Saturday, July 27, 2024
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पौड़ी का घण्टाघर…! ईस्ट इंडिया कम्पनी का अट्ठारहवीं सदी का प्रमाण ।

पौड़ी का घण्टाघर…! ईस्ट इंडिया कम्पनी का अट्ठारहवीं सदी का प्रमाण।

(मनोज इष्टवाल)

पौड़ी में और घण्टाघर…! यह पढ़कर आप भी चौंक गए ना! लेकिन यह अकाट्य सत्य है कि पौड़ी में कमिश्नरी गठित होने से पहले ही यहां घण्टाघर का निर्माण हो गया था। और यह उस से भी बड़ा सच है कि यह घण्टाघर पौड़ी मुख्य बाजार में नहीं बल्कि पौड़ी बुबाखाल मोटर मार्ग पर बुवाखाल से लगभग 500 मीटर पहले ही डांडा पानी के नजदीक अपर गडोली में जिसे आज भी घण्टाधार ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा 1851 में स्थापित किया गया था।

इसकी प्रामाणिकता के लिए हमें विभिन्न ब्रिटिश लेखकों की पुस्तकों से सन्दर्भ लेना पड़ेगा। फिलहाल हम डॉ रॉयले द्वारा लिखी पुस्तक “इलेस्ट्रेशंस ऑफ हिमालयन बॉटनी” का सन्दर्भ ले सकते हैं। व इस सब को जानने ले लिए हमें 1835 से ईस्ट इंडिया कम्पनी का पौड़ी स्टेब्लिसमेन्ट देखना होगा जिसका जुड़ाव गडोली स्थित चाय बागान से है।

1835 में जब अंग्रेजों ने कोलकाता से चाय के 2000 पौधों की खेप उत्तराखंड भेजी तो उन्हें भी यकीन नहीं रहा होगा कि धीरे-धीरे बड़े क्षेत्र में विस्तार ले लेगी । सन 1838 में पहली दरमियान जब यहां उत्पादित चाय कोलकाता भेजी गई तो कोलकाता चैंबर्स आफ कॉमर्स ने इसे हर मानकों पर खरा पाया। धीरे-धीरे अल्मोड़ा, पौड़ी, देहरादून समेत अनेक स्थानों पर चाय की खेती होने लगी। आजादी से पहले तक यहां चाय की खेती का रकबा करीब 11 हजार हेक्टेयर तक पहुंच गया।

बर्ष 1827 में ईस्ट इंडिया कम्पनी के डॉ रॉयले ने लॉर्ड एमहर्स्ट को सलाह दी कि कुमाऊँ मण्डल की पहाड़ियों पर उन्नत किस्म की चाय का उत्पादन हो सकता है। इसका जिक्र उन्होंने अपनी पुस्तक “इलेस्ट्रेशंस ऑफ हिमालयन बॉटनी” में किया है।  डॉ रॉयले की सलाह पर लॉर्ड एमहर्स्ट ने सर जोसेफ बैंक्स, डॉ गोबन, डॉ बैलिच और डॉ फाल्कोनेर को इस पर अमल करने को कहा। सन 1834 में लॉर्ड डब्लू बैंटिक ने डॉ. बैलिच की अध्यक्षता में समिति गठित की।

ज्ञात हो कि कुमाऊँ कमिश्नर सर हैनरी रैम्जे की रिकमंडेशन पर ब्रिटिश सरकार (ईस्ट इंडिया कम्पनी) द्वारा 1839 में एक तहसील के रूप में स्थापित गढ़वाल को गढ़वाल मंडल जिला बना दिया व पौड़ी गांव की सरहद में 1940 में गढ़वाल कमिश्नरी की स्थापना हुई जिसके पहले डिप्टी कमिश्नर लुसिंगटन हुए। तब तक कमिश्नरी भवन न बन पाने के कारण उन्होंने अपनी पहली लोक अदालत पौड़ी गांव के लक्ष्मण सिंह नेगी के घर में लगाई जिसे उस दौर में पटवारियूं की हवेली नाम से जाना जाता था। उस दौर में पौड़ी पर अपने समाचार पत्र “गढ़वाली” के संपादक बिशम्बर दत्त चंदोला ने 15 अगस्त 1937 अर्थात लगभग 97 साल बाद पौड़ी शहर के बारे में लिखा कि तब पौड़ी 10-12 दुकानों का बाजार हुआ करता था। सडक के किनारे एक दो दुकानें नजीबाबाद, बिजनौर से आये जुलाहों की थी, इन दुकानों में गाढ़े कपड़े के थान जिन्हें “सोलगजा” और “बारगजा” कहते थे और मोटे कपड़े को सिलने के लिए मोटी सुइयां और धागे की गुच्छियां जिनको हाथ से बट कर सिलाई के काम लाया जाता था, रहती थी।

यह सब उदाहरण देने का सीधा सा अर्थ हम लगा सकते हैं कि तब तक हम लोगों का विकास कितना हुआ था।

