा न करने के लिए समझाया, क्योंकि उसके दो बच्चे थे, उसके सती होने पर इन बच्चों के पालन-पोषण की समस्या खड़ी हो जाती। वह तब तो लोगों के कहने पर मान गई लेकिन जब उसके पति के पार्थिव शरीर को चिता पर रखने की तैयारी हो रही थी, वह घर से निकल गई। रास्ते में एक स्थान पर उसे अकस्मात् अपने बच्चों का ध्यान जागा, इस मोह में उसके कदम वहीं ठिठक गए। यहां पर वह किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में हो गई। वापस जाए तो किस मुंह से और सती हो जाए तो बच्चों को चिंता। वहां रास्ते के निकट खेत में कुछ महिलाएं गुड़ाई कर रही थीं। उन्होंने इस महिला को मनःस्थिति भांप उसे सती होने को प्रेरित किया। उन्होंने उससे कहा कि वापस जाकर अपने खानदान की प्रतिष्ठा न गंवाना। वह महिला श्मशान घाट पर गई और पति की चिता में सती हो गई।
प्रसंग:-  गढवाली गाथाओं में लोक और देवता (डॉ. वीरेन्द्र सिंह बर्त्वाल की पुस्तक के अंश) 
क्रमश:- अगले अंक में ….
Himalayan Discover
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