Friday, July 26, 2024
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मुरादाबाद की भाँतू बस्ती में रहता है सुल्ताना डाकू का परिवार। क्या सचमुच फ्रेड़ी यंग सुल्ताना डाकू क़े बेटे को इंग्लैंड ले गया था!

मुरादाबाद की भाँतू बस्ती में रहता है सुल्ताना डाकू का परिवार। क्या सचमुच फ्रेड़ी यंग सुल्ताना डाकू क़े बेटे को इंग्लैंड ले गया था!

(मनोज इष्टवाल)

तराई भावर में ब्रिटिश शासनकाल में आतंक का पर्याय रहे सुल्ताना भाँतू (डाकू) को यूँ तो 14 दिसम्बर 1923 में गिरफ़्तार कर हल्द्वानी जेल में कैद किया गया था, सात माह बाद उन्हें आगरा जेल में शिफ्ट किया गया व 10 जून 1924 में आगरा जेल में फाँसी पर लटका दिया गया था। मुरादाबाद के भाँतू समुदाय की भाँतू कालोनी हरथला गाँव में जन्में सुल्ताना डाकू को कतिपय लोग सुल्ताना नाम से मुस्लिम मानते थे जबकि हम सब अच्छे से जानते हैं कि भाँतू समुदाय के लोगों का पूर्व में पेशा क्या था। उनके पोते व पड़पोते ही नहीं कालोनी के लोग भी उन्हें ग़रीबों का मसीहा कहते हैं व कुछ का कहना है कि अंग्रेजों के जुल्म के ख़िलाफ़ उन्होंने हथियार उठाये व अलग फ़ौज बनाई। कुछ का मानना है कि उन पर अंडा चोरी का आरोप लगा इसलिए वह डाकू बने। उत्तराखंड के ऋषिकेश से लेकर कुमाऊँ के सम्पूर्ण तराई भावर क्षेत्र पर एक समय सुल्ताना डाकू का राज चलता था। यों तो सुल्ताना का मुख्य कार्यक्षेत्र उत्तर प्रदेश के पूर्व में गोंडा से लेकर पश्चिम में सहारनपुर तक पसरा हुआ था।

सुल्ताना का जन्म मुरादाबाद जिले के हरथला गाँव में हुआ बताया जाता है अलबत्ता अन्य स्थानों पर उसका जन्मस्थान बिलारी और बिजनौर भी बताया गया है।

कहते हैं नजीबाबाद स्थित किले को सुल्ताना डाकू  ने अपना आशियाना अर्थात  छुपने  का स्थान बना लिए था। इस किले का निर्माण लगभग 400 वर्ष पहले नवाब नजीबुद्दौला के द्वारा बनाए गए इस किले के अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं और यह एक दिलचस्प तथ्य है कि आज उसे नजीबुद्दौला का नहीं बल्कि सुल्ताना का किला कहा जाता है. हालांकि सुल्ताना खुद को महाराणा प्रताप का वंशज मानता था उसका डीलडौल उसके इस दावे को खारिज करता था. वह छोटे कद का सांवली रंगत वाला एक मामूली आदमी था जिसके ढंग की दाढ़ी-मूंछें भी नहीं थीं. फिलहाल उसके मन में ठाकुरों के लिए अदब और सम्मान था जबकि व्यापारी वर्ग से वह नफ़रत करता था और उसी को अपना शिकार बनाता था. उसके गर्व और विद्वेष के दो उदाहरण इस तथ्य में देखे जा सकते हैं कि उसने अपने घोड़े का नाम चेतक रखा हुआ था और कुत्ते का नाम राय बहादुर रखा हुआ था।

कुत्ते का नाम राय बहादुर रखने क़े पीछे कतिपय लेखकों का मत है कि सुल्ताना डाकू ब्रिटिश सरकार से राय बहादुर की उपाधि लेने वाले भारतीयों को अंग्रेजों का चारण व खबरी कहकर संबोधित करता था व उनसे नफरत करता था। कहते हैं कि सुल्ताना डाकू क़े पास उस दौर क़े अत्याधुनिक हथियार हुआ करते थे व उसके डाकू दल में 300 से अधिक प्रशिक्षित डकैत शामिल थे।