बहरहाल लौटते हैं घण्टाघर की ओर…! गढ़वाल-कुमाऊं व सहारनपुर में वनस्पति वैज्ञानिक डॉ. फॉल्कनर  ने पौधालय विकसित किये। 1841 में गढ़वाल कुमाऊं में चाय की संभावनाएं देखते हुते 1842 में चाय निर्माता गढ़वाल व कुमाऊं पहुंचे। लेकिन इसी दौरान डॉ फाल्कनर का स्वास्थ्य खराब हुआ और उन्हें भारत छोड़ना पड़ा। बर्ष 1843 में पानी के जहाज से जब डॉ फाल्कनर इंग्लैंड पहुंचे तो वे अपने साथ कुमाऊं के कौसानी के बागों की चाय का नमूना अपने साथ लेकर गए थे जिसकी इंग्लैंड में जमकर प्रशंसा हुई।

ईस्ट इंडिया कम्पनी  द्वारा गढ़वाल कुमाऊँ के तत्कालीन कमिश्नर मिस्टर आर. फॉर्च्यून को सन 1848 में चाय की उन्नत किस्म विकसित करने के लिए चीन भ्रमण पर भेजा, जहां से वे गढ़वाल की भौगोलिकता के आधार पर 20 हजार काली व हरी चाय की पौध अपने साथ लाये। उनके साथ कुछ चीनी व्यवसायी बागान मालिक भी गढ़वाल-कुमाऊं आये। जिनमें 6 प्रथम श्रेणी चाय उत्पादक, दो कामगार प्रमुख मुख्य थे।

डॉ फाल्कनर ने 1851 में तीन चीनी व्यवसाइयों व एक स्थानीय व्यक्ति द्वारा पौड़ी के नजदीक करीब 3000 एकड़ से अधिक जमीन पर चाय के बागीचे लगाए। जहां ज्यादात्तर उन्नत किस्म की हरी चाय का कारखाना भी विकसित किया गया जिसमें गडोली क्षेत्र के स्थानीय मजदूरों ने काम किया व गडोली के चाय कारखाने की हरी चाय इतनी उन्नत निकली कि उसकी मांग इंग्लैंड व यूरोपीय कई देशों में होने लगी।

चाय बागान गडोली में चौफिन?


आज भी ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा बनाए गए प्रबन्धक आवास सन 1840 के लेकर अभी तक ज्यों के त्यों जिंदा हैं व उनमें लोग रह रहे हैं। यह आश्चर्यजनक है कि इनकी 180 बर्ष बाद भी जीरो मेंटिनेंस की गई है। उनका मानना है कि चौफीन कन्वर्टेड क्रिश्चियन नहीं बल्कि चीन से पहले अल्मोड़ा, कौसानी और बाद में पौड़ी गडोली आये चाय बागान एक्सपर्ट व्यवसायी असिवोंग के वंशज हैं। जिनका नाम अपभ्रंश होकर चौफ़ीन हो गया क्योंकि गढ़वाली जनमानस उसका सही उच्चारण नहीं कर पाए। असिवोंग को लोग असिफोंग व उनके पुत्र चाउवोंग चौफोंग बोलते थे। यही चौफोंग कब चौफ़ीन हुए इसका अपभ्रंश काल उन्हें भी नहीं पता। लेकिन इतना जरूर है कि इन लोगों ने हिंदुस्तान आते ही क्रिश्चियन धर्म अपना लिया था।

(घंटाधार में घण्टाघर का खंडहर)

पौड़ी का पहला घण्टाघर।

ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा चाय बागान गडोली में शुरुआती दौर में 3000 एकड़ जमीन पर चाय बागान लगाने के लिए निसनी गांव गडोली ही नहीं बल्कि आस पास के गांव से मजदूर जुटाने में बड़ी मशक्कत की। दरअसल ब्रिटिशस की नजर में गढवाळी आलसी थे व वे स्वाभिमान के साथ जीना पसन्द करते थे इसलिए वे मूलतः किसी की नौकरी करना पसंद नहीं करते थे। ऐसे में उन्होंने चीनी व्यवसायी की शादी इसी क्षेत्र की किसी शिल्पकार महिला से करवा कर एक तीर से कई निशाने साधे। एक तो चीनी व्यवसायी का घर परिवार बसा दूसरी ओर जितने भी गरीब निर्बल तबके के शिल्पकार थे उन्होने भी क्रिश्चियन धर्म अपनाना शुरू कर दिया।

