(मनोज इष्टवाल)
कई बार अतिअध्ययन भी आपकी मानसिक स्थिति को उहापोह की दिशा और दशा में ले जाता है. यहाँ भी कुछ ऐसा ही होता प्रतीत हो रहा है। विकास खंड -कल्जीखाल पौड़ी गढ़वाल उत्तराखंड के नैल गॉव में विगत 2016 में आयोजित माँ राज-राजेश्वरी और झालीमाली के अनुष्ठान के बाद प्राप्त साहित्य की भाषा ने आतुर कर दिया है कि इस स्टोरी का ट्विस्ट पॉइंट कैसे प्रारम्भ हो।
माँ झालीमाली राजराजेश्वरी विकास समिति की गहन शोध पुस्तक व सुप्रसिद्ध लेखक अरुण कुकुसाल की झालीमाली देवी पर हाल ही में प्रकाशित पुस्तक के अध्ययन के बाद अब इतना कहने में समर्थ हूँ कि खैरालिंग की माँ काली ही बाराही या कोटभ्रामरी है या फिर झालीमाली!
कुमाऊं की बाराही या कोटभ्रामरी युद्ध की देवी मानी गयी है, वहीँ झालीमाली को कत्युरी राजा की ऐसी बेटी जो नौ मण का गद्दा व शमसीर लेकर लड़ाई के मैदान में जमकर दुष्टदलन करती है और मानव रक्त पिपासा को लालायित रहती है। झालीमाली को सदेई से जोड़कर भी इन पुस्तकों ने माँ का आवाहन कुछ इसी प्रकार किया है।
सदेई जोकि ससुराल में रहकर अपनी कुलदेवी से विनयपूर्वक भाई मांगती है और उसे माँ उसकी मन्नत के बाद भाई देती है। बदले में फिर भाई की ही बलि मांगती है लेकिन वह अपने दोनों पुत्रों (उमरा/सुमरा) के शीश माँ को चढ़ा देती है। भले ही माँ अपने चमत्कार से उन्हें पुन: जीवित भी कर देती है, का यह रूप बाराही माँ कोट भ्रामरी से मेल खाता नजर आता है क्योंकि इन्होने हमेशा ही मानव बलि मांगी है। जिसका प्रतीक आज भी वीरता स्वरुप देवीधुरा (कुमाऊं) का पाषाण युद्ध माना जाता है।जिसमें वर्तमान तक एक व्यक्ति के रक्त के बराबर माँ बाराही जिसे कोट भ्रामरी भी कहा जाता है, वह बहाया जाता है।
झाली माली मारछा जाति की भी कुलदेवी है, पिथौरागढ़ के जोहार घाटी में यह पूजी जाती है। इसे वनरावतों की वंशज भी कहा गया है और कत्युरी राजाओं की बेटी भी। कहीं कहीं इसकी शुद्ध सात्विक पूजा भी होती है। अर्थात या देवी सर्वरूपेशु मातृरूपेण संस्थिता वाली बात है।
पंडित भवानंद नैलवाल (शिमला) की पांडूलिपि के अनुसार झालीमाली ही खैरालिंग की काली माँ है जिसका त्रिशूल स्थापना 1865 में असवाल और नैलवाल जाति में कौथिग (मेले) के दौरान हुई रंजिश के बाद इसे देवीधार नामक स्थान पर स्थापित किया गया था।
सन 1500 ई. में जब ठा. रणपाल असवाल ने नगर गॉव की स्थापना करवाई थी, तब वे नाथ सम्प्रदाय के बहुत निकट थे और नाथों की दीक्षा से ही उनकी बाबा केदार पर अटूट श्रद्धा रही है। उसी दौर में उनके साथ उनके शासनी यानि न्याय गुरु नैलवाल भी क्वाँरौ (नैल का पूर्व नाम) आकर बसे, और नगरकोट में असवाल गढ़ के पीपल चौंरा में उन्हीं के द्वारा रणदेवी काली जिसे उपरोक्त सभी नामों से जाना जाता है कि स्थापना इन्ही के मार्गदर्शन में हुई। नगर के साथ भट्टीगॉव व बलद गॉव में बलोधी जाति के पंडित कब इनके कुलगुरु हुए यह कह पाना कठिन है क्योंकि इस पर मेरा शोध अधूरा है। लेकिन यह तय है कि नगरकोट बसाते समय एक गढ़ भट्टीगॉव की सीमा पर जिसके खंडहर आज भी मौजूद हैं तो एक गढ़ चौंरा गढ़ जिसे थरपगढ़ भी कहा गया है नैल सीमा पर बनाया गया है। जो पूर्ववर्ती राष्ट्रीय पैदल राजमार्ग पर पड़ता था और जिसे राजा का बिश्राम स्थल भी कहा गया। कालान्तर में अपने 84 गॉव की मालगुजारी को इकठ्ठा करने के लिए असवाल जाति द्वारा सरासू व मिर्चौडा गॉव में अपनी बसागत बढ़ाई। नैल गॉव ही उस दौर में एकमात्र ऐसा गॉव रहा जो असवाल जाति की खैकरी में शामिल नहीं था।