खूनीबड़, मवाकोट कोटद्वार भाबर से जुड़े डाकू सुल्ताना क़े किस्से।

बताया जाता है कि सुल्ताना डाकू क़े जमाने में इस क्षेत्र में एक जागीर दार व एक मालदार हुआ करते थे। मालदार जोशी (पितृशरण जोशी पूर्व प्रधान मवाकोट क़े दादा) बहुत चतुर किस्म क़े व्यक्ति थे। उन्हें लूटने क़े लिए डाकू सुल्ताना ने दो बार चिट्ठी भिजवाई कि वह फलां तारीख उन्हें लूटने आ रहा है, तो पूरा परिवार घबरा गया व सारे क्षेत्र क़े लोग सुल्ताना डाकू क़े नाम से भयभीत होकर दिन में ही दुबक गये। पंडित जोशी ने माली की भेषभूषा बनाई  व डकैतों क़े लिए मुर्गा व भात बनाने पर जुट गये। जैसे ही अर्धरात्रि में डकैतों का जखीरा मालदार जोशी क़े यहाँ पहुंचा। पंडित जोशी  हाथ जोड़कर खड़ा होकर बोला – साहब, आपकी चिट्ठी मिलते ही मालदार साहब माल लपेटकर परिवार सहित पहाड़ क़े किसी गाँव चले गये व मुझे हुक्म दे गये कि मैं आपकी खातिरदारी में कोई कमी न छोडूं। आपके लिए भात मुर्गा बना है व रास्ते क़े लिए भी चार जिंदा मुर्गा आपको देने को कहा है। सुना है आप गरीबों क़े मसीहा हैं इसलिए मैं जान की परवाह न कर आपकी सेवा में लगा हूँ हुजूर…!

डाकू सुल्ताना व उसके साथियों ने दावत उड़ाई व ठहाके लगाते हुए बोला – चल पंडत… तुझे माफ़ किया। तेरी चतुराई मुझे पसंद आई। मैं तुझे पहले ही पहचान गया था लेकिन तेरे सेवाभाव से हम खुश हुए। अब तुझे नहीं लुटूंगा लेकिन दुबारा कभी इधर से आये तो तेरी दावत ख़ाकर ही जाएंगे।

दूसरा किस्सा कोटद्वार-भाबर क्षेत्र में जमीदार उमराव सिंह क़े बारे में प्रचलित है। बताया जाता है कि सुल्ताना डाकू ने करीब 1915 से 1920 के बीच कोटद्वार-भाबर के प्रसिद्ध जमीदार उमराव सिंह के घर चिट्ठी भेजी कि हम उक्त तारीख को उनके घर लूट करने आ रहे हैं। जागीरदार व जमीं दार उमराव सिंह को यह काफी नागवार गुजरा व उन्हें चिट्ठी पढ़कर बहुत गुस्सा आया। उन्होंने इसकी सूचना पुलिस को देने की योजना बनाई। भाबर से करीब 20 किमी दूर कोटद्वार में पुलिस थाना था। ठा. उमराव सिंह ने अपने घर में काम करने वाले एक व्यक्ति को चिट्ठी दी व कहा कि वह उनका घोड़ा ले जाकर कोटद्वार थाने में यह चिट्ठी देकर आ जा। उस दौर में भाबर से होते हुए कोटद्वार सनेह से कुमाऊं तक कंडी रोड थी। कुछ लोग बताते हैं कि कंडी रोड हिमांचल से हरिद्वार और कोटद्वार से कुमाऊं होते हुए नेपाल तक जाती थी। जो वन विभाग के अंतर्गत आती थी। इस रोड पर बैल गाड़ी आदि चलती थी। जिसमें सिगड्डी क्षेत्र क़े जंगलों से बांस काटकर ले जाया जाता था।

