Sunday, September 8, 2024
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पौड़ी गढ़वाल के चौन्दकोट क्षेत्र के पुरातन सिख और उनके गुरुद्वारे…!

(मनोज इष्टवाल ट्रेवलाग 29 जून 2016 )

मैं उस काल की बात कर रहा हूँ जब मेरे अंदर एक जूनून सवार हो गया था कि हद है हम जितनी भी किताबें पढ़ते आ रहे हैं, इतिहास ने सब मुगल आक्रान्ताओं को तो इतिहास के माध्यम से जीवित कर दिया लेकिन हमारे पुरखे क्या यहाँ घास छिलने के लिए पैदा हुए थे या फिर खाते-पीते कीड़े-मकोड़ों की शक्ल में पैदा हुए और वैसे ही मर गए! आखिर क्यों नहीं कहीं स्कूली सेलेबस में उनका जिक्र होता! और यदि जिक्र नहीं होता तब मेरे पिताजी, मेरी माँ या गाँव के बोड़ा, दादी जितने भी बुजुर्ग हैं वे कहाँ से ऐसी कथा-कहानियों को ले आते हैं जिन्हें सुनाते वक्त वे हुंकारते-फुंकारते सुनाते हैं- “माई मर्दान का चेला, ढवाया फुट्टी ग्येनी, पत्थर टुट्टी ग्येनी!” या फिर “तौंन मुंडूं का चौंरा चिणीन मर्दों, तौंन खूनी का घट्ट रिन्गैनी मर्दों! तौंकि जामौ की तैणी टूटींन मर्दों, तौं माई मरदू का चेलोंन मर्दों तख भंगुलो बुत्तण करियाली मर्दों!!”

गुरुद्वारा पीपली गाँव मवालस्यूं पौड़ी गढ़वाल फोटो-कविन्द्र इष्टवाल

ऐसी ही वीरगाथा की कथा कहानियों के सहारे सर्दियों की सर्द रात भट्ठ चबाकर व गर्मियों की चांदना में मसूर कळओं या मटर, चने की कच्ची फली चबाकर जाने कितने बर्ष इन कानों ने दिमागी फ्लोपी में घोट-घोटकर “सौल्या गौल्या, भंधौ असवाल, तैडी की तिलोखा, भौं रिखोला, लोधी रिखोला, नन्तीराम, हरि-हंसा हिंदवाण, धरमु रिंग्वडिया, भवानी सिप्पे, भगतु-पत्वा, भोंपू असवाल, भौर्या भुम्याल, निगुरु भर्स्वारी, पंवरी वीणा, रौंतेली तीलू, सात भैय्य कफोला, आठ भैय बुटोला, दुनळया कालू भंडारी, हीति गुसै, माडू थैर्वाल, चम्पू हुडिक्या, घिमुडू बद्दी, छुम्मा बदीण, सिरताज सिख, पिपल्या- बगडवळया सिरदार, हलूणया सिरदार अर रीठाखाल, पुर्या नैथाणी जैसी सैकड़ों कहानियां जो सिर्फ पौड़ी गढ़वाल व उसके इर्द-गिर्द ही थी व सभी ऐतिहासिक घटनाओं से सम्बन्धित थी! फिर ऐसा क्या हुआ कि ये तब से लेकर अब तक अँधेरे की गर्त में ही गुमनाम जिन्दगी जीती रही!

इन्हीं सबकी तलाश में आखिर मैं निकल ही पडा उस अंधेरों को उजालों का जामा पहनाने एक जनवरी बर्ष 1988 को! एक तो नयी-नयी जवानी का जोश..दूसरी जेब की कड़की और तीसरी अपने पूर्वजों के इतिहास को जानने की हुड़क ने आँखों के आगे एक किताब की रूप रेखा तैयार कर डाली ! जिसे मैंने अपने आप ही नाम दे दिया “ब्रिटिश गढ़वाल के इतिहास में थोकदारों की भूमिका!” बेरोजगार व कंगाल जेब के सहारे मैंने तय कर लिया कि जैसे भी हो मैं पूरा ब्रिटिश गढ़वाल छान मारूंगा और ऐसे दस्तावेज इकठ्ठा करूंगा जिसे पढने के लिए सब बेसब्री से इन्तजार करें! यह कार्य प्रारम्भ करने की तिथि थी 1 जनवरी 1988….! नहीं बल्कि 29 जनवरी 1988 थी! अर्थात लगभग 28 बर्ष पूर्व! डेढ़ साल झक्क मारने के बाद एक दिन सारे कागज झोला किसी जीएमओ की बस में छूट गया और सारे अरमान भी उसी के साथ स्वाहा..! बहुत फफक-फफककर रोया था मैं! लेकिन हूँ दिल का राजा …बात आई गयी हो गयी और मैं भी दिल्ली प्रवासी जीवन जीने को मजबूर…!

