ताराकुंड रहस्य पार्ट -3 ! टोली माई… दो बेटियों के फांस खाने के बाद की यह साध्वी।
(मनोज इष्टवाल 14-11-2022)
वह बमुश्किल तब 12 या 13 बर्ष की रही होंगी जब बाबुल का घर छोड़ अपने पति के घर सम्पूर्ण जीवन न्यौछावर करने जा पहुंची। अतीत ने उन्हें क्या कुछ दिया व क्या कुछ छीना यह तो अतीत के गर्भ में ही छिपा है लेकिन एक लंबी जिंदगी में सबसे दुःखद व असहनीय पल उनके लिए तब थे जब एक के बाद एक उनकी दो बेटियों ने फांस लगाकर आत्महत्या की। उन बेटियों की उम्र क्या रही होगी यह बता पाना सम्भव नहीं है लेकिन शिब इच्छा को भला कौन नकार सकता है। बेटियों के गम ने उन्हें इतनी बुरी तरह झकझोर दिया कि वह पगलाई सी अपनी बेटियों को ढूंढने जंगल-जंगल गाँव-गाँव भटकती व सबसे पूछती उन्होंने उनकी बेटियां भी देखी। उनके इस दुःख को देख सब द्रवित हो उठते। माँ बहनों के आंसू छलक पड़ते लेकिन उन्हें कौन समझाता कि उनकी दोनों मासूम बेटियां तो भगवान के पास जा पहुंची। सच में विधाता भी कभी कभी कितना निर्दयी हो जाता है।
बहुत समय हुआ अचानक यह पगलाई महिला किसी को नहीं दिखती लेकिन वह बरसात का समय था जब बड़ेथ गांव के ग्वाले अपने पशुओं के साथ ताराकुण्ड के रह-बासे पर पहुंचे तो पाया एक गुफा से धुंवा उठ रहा है। जाकर देखा तो वहां अब पीले वस्त्रों में एक साध्वी दिखाई दी। जो ऊंचे कान सुनती थी। नाम किसी को पता नहीं, इसलिए उनका नाम रख दिया टोली माई….!
टोली माई की गुफा….!
तालू भंडार गुफा से बमुश्किल सौ कदम नीचे की ओर रास्ते के एक छोर में टोली माई की गुफा है। आम जन मानस का कहना है कि टोली माई ने अपने जीवन के 20 से 25 साल इसी गुफा में बिताए व यहीं अंतिम सांस भी ली। माई की समाधि भी गुफा के मुख्य द्वार पर ही बनाई गयी है। टोली माई के बारे में पूर्व प्रमुख शंकर सिंह रावत (बड़ेथ) बताते हैं कि टोली माई मूलतः नौडी गाँव कि थी। उनकी शादी हुई और दो बेटियाँ भी हुई लेकिन काल योग देखिये दोनों बेटियों ने फांस लगाकर अपनी जान गंवाई। टोली माई यह दुःख सहन न कर पाई व पगलाई सी जंगल-जंगल भटकने लगी। आखिर बर्षों बाद वह अपने को सम्भाल पाई, तब तक वह इस मायामोह वाले संसार से बहुत आगे निकल चुकी थी। उसने तालू भण्डार के नजदीक ही इस गुफा में आसरा बनाया व रहीं रहने लगी।
शंकर सिंह रावत कहते हैं कि अगर किसी का कोई जानवर खो जाता था तो वह टोली माई के पास गणत करवाने आता था। माई पत्थर पर रेखाएं खींचकर बताती थी कि उसका जानवर किस दिशा में है व वह सुरक्षित भी है या फिर जंगल के किसी हिंसक पशु ने उसका वध कर दिया है।
यह बड़े आश्चर्य की बात है कि जिस तालू भंडार गुफा में भालू, बाघ व अन्य हिंसक जानवरों के होने का डर बना रहता है, टोली माई उसके मुखद्वार के नजदीक ही रहती थी लेकिन कभी किसी हिंसक जानवर ने उन पर इस जंगल में हमला नहीं किया। ताराकुंड महादेव की भक्तिनी टोली माई का यथार्थ में क्या नाम था किसी को नहीं पता लेकिन उन्हें टोली माई इसलिए कहा जाता था क्योंकि वह बाद बाद में ऊँचे कान सुनती थी। लोगों का कहना था कि आते जाते छानियों में रहने वाले लोग टोली माई के गुजर बसर के लिए इसलिए अन्न दूध वगैरह माई को दे दिया करते थे क्योंकि माई उनके जानवरों की रक्षक के रूप में हमेशा उनकी मददगार साबित होती थी।
पूर्व खंड विकास अधिकारी आशाराम पंत बताते हैं कि टोली माई ने महादेव की सेवा में अपने को इतना तल्लीन कर दिया था कि उन्हें बाहरी दुनिया से कोई लेना देना नहीं था। उन्होंने शिब सिद्धि में अपने आप को पूरी तरह ढाल लिया था। वे कहते हैं कि टोली माई के बारे में लोग कहते थे कि वह गणत विद्या में बेहद पारंगत थी व जब कहीं किसी के प्रश्नों का हल नहीं निकलता तब लोग टोली माई की शरण में जाते थे।
टोली माई की दिनचर्या यह थी कि वह पूरा दिन ताराकुंड महादेव के शरण व चरण में गुजारती थी। कुंड से जल निकालकर महादेव लिंग व अन्य मूर्तियों को जल स्नान करवाना व घंटों इस निर्जन वन में अकेले ही महादेव से संवाद कायम करना व सूर्य देव के अस्तांचल के साथ गुफा में अपनी रसोई बनाना व फिर प्रातः जल स्नान कर पुनः दिन भर महादेव की शरण रहना यह किसी तप से कम नहीं है। टोली माई का साध्वी जीवन निर्विवाद रहा। उसे भोजन कहाँ से व कैसे प्राप्त होता था इस पर लोगों की अवधारणा है कि टोली माई के प्रति लोगों के मन में खूब आदर भाव था इसलिए जो भी जंगल की ओर जाता माई के लिए रसद व दूध घी दही मक्खन लेकर जाता व उससे माई अपनी दिनचर्या चलाती।
टोली माई की मृत्यु के बाद उसी गुफा में उनकी समाधि बनाई गयी व गुफा को बंद कर दिया गया ताकि जंगली जानवर उनके मृत शरीर को नुक्सान न पहुंचा सकें। लेकिन आज भी टोली माई के किचन का एक हिस्सा गुफा द्वार के पास दिखाई देता है।