“चारण” पुत्रों की सिल्वर जुबली यात्रा! फिर बहुरेंगे सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ शिव प्रसाद डबराल “चारण” के सरोड़ा आवास के दिन।
(मनोज इष्टवाल)
यह समय चक्र है…! जो किसी के रोकने से रुक नहीं सकता। हाँ प्रकृति जरूर कुछ काल के लिए आँखें मूंदकर ठहराव का इन्तजार करती है, लेकिन फिर वह कलयुग से त्रेता काल की ओर मुड़कर कहे देती है – होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥ ऐसा ही कुछ सुप्रसिद्ध इतिहासकर ब्रह्मा जी के 10 मानस पुत्रों की तरह सरस्वती के मानस पुत्र डॉ शिव प्रसाद डबराल “चारण” के जीवनकाल का वह समय चक्र रहा है। जब उनके स्वर्ग सिधारने के बाद उनका पौड़ी गढ़वाल के दुगड्डा शहर के पास स्थित सरोड़ा गाँव का आलीशान आवास मानव शून्य हो गया! क्योंकि उनके पांच पांडव जैसे पुत्र व दो पुत्रियां सरकारी सेवाओं के कारण /विवाहित होने के कारण अपने पैतृक आवास को छोड़कर विभिन्न शहरों की भागम-भाग व वैभवपूर्ण जिंदगी में कहीं गुम हो गये। सिर्फ़ जीवित रहा तो यह आलीशान सरस्वती भवन जहाँ डॉ शिव प्रसाद डबराल की 22 प्रकाशित पुस्तकें व 47 पांडूलिपि में कैद पुस्तकें धरोहर के रूप में अपनों का इन्तजार करती बंद कमरों की खिड़कियों से अपनों के आगमन की आहट महसूस करती रही। कई बार उन्हें इस काल में हवा के झोंके व खुले कपाटों के साथ तब शकून की सांस मिली जब यदा-कदा इस घर के वाशिंदे अपने बड़े आम्र बागान व इस मकान की देख-रेख के लिए कुछ दिन के लिए आ पहुँचते थे। मैं भला कैसे भूल सकता हूँ जब अंतिम क्षणों के कुछ बर्ष पूर्व अर्थात 1997 में डॉ चारण के काँपते हाथों से उठे मलायवादी आम का रस्वादन किया था। यह उनके आम्र बागीचे के वह रसिक फल था जो अपनी मिठास 25 बर्ष बाद भी मेरे जबड़ों में रस का संचार किये है। और अब पूरे 25 बर्ष बाद घर के आँगन के ठीक आगे सिद्धबाबा के मंदिर से उठती दीप धूप की ख़ुशबु, घंटी व शंखनाद के साथ पुजारी के मन्त्रोचारण व प्रसाद ग्रहण की गहमागहमी ने फिर से डॉ चारण के पुत्रों को अपने आवास की सिल्वर जुबली यात्रा करवा दी। यह शुकूनभरी यात्रा इस मंदिर रुपी आवास के रिनोवेशन या कहें पुनर्निर्माण की है।
यकीनन ये सम्पूर्ण जीवन के सुखद पलों की वह यात्रा रही जिसमें आतिथ्य संस्कार में हाथ बंटाते डॉ चारण के पोते अभिषेक डबराल के होंठों में वही मंद-मंद मुस्कान खेल रही थी जो डॉ शिव प्रसाद डबराल “चारण” के होंठों में तब रेंगती थी जब उन्हें ह्रदय से परिपूर्ण अपने मिजाज का कोई व्यक्ति मिल जाता था । डॉ चारण की उठती नजर ठेठ वैसे ही व्यवहारिक होती थी जैसे उनके कनिष्क पुत्र डॉ शांति प्रसाद डबराल को आत्मसात करते हुए मुझे महसूस हुई। यह भी अजीबोगरीब संजोग हि कह सकते हैं कि डॉ चारण के काल में मैं उनके पुत्रों से अनभिज्ञ रहा लेकिन आज होम से उठते पवित्र धुंवे की खुश्बूदार लटों में ऐसे महसूस हो रहा था जैसे चश्मे के पीछे से झांकती डॉ चारण की वही छवि उभरी हो जो उनकी स्वेत दाढ़ी की एक सजावट सी लगती थी। सिर्फ डॉ चारण हि नहीं बल्कि उनके वे दो स्वर्गीय पुत्र भी मानों यहीं अपनी उपस्थिति का आभास करवा रहे थे ।
मेरे साथ कोटद्वार से इस यज्ञ में शामिल होने पहुंचे मित्र अजय कुकरेती बेहद संगदिल होकर बोले- भाई साहब..आज तो मानों मुझ पर आपने उपकार कर दिया हो क्योंकि इतने बड़े इतिहासकार के उस आवरण का पटाक्षेप आपके माध्यम से जो देखने को मिला, वह देख मैं धन्य हुआ। मैं गौरान्वित हूँ कि उनके जीवन काल में न सही लेकिन अपने जीवन काल में उनकी आवास का उनके नाम का प्रसाद व चरणामृत ग्रहण करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ।
दुगड्डा से ही साहित्यिक विधा के मनुषी व डॉ शिव प्रसाद डबराल “चारण” के प्रिय विद्यार्थी बड़े भाई जागेश्वर प्रसाद जोशी भी इस निम्मित हमारे साथ शामिल हुए कि गुरु के आभामंडल के उस वैभवकाल का स्मरण कर आऊँ जो उन्होंने अपनी खुली आँखों से उस दौर में देखा था जब डॉ चारण के इस आवास की परिक्रमा करने उत्तराखंड के कई सुप्रसिद्ध लेखक व साहित्यकारों का यहाँ जमघट जुड़ा रहता था। जागेश्वर जोशी जी स्मृतियों को ताजा करते हुए कहते हैं कि गुरु जी बेहद रिजर्व रहा करते थे, उनका ज्यादात्तर समय उनके शोध कार्यों में व लेखन में हि गुजरता था। उनके उस किताबी मोह को आप इस समझ सकते हैं कि मेरे पिताजी ने एक पुस्तक लिखी जिसकी प्रति जब पिता जी उन्हें भेंट करने गए थे तब वे उपलब्ध नहीं थे। अगले दिन डॉ चारण स्वयं हमारे घर चलकर आये व बोले- मेरी पुस्तक कहाँ है , क्या मुझे देना भूल गए थे?