पीपली गाँव मवालस्यूं स्थित सिख नेगियों का गुरुद्वारा

आज लम्बे समय बाद जब मवालस्यूं पीपली पहुंचा तो पुरानी यादें ताजा हो गयी! मुझे उस समय बड़ा ताजुब हुआ था जब मैं “ब्रिटिश गढ़वाल के इतिहास में थोकदारों की भूमिका” नामक अपनी पुस्तक के लिए शोध कार्य हेतु गॉव-गॉव भटक रहा था! आश्चर्य इस बात का हुआ कि अपने गढ़वाल में बिन पगड़ी के सिख हैं और उनके गुरुद्वारे भी हैं, जिनकी रिश्तेदारी गढ़वाल की सभी अन्य राजपूत जातियों से होती है!

हमारे पुरखों के गॉव नौखंडी की धार में बसा सिख नेगियों का यह गॉव पीपली विकास खंड एकेश्वर, जिला पौड़ी गढ़वाल मेरे लिए उस उम्र में हैरत का विषय बना जब मैं अच्छा ख़ासा बांका जवान था! मैं जब पहली बार अपने पुरखों के गॉव गया जहाँ से हमारे झड़ दादा पलायन कर पहले इसोटी, फिर कुलाणी फिर डोबल्या और अंत में उनके पौते धारकोट कफोलस्यूं पौड़ी गढ़वाल आ बसे, तो वहां गिरधारी लाल इष्टवाल ताऊजी से मुलाक़ात हुई जो जितने बड़े शिल्पी थे उतने ही ज्यादा जानकार भी ! उन्ही ने सिखों की ब्रिटिश गढ़वाल में उपस्थिति की जानकारी देते हुए कहा कि जब गुरुनानक गढ़वाल भ्रमण पर आये तब यहाँ गोर्ला थोकदार यानि कि तीलू रौतेली के दादा जी ने उन्हें अपने इलाके में शरण दी थी व उनके साथ आये कई सिख लड़ाके अपने परिवार सहित यहीं बस गए जिनमें पीपली गॉव (पीपल के पेड़ के नीचे गुरुनानक बैठे थे) में सर्व प्रथम सिख नेगी बसे तदोपरांत रीठाखाल में उन्होंने अपना कई साल प्रवास रखा जहाँ उनके शत से आज भी मीठा रीठे का पेड़ मौजूद है उनके अनुयायी यहाँ भी हलुणी गॉव बसे! इसके अलावा कुर्ख्याल गॉव सहित दो तीन अन्य गॉव चौन्दकोट के हैं जहाँ आज भी सिख नेगियों के गुरुद्वारे हैं! यही नहीं असवालस्यूं कुमाईगाँव, गुमखाल के निकट गूम गाँव, दुधारखाल के निकट कांडई गाँव इत्यादि में भी इनके गुरुद्वारे हैं! सिर्फ कुर्ख्याल एक अपवाद है जहाँ सिख नेगियों का कोई गुरुद्वारा नहीं है जबकि रीठाखाल के मीठे रीठे गुरुनानक देव के कारण प्रसिद्ध रहे! ये सब आज गढ़वाली समाज के रीति रिवाजों में रच बस गए हैं लेकिन फिर भी ये गुरु-महाराज का ध्वज बुलंद किये हुए हैं!

रीठाखाल के पास पाळी गॉव की गोद में बसा एक और छोटा गॉव बिन्जोली है, वहां भी सिख धरम का गुरुद्वारा है! ये गुरुद्वारा भले ही छोटे हों लेकिन इनकी बनावट बिलकुल अन्य गुरुद्वारों की तरह है! कुर्ख्याल गॉव की सरहद यानि गॉव के बेहद पास गुरुनानक जी ने अपना ढेरा जमाया था जहाँ वर्तमान में इकलौता मीठे रीठे का पेड़ है लेकिन और यहीं कालांतर में कई सिख नेगियों ने वास भी किया लेकिन गुरु का वास होने के कारण यहाँ ये टिक नहीं पाए और इन्हें बिन्जोली तथा हलुणी गॉव बसाने पड़े! कुर्ख्याल के देवेन्द्र सिंह रावत बताते हैं कि अब इस गॉव में सिर्फ पनसी नेगी रहते हैं! वहीँ सुनयना नेगी, हयात भंडारी बताती हैं कि कोट्द्वार कुम्भी चौड में भी सिख नेगी रहते हैं जो हैं तो गढ़वाली लेकिन सिखों की तरह हाथ में कड़ा धारण करते हैं व गुरुद्वारे में जाते हैं! वहीँ दस्तक के दीपक बेंजवाल जी बताते हैं कि गुठरता गॉव जो पौड़ी गढ़वाल में पड़ता है वहां भी सिखों का गुरुद्वारा है! एनडी टीवी के पत्रकार दिनेश मानसेरा जी का कहना है कि हेमकुंड साहिब का निर्माण पहाड़ में बसे सिख धरम के अनुयायियों ने ही किया था जिस से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि भ्युंडार घाटी चमोली गढ़वाल में भी सिख नेगियों की बसासत है!

