मई 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद जर्मनी से गाँव लौटे मेरे पिता जी.. युद्ध की यादगार में लालटेन लेकर लौटे थे।
(मनोज इष्टवाल)
यह लालटेन…। जर्मनी कम्पनी Feurehand ने कब ईजाद की इस बारे में मुझे ज्यादा पता नहीं है। हाँ बस इतना पता जरूर है कि लालटेन लगभग सन 1412-13 में इंग्लैंड में सर्वप्रथम बनाई गई थी उसका स्वरुप क्या रहा होगा ये मुझे नहीं पता. शायद इसीलिए लालटेन शब्द अंग्रेज़ी के लॅन्टर्न शब्द का अपभ्रंश है।
आज तब आश्चर्य हुआ जब भाई साहब (श्री गिरीश चंद्र इष्टवाल)ने मुझे कहा कि तूने वह लालटेन तो संभाल दी थी ना जो पूजा के दौरान तूने हाथ में रखकर दिखाई थी। मैंने कहा – नहीं भाई साहब। तो वे मुझ पर भड़क गए और बोले – अरे बेवकूफ..! मैं तुझे क्यों कह रहा था कि उन्हें संभाल देना। तूने संभालने की जगह कबाड में दे दिए। अरे उनमें से सबसे महत्वपूर्ण तो वह लालटेन थी जिसे तेरे पिता जी सैकेंड वर्ल्ड वार समाप्ति के बाद जब पहली बार 1946 में गाँव छुट्टी आये थे। तब लाये थे। हमने 1974-75 तक उसी के प्रकाश में पढ़ाई की। वे निराश होकर बोले – ये तूने क्या कर दिया। मैं हत्तप्रभ रह गया, क्योंकि मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि उन तीन पुरानी लालटेन में से एक जर्मन मेड फ्यूरेहैंड कम्पनी की वह लालटेन भी थी जो अब लगभग 78 बर्ष पुरानी हो गई होगी व उससे हमारी समृद्धि का इतिहास जुडा होने के साथ साथ मेरे पिता जी की वह अनमोल निशानी थी।
भैजी उस लालटेन का संस्मरण सुनाते हैं कि वह पूरे गाँव ही नहीं बल्कि क्षेत्र में पहली लालटेन आई थी। ऐसा उन्हें हमारी छोटी दादी दर्शनी देवी बताया करती थी।
भाई साहब बताते हैं कि बड़े भाई साहब स्व. योगम्बर प्रसाद जी व वे घर के तिखंडा (तीसरे माले के कमरे में) वाले कमरे में पढ़ाई के समय उस लालटेन का इस्तेमाल करते थे। बाद में मैंने भी उसी कमरे में पढ़ाई की लेकिन तब तक लैंप आ गए थे, इसलिए हमें लालटेन इस्तेमाल करने की जरूरत इसलिए भी नहीं पढ़ी क्योंकि उसकी हांडी फूट गई थी व वैसी गोलाकार हांडी जल्दी से उपलब्ध नहीं होती थी।
क्योंकि मेरे पिता जी की सेवानिवृत्ति के बाद मेरे ताऊ जी लगभग 38 बर्ष की उम्र में सीआरपीएफ में भर्ती हुए थे। तब यह पिताजी की ड्यूटी होती थी कि दोनों भाईयों की पढ़ाई का ध्यान दें। भैजी अपनी यादों को ताजा करते हुए कहते हैं कि तब हम दो दो कनस्तर जोड़कर 06 फुटे तख़्त बिछाकर सोया करते थे। दादी के लिए निवाड़ की चारपाई हुआ करती थे। वे ज़मीन में तिथुलू यानि रिंगाल की चट्टाई बिछाया करते थे जिसे ताऊ जी (स्व. आदित्यराम इष्टवाल) पिठौरागढ़ से लाये थे। फिर उसके ऊपर काली सफ़ेद भेड के ऊन से बुने हुए दन बिछाकर एक पीड़ा के ऊपर लालटेन रख कर पढ़ाई किया करते थे । ठीक नौ बजे रात्रि पहर मेरे पिता जी स्व. चक्रधर प्रसाद उनके कमरे में पहुँचते व डेली रूटीन में कभी सुख सागर, कभी रामायण तो कभी महाभारत के पाठ पढ़ा करते थे। भैजी बताते हैं कि अक्सर चाचा जी अर्थात मेरे पिता जी… जब पंचायती आँगन में थड़िया, चौंफला, बाजूबंद, झुमेलो या फिर मंडाण लगता था तब हमारे आवजी स्व. शत्रु दास भैजी पिता जी को हाथ जोड़कर बोला करते थे – मम्मा, अब म्यारा ढ़ोल बजै-बजैकि बौन्फर दुखण बैठी गेनी..