झालीमाली को कई विद्वान शुद्ध वैष्णवी मानते हैं जबकि मेरा मत इस से बिलकुल भिन्न है क्योंकि अगर झालीमाली वैष्णवी रही है तो उसमें पूर्व में बलि क्यों दी जाती थी। भले ही सभ्य समाज ने पुरातन पद्धत्ति की पूजा अनुष्ठान में तब्दीली कर उन तमाम निरीह पशुओं की बलि पर रोक लगाने की हर सम्भव कोशिश कर समाज को सनातन धर्म “सर्वे सन्तु सुखिन, सर्वे सन्तु निरामय” की ओर अग्रसर किया है लेकिन हम उन बलियों को नहीं झुठला सकते जो मन्दिर मंदिर प्रांगणों में सदियों से दी जाती रही हैं। उन्हीं में झालीमाली भी एक है।
नैल में माँ राजराजेश्वरी व माँ झालीमाली को एक ही मंदिर में अनुष्ठाथित करना बहुत बड़ा साहसिक कार्य है क्योंकि ऐसा करने में किसी भी बड़े अनिष्ट की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता था। इसमें उन सभी नैलवासी नैलवाल/ चमोली वंशजों के अलावा खर्कवाल, कुकरेती, चंदोला, डुकलाण, नैथानी, इष्टवाल , सुन्द्रियाल, व आवजी अग्रजों व बुद्धिजीवियों को नमन जिन्होंने यह साहसिक निर्णय लेकर एक उजड़ते गॉव की बसागत में अपना अमूल्य योगदान दिया क्योंकि इस मंदिर की स्थापना के बाद यहाँ रिवर्स पलायन होना शुरू हो गया है और लगभग 14 परिवारों ने अपने टूटे मकान अब तक बना भी दिए हैं।
मुझे लगता है कि सिर्फ झालीमाली ही नहीं राजराजेश्वरी के बारे में भी हमें शास्त्र सम्मत तथ्यों को ध्यान में रखकर इस पर व्यापक व विस्तृत साहित्य लाना होगा ताकि हम कभी इसे रक्तपिपासा देवी, रणदेवी, कभी वनदेवी तो कभी वैष्णवी न कहकर एक ऐसा नाम दें जिसमें सबके प्राण बसते हों, हर जाति सम्प्रदाय जिसमें एकाकार होगा अपने श्रद्धासुमन अर्पित करें। नैल गाँववासियों ने माँ राजराजेश्वरी व माँ झालीमाली भले ही एक स्थान पर स्थापित हो गयी हैं लेकिन परिक्रमा के दौरान पौराणिक मंदिर को भी अपनी एकआध परिक्रमा से जोड़कर जिस तरह कुछ जन परिक्रमा कर रहे थे उस से यही आभास हो रहा था कि उन्हें यह डर जरुर है कि कहीं पुराने मंदिर में स्थापित माँ राजराजेश्वरी या झालीमाली नाराज न हो जाय। हमें यह डर समाप्त करना होगा क्योंकि माँ तो सर्वत्र है।
झालीमाली को खैरालिंग की माँ काली से यदि जोड़कर देखा भी गया है या उन्हें कोट भ्रामरी या बाराही स्वरुप समझा भी गया है तो मुझे नहीं लगता कि यह गलत है क्योंकि आप ध्यान अवस्था में जाकर माँ झालीमाली के वर्तमान स्वरुप को अपनी आँखों में केन्द्रित करेंगे तो आपको उनमें माँ कोटभ्रामरी के साक्षात दर्शन होंगे और माँ काली के भी। माँ बाराही (देवीधुरा) की मूर्ती के दर्शन शायद ही किसी ने किये हों क्योंकि वह नग्नअवस्था में मिली थी। तब से वह बाहर नहीं निकाली जाती ऐसी जनश्रुति है। मैं भाग्यवान हूँ कि मैंने माँ झालीमाली के भी दर्शन किये हैं तो जोहार कि काली माँ के भी और चम्पावत की माँ कोटभ्रामरी के भी, व मुंडनेश्वर की काली माँ के भी..! इसलिए सभी रूप आपकी ध्यान अवस्था में एकाकार होकर आ जायेंगे यह मेरी सोच है।
थैरवालों के खैरालिंग अर्थात मुंडनेश्वर में माढू थैरवाल व उनके छ: भाईयों के साथ कब किस काल में खैरालिंग नमक के भारे के साथ आये उसका काल तो स्पष्ट नहीं हैं लेकिन यह जरूर स्पष्ट है कि असवालों की रणदेवी/कुलदेवी माँ काली को चमोली गढ़वाल के नागपुर गढ़ के थोकदार रणपाल असवाल अपने साथ लेकर सन 1500 ई. में गढ़ नरेश राजा अजयपाल के श्रीनगर बसासत के बाद मिली 84 गाँव की जागीरदारी के समय नगरकोट (नगर गाँव असवालस्यूँ पौड़ी गढ़वाल) आये थे। जिसकी नगर कोट के पीपल चौंरा में असवालों के नाथ गरीब नाथ व कुलगुरुओं ने विधिवत स्थापना की थी। यही काल नैल गाँव में माँ राजराजेश्वरी व झालीमाली का माना जाता है।