बहरहाल इस लेख को लिखने का मेरा यही मकसद है कि आज भी वह कशिश मुझे कचोटती है कि ऐसे कई भड़ो की वीर गाथाओं का शोधपूर्ण संकलन करने के बाद भी मैं कुछ नहीं कर पाया हूँ! सबसे ज्यादा शोध अगर मेरा किसी जाति पर उस काल में किया हुआ था तो वह असवाल जाति थी ! वही ताडकेश्वर की कहावत की तरह- “असवाल जात, कन्नार का पात और तेल का हात!”

गुरुद्वारा हलूणी गाँव!

सिख नेगियों के गाँव हलुणी के बारे में प्राप्त जानकारी के अनुसार यहां वर्तमान में 85 परिवार रहते है जिनमें पलायन की जद में आने वाले कई परिवार गाँव छोड़कर शहरों में जा बसे हैं! गांव के  बुजुर्गो के अनुसार सत्रहवीं सदी में उनके पूर्वज सरदार दयाल सिंह पंजाब से अपने मित्र से मिलने गढवाल आए और यहीं के होकर रह गए! तब उन्होंने यहां गुरुद्वारे की स्थापना की ! धीरे–धीरे उनके वंशजों ने समय के साथ पहाड़ी रीति-रिवाज अपना लिये! ग्रंथी सरदार मनवर सिंह नेगी बताते है| ‘हलुणी के वाशिंदों में सेवाभाव के साथ ही श्रमदान की परंपरा है! वहीँ दूसरी ओर हलुणी गाँव गुरुद्वारा प्रबंधक समिति के अध्यक्ष सेवानिवृत्त कैप्टन नैन सिंह नेगी बताते है ‘गुरु नानक देव जी व गुरु गोविंद सिंह जी के प्रकाशत्सव के अलावा नई फसल, तीज-त्योहार, शादी-ब्याह और हर खुशी के मौके पर गुरूद्वारे में झंडा चढ़ाने के साथ ही भंडारे का आयोजन किया जाता है! गांव में शादी-ब्याह हो या अन्य उत्सव सारे कर्मकांड पंडित के हाथों संपन्न होंगे ! साथ ही गुरुद्वारे में गुरुवाणी का पाठ भी होगा| मृत्यु के कर्मकांड में तेरहवीं से लेकर बरसी तक में हिंदू रीति अपनाई जाती है, लेकिन केश की अनिवार्यता के चलते बाल नहीं मुंडवाए जाते! 

ज्ञात होकि गुरु नानक देव जी ने अपने प्रिय शिष्य मरदाना के साथ लगभग 28 सालों में दो उपमहाद्वीपों में पांच प्रधान पैदल यात्राएं सहित 28 हजार किमी. की यात्राएं की थी। जिन्हें उदासी के नाम से जाना जाता है। उन्होंने तकरीबन 60 शहरों का भ्रमण किया। चौथी और अंतिम उदासी में गुरु जी ने अपने शिष्यों को साथ लिया, हाजी का भेष धारण किया और मक्का यात्रा के लिए रवाना हो गए। इससे पहले उन्होंने बहुत सारे हिंदू, जैन और बौद्ध धर्म के तीर्थस्थलों पर भी दर्शन किए थे।

उम्मीद की जा सकती है कि आने वाली पीढ़ी के नौनिहाल या राजनेता यह जरुर कोशिश करेंगे कि हमारे पूर्वजों की वीरता का इतिहास इतिहास की पुस्तकों में स्कूली छात्र पढ़ें जिस से हमें गर्व हो कि हमारे वंशजों ने भी बिषम परिस्थितियों में अपनी तलवारों के जौहर से इतिहास के स्वर्णिम पन्ने रंगे हैं!

Himalayan Discover
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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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