जरा मी ठौ खाणी द्यावा, तुम भड़ वार्ता/भारत सुणावा तक तकन (मामा, अब मेरे ढ़ोल बजा -बजा कर बांहे दुखने लगी हैं, जरा मुझे आराम करने दो तुम तब तक सबको भड़ वार्ता/भारत सुनाओ दो । तब पिता जी दाँयें कान में हाथ रखकर बीच आँगन में जल रही आग जिसे आजकल हम बोन फायर कहते हैं, के चारों ओर चक्कर लगाकर दाँए हाथ को कान के ऊपर रखकर गाया करते थे) –
माई मरदान का चेला, सिंघणी का जाया। सोल्या अर गौल्या द्वी भाई ह्वेनी…। (उधर शत्रु दास भैजी बैठे बैठे एक हाथ से ढ़ोल पर थाप देते और दूसरे हाथ से भीम ताल बजाते).. धिगिन.. धिगिन.. धिगिन ताss ता ता धिगिन धिगिन धिगिन । और गाँव के लोग पंचायती आँगन की दीवारों में बैठकर उस वार्ता को सुनते जिसे भारत कहा जाया था) तब प्रकाश के लिए सिर्फ आँगन के बीचो-बीच जल रहा बोन फायर हुआ करता था। फिर भैजी बोलते थे कि चाचा जी (मेरे पिता जी स्व. चक्रधर प्रसाद इष्टवाल) जब आगे शुरु करते हुए कहते थे – सिंघणी का जाया.. ढवाया फुट्टी गेना, पत्थर टूटी गेना। ताऊँ माई मर्दान का चेलों न खूनी का बांजा घट्ट रिंगैना। ध्याखा धौ बल.. तौन घट्ट का ऐंच बैठी, मुंड का जुन्वाँ बिरैना,…!ध्याखा धौंs बल.. भुज्यां भट्ट ठूँगणा छन, छयोंतौ का म्याला भुखाणान अर पर्र -पर्र पदणा भि छन।
फिर भैजी को याद आया और बोले – यार, उस लालटेन से हमारी कितनी यादें जुडी थी, तुझे क्या बताऊं। हम उसे राख़ से मांजते थे तो वह शीशे ले मानिन्द चमकती थी और हाँ ऐसे में कई बार लालटेन की कांच की हांडी लुढ़क भी जाया करती थी लेकिन वह कभी नहीं फूटती थी।
यकीनन ज़ब मैंने यह सब भाई साहब के मुंह से सुना तो लगा मैंने पिता जी की वह खूबसूरत याद मिटा दी जो हीरक जयंती मना चुकी थी।
फिर बिषय से भटककर वे पंचायती आँगन पहुँच जाते हैं और बताते हैं – चाचा जी, के बाद यह कला भी बदलते सामाजिक परिवेश में मिट गई लेकिन प्रिमी भाई (प्रेम सिंह नेगी जी) ने इस विधा को जरूर आगे बढ़ाने का भरसक प्रयत्न किया लेकिन आज का समाज भला कहाँ वह विधा अंगीकार करता जिसने मंडाण की भाषा बदल दी, जिसने थडिया, चौंफला, बाजूबंद, झुमेलो भुला दिए तो भला वह भड़ वार्ता या भारत कहाँ याद रखते।
फिर लालटेन पर लौटकर भैजी कहते हैं। वह लालटेन अद्भुत थी उसके हैंडल के पाए एक चरखी हुआ करती थी जिससे लालटेन का ऊपरी हिस्सा और ऊपर चला जाता था और तब हांडी बड़े आराम से बाहर निकाली जाती थी। अरे यार… तूने सचमुच एक विरासत यूँही गँवा दी। यह सब सुनने के बाद मुझे कैसा लग रहा होगा, यह महसूस किया जा सकता है।