ठाकुर उमराव सिंह का नौकर जब घर से कोटद्वार घोड़े पर जा रहा था तब दुर्गापुरी के पास नहर किनारे सुल्ताना डाकू और उसके साथी नहा रहे थे। डाकू और उसके साथी एक विशेष वेशभूषा में होते थे, जो पुलिस की वर्दी की तरह लगती थी। सुल्ताना ने घोड़े पर किसी को जाते देखा तो उसे रोका. उसने कहा कि घोड़ा तो किसी जागीरदार का लग रहा है, लेकिन इस पर नौकर कहां जा रहा है। उसे शक हुआ तो कड़क आवाज में पूछा कि कहाँ जा रहे हो? नौकर को लगा यही पुलिस वाले हैं तो उन्हें सारा भेद बता दिया। डाकू सुल्ताना ने कहा – अच्छा हुआ हम यहीं  मिल गये वरना खामख्वाह तुम्हें कोटद्वार जाना पड़ता। कहो जागीरदार का क्या संदेश है? नौकर ने चिट्ठी सुल्ताना डाकू को थमा दी और घर लौट गया।  चिट्ठी पढ़ कर सुल्ताना भड़क गया।

नौकर के घर पहुंचने पर उमराव सिंह ने पूछा कि चिट्ठी दे दी पुलिस को और तू जल्दी वापस आ गया। उसने बताया कि पुलिस वाले दुर्गापुरी के पास ही मिल गए थे।  सुल्ताना भी वहां से सीधे उमराव सिंह के घर पहुंच गया और उन्हें गोली मार दी। और उनकी लाश लाकर गाँव क़े बड़ वृक्ष में टांग दी। तब से इस गाँव का नाम ही खूनी बड़ पड़ गया। भले ही ठाकुर उमराव सिंह क़े नाम पर आज भी उमरावपुर व उमराव नगर है लेकिन खूनी बड़ आज भी डाकू सुल्ताना क़े जुल्मों की कहानी सुनाता नजर आता है। जहाँ अमीर लोग सुल्ताना डाकू को दुर्दाँत डकैत मानते थे वहीं गरीब उसे मसीहा कहते थे क्योंकि वह अक्सर अमीरों का माल लूटकर गरीबों में बाँट देता था।

जिम कार्बेट की पुस्तक “माय इंडिया” क़े अध्याय – सुल्ताना : इंडियाज रोबिन हुड” नथाराम शर्मा गौड़ की पुस्तक “सां. सुल्ताना डाकू गरीबों का प्यारा” पेंग्वेन इंडिया में छपी लेखक सुजीत श्राफ की पुस्तक “कनेक्शन ऑफ़ सुल्ताना डाकू” सहित कई लेखकों की पुस्तकों में सुल्ताना डाकू सचमुच ब्रिटिश काल में किसी रोबिन हुड से कम नहीं था।

एक मामूली सी कद काठी का सांवला सा सुल्ताना डाकू जब पकड़ में आया तो लोगों की भीड़ जमा हो गई। सब अचम्भे में थे कि इतना मरियल सा आदमी है सुल्ताना डाकू। इसी सुल्ताना डाकू पर स्वतंत्र भारत में नौटंकी  रची  गई व इसका जगह जगह प्रदर्शन होता रहा। यह नौटंकी अकील पेंटर नामक लेखक की पुस्तक “शेर -ए – बिजनौर : सुल्ताना डाकू” क़े नाम से प्रचलित थी।

यही नहीं सन 1956 में मोहन शर्मा ने जयराज और शीला रमानी को लेकर आर. डी. फिल्म्स के बैनर तले ‘सुल्ताना डाकू’ फिल्म का निर्माण किया. उसके बाद 1972 में निर्देशक मुहम्मद हुसैन ने भी फिल्म “सुल्ताना डाकू” बनाई जिसमें मुख्य किरदार दारासिंह ने निभाया था। अजीत और हेलेन ने फिल्म में दूसरे किरदार निभाये थे।

आखिरकार टिहरी नरेश नरेंद्र शाह क़े बिशेष अनुरोध पर किया गया डाकू सुल्ताना को गिरफ्तार।

ब्रिटिश सरकार क़े लिए सिरदर्द बने सुल्ताना डाकू को जिन्दा या मुर्दा गिरफ्तार करने क़े लिए टिहरी रियासत क़े राजा नरेंद्र शाह के अनुरोध पर ब्रिटिश सरकार ने सुल्ताना को पकड़ने के लिए एक कुशल और दुस्साहसी अफसर फ्रेडी यंग को बुलाया गया। आगे जाकर फ्रेडी यंग का नाम इतिहास में सुल्ताना डाकू के साथ अमिट रूप से दर्ज हो गया क्योंकि लम्बे संघर्ष के बाद फ्रेडी ने न केवल सुल्ताना को धर दबोचा, उसने सुल्ताना की मौत के बाद उसके बेटे और उसकी पत्नी की जैसी सहायता की वह अपने आप में एक मिसाल है।