डॉ योगेश धस्माना द्वारा सम्पादित पुस्तक “पौड़ी उनके बहाने” में वरिष्ठ पत्रकार हरीश चंदोला 1911-1912 में स्थापित मेसमौर स्कूल में अपने अध्ययन के जिक्र में लिखते हैं कि उस दौरान मेसमौर में पढ़ने वाले छात्रों की संख्या लगभग 300 थी। जिनमें में अधिकांश पौड़ी व आस पास के गांव से। हेडमास्टर थे जी ए चौफिन, जिनके परदादा को अंग्रेज सरकार ने चाय बागान लगाने के लिए चीन से बुलवाया था।  वे आगे लिखते हैं कि गुणानंद बहुगुणा जी ने चोपड़ा और चौफीनों कि छोटी सी गडोली रियासत, जोकि उनके परदादा को चाय बागीचा लगाने के लिए अंग्रेजों ने दी थी, के बीच पड़ने वाले डांडापानी के आस-पास (जहां कान्वेंट स्कूल है अर्थात वर्तमान में होमगार्ड ऑफिस के पास) एक मकान खरीदा था । शनिवार को स्कूल बंद होने के बाद हेडमास्टर जी ए चौफिन साहब अपने सफेद घोड़े पर सवार होकर चोपड़ा के बंगले से गडोली जाते समय गुनानन्द जी के घर के पास घोड़ा रोकते, उनसे बातचीत करते व घोड़े में ही खड़े खड़े चाय पीते। व खाली गिलास बाहर ही रखते। जिसे पहले बाहर धोया जाता था फिर सूखने के बाद दुबारा भीतर लेजाकर धोया जाता । उसका कारण सिर्फ यह था कि उनके दादा ने दलित महिला से विवाह किया था। भला उस जमाने में एक चीनी आदमी को कौन सवर्ण अपनी पुत्री देता। उस दौर की छुआछूत से ही अक्सर चौफिन परिवार को भी कन्वर्टेड हिन्दू ईसाई समझा जाता था।

यहां इस प्रसंग का जिक्र करना जरूरी इसलिए हो गया था ताकि हम जान सकें हेडमास्टर जी ए चौफिन साहब के परदादा असिवोंग थे, जिन्होंने हिन्दू दलित महिला से शादी की थी।

घंटाधार स्थित घण्टाघर भले भी वर्तमान में खंडहर में तब्दील है लेकिन बुजुर्गों का मानना है कि इस घण्टे की टंकार पौड़ी तक गूंजा करती थी जबकि यह स्थान पौड़ी से लगभग 4.5 किमी. (साढ़े चार किमी) दूरी पर अवस्थित हैं। चूंकि यह घण्टा मूलतः गडोली चाय बागानों में काम करने वाले मजदूरों के लिए उनकी समय सारिणी के आधार पर अवस्थित किया गया था अतः मेरा मानना है कि 1951 में सम्पूर्ण चाय बागान का जिम्मा सम्भाल रहे डॉ फॉल्कनर ने ही इसे स्थापित किया होगा। यह भी हो सकता है कि उस दौर के गढ़वाल कुमाऊँ कमिश्नर मिस्टर आर फॉर्च्यून ने इसे स्थापित करवाया हो।

इसके बाद पौड़ी में तीन और घंटाघर बने जिन्हें कभी घंटाघर नहीं पुकारा गया, इन में स्वतंत्र भारत का पहला घंटाघर एजेंसी चौक जिसे पूर्व में पंडित गोविंद बल्लभ पंत पार्क नाम दिया गया क्योंकि वहाँ उनकी मूर्ति स्थापित की गयी। दूसरा कमिशनरी के नज़दीक दूरबीन हाउस (कंडोलिया) तीसरा ज़िला अस्पताल से मात्र कुछ मीटर ऊपर कंडोलिया रोड पर…। लेकिन ये कभी रिकार्ड्स में घंटाघर दर्ज हुए भी या नहीं, यह कहना संभव नहीं। लेकिन अन्न गोदाम डांडापानी के पास गडोली जाने वाले कच्चे मार्ग पर ज़रूर घंटाघर था, उसे भी घंटाधार कहा गया जोक़ि अंग्रेजों के भारत छोड़ने के बाद चौफ़िन बंधुओं ने स्थापित किया था। लेकिन यहाँ घड़ी वाला घंटाघर था या फिर चाय बाग़ान की चौकी का घंटा …। कह पाना कठिन है।

बहरहाल अभी घण्टाधार में इसके खंडहर इस घण्टाघर में अवशेष की गवाही देते नजर आते हैं। लगता है पौड़ीवासी असमंजस में होंगे कि यह स्थान इतना ऐतिहासिक होने के बावजूद भी हम इसके बारे में क्यों नहीं जानते। इस स्थान से आप हिमालय की उतुंग गंगोत्री शिखरों का फैलाव देख सकते हैं जिसके आस पास फैले स्वर्गारोहिणी, बन्दरपूँछ, चौखम्बा, महालय, नीलकंठ व कामेट शिखर आपको भावबिभोर कर देती हैं।

रिसर्च सहायक –

(1- पांच किलोमीटर की पाठशाला मेसमौर इंटर कॉलेज से मांडाखाल तक। 2-पौड़ी उनके बहाने। 3- गढवाळी समाचार पत्र 1937। 4- मेम्योर ऑफ गढवाल। 5- द हिमालयन जर्नल।6- इलेस्ट्रेशंस ऑफ हिमालयन बॉटनी)

Himalayan Discover
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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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