तीन सौ सिपाहियों और पचास घुड़सवारों की फ़ौज लेकर फ्रेडी यंग ने गोरखपुर से लेकर हरिद्वार के बीच ताबड़तोड़ चौदह बार छापेमारी की और अंततः 14 दिसंबर 1923 को सुल्ताना को नजीबाबाद जिले के जंगलों से गिरफ्तार कर हल्द्वानी की जेल में बंद कर दिया। सुल्ताना के साथ उसके साथी पीताम्बर, नरसिंह, बलदेव और भूरे भी पकड़े गए थे। इस पूरे मिशन में कॉर्बेट ने भी यंग की मदद की थी। नैनीताल की अदालत में सुल्ताना पर मुकदमा चलाया गया और इस मुकदमे को ‘नैनीताल गन केस’ कहा गया। बताया जाता है कि उन्हें आखिरी पेशी पर आगरा ले जाया गया जहाँ  उन्हें 8 जून 1924 को फांसी की सजा सुनाई गई और आगरा जेल में ही उन्हें 10जून 1924 को फांसी पर लटका दिया गया । कुछ लोग तर्क देते हैं कि उन्हें हल्द्वानी जेल में 8 जून 1924 को जब सुल्ताना को फांसी दी गई।

सुल्ताना की मौत के बाद उसे याद करते हुए जिम कॉर्बेट ने ‘माई इंडिया’ के अध्याय ‘सुल्ताना: इण्डियाज़ रोबिन हुड’ में यह भी लिखा है – “समाज मांग करता है कि उसे अपराधियों से बचाया जाय, और सुल्ताना एक अपराधी था। उस पर देस के कानून के मुताबिक़ मुकदमा चला, उसे दोषी पाया गया और उसे फांसी दे दी गयी। जो भी हो, इस छोटे से आदमी के लिए मेरे मन में बहुत सम्मान है जिसने तीन साल तक सरकार की ताकत का मुकाबला किया और जेल की कोठरी में अपने व्यवहार से पहरेदारों का दिल जीता।”

इस बात के प्रमाण हैं कि फ्रेडी यंग ने सुल्ताना की पत्नी और उसके बेटे को भोपाल के नज़दीक पुनर्वासित किया। बाद में उसने उसके बेटे को अपना नाम दिया और उसे पढ़ने के लिए इंग्लैण्ड भेजा। कहते हैं फ्रेडी यंग ने ऐसा करने का सुल्ताना से वादा भी किया था।

बहरहाल कई लोग सुल्ताना डाकू को स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी घोषित करने की मांग उठाते  रहे हैं, वहीं उनका परिवार कहता है कि हर कोई सुल्ताना डाकू पर  स्टोरी कवर करने तो आ जाता है लेकिन हमारी बात आगे नहीं पहुँचती क्योंकि हमारे बच्चे  बेरोजगार घूम  रहे हैं  उनके लिए सरकार क़े पास नौकरी नहीं है।

आपको जानकारी दे दें कि सुल्ताना डाकू क़े पोते परपोते व झड़पोते अभी भी उत्तर प्रदेश क़े मुरादाबाद की भाँतू बस्ती में रहते हैं। जिनमें पोते स्व. विकट सिंह, परपोता स्व दुर्योधन सिंह व उनकी पत्नी सीमा सिंह व परिवार ,  स्व . राजन सिंह व उनकी पत्नी सरिता सिंह व उनका परिवार ,  स्व. संजय सिंह व स्व. हुश्ना सिंह व उनके बच्चे। झड़पोते विशाल सिंह व उनकी दीपांशी सिंह तथा परपोती मधु बाला सिंह व उनका परिवार आज भी  रहता है। फिर प्रश्न यह उठता है कि क्या सुल्ताना डाकू की दो पत्नियां थी क्योंकि उनकी पत्नी भोपाल व बेटा इंग्लैंड शिफ्ट हो गया था।

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