डॉ शिव प्रसाद डबराल के कनिष्क पुत्र डॉ शांति प्रसाद डबराल जी ने जब मेरा परिचय जाना तो उन्होंने ऐसे गले लगा लिया मानों कई बर्षों से उन्हें मेरी प्रतीक्षा रही हो। उनके इस सहृदयी सदभाव ने मेरे अंतर्मन को गद्गद कर दिया। उनसे पुरानी बातों पर जब सिलसिलेवार स्मरण ताजा करने का समय आया तो उनकी वाणी में भावुकता दिखी। आज जर्र-जर्र हुए अपने पैतृक आवास को देखकर मानों उनकी खुद गले में भरकर उफान मार रही हो। उनकी आँखों में अपने भ्रातापुत्र इंजिनियर अभिषेक के प्रति उमड़े प्यार को देखा जा सकता था क्योंकि अभिषेक ही एक ऐसी श्रृंखला बन पाए जिन्होंने पाँचों परिवारों को एक जुट एक मुठ करके जीर्ण-शीर्ण हुए इस पैतृक आवास के रिनोवेशन के लिए इन पांच पांडवों को एक जुट कर इसे संवारने का यत्न किया।मुझे भले से याद है कि डॉ शान्ति प्रसाद डबराल के लखनऊ आवास में ही उनकी माताश्री ने अंतिम सांस ली थी व उसके बाद डॉ चारण काफी समय तक बहुत अव्यवस्थित से हो गए थे। वह सचमुच ऐसी अर्धांगिनी थी जिन्होंने एक ऐसे साधू पुरुष की दिन रात सहधर्मिणी बन सेवा की जिन्हें किताबों के मोहपाश ने इतना जखड़ रखा था कि वे उस से बाहर हि नहीं निकल पाते थे। मैं शायद ऐसा भाग्यवान हूँ जिसने उनके हाथों से बनी रोटी, राई की सब्जी तो खाई ही खाई है, डॉ चारण के हाथ की बनी खिचड़ी भी खाई है। उस दिन तो मुझे ऐसा महसूस हुआ था मानों राजा से ऋषि बने भरतरी व गोपीचंद की वह खिचड़ी खा ली हो जिसने पुरिया नैथाणी से गढ़वाल के महा सैन्य सलाहकार को दिव्य दृष्टि दी थी।
(डॉ शांति प्रसाद डबराल जी से मुखाभेंट)
अपने पिताजी से जुड़े संस्करणों पर बेबाक अंदाज में बात करते हुए डॉ शान्ति प्रसाद डबराल ने कहा कि वे सभी भाइयों में पिताजी के सबसे करीब रहे। उन्होंने बेबाकी से कहा कि डॉ चारण के प्रत्येक पल उनके लिए बेहद कीमती हुआ करते थे शायद यही कारण भी था कि कई बार मेरे भी उनके साथ मतभेद हो जाया करते थे लेकिन उनसे जुडी कुछ ऐसी मार्मिक व सत्य घटनाएँ भी मेरे जेहन में हैं जिन्हें मैं लिखकर किताबी रूप दे रहा हूँ। वे बताते हैं कि उनके पैतृक आवास के रिनोवेशन के कार्य के पूरा होने के बाद हम इसके कुछ कमरों को पुस्तकालय के रूप में विस्तार देंगे ताकि आने वाले समय में हमारे भविष्य के नौनिहाल यहाँ आकर अध्ययन व शोध कार्य कर सके। हमारी योजना है कि हम पिताजी की 47 पांडुलिपियों को पुस्तकों का रूप देकर प्रकाशन में लायेंगे। उन्हें भी जो पुस्तकें जर्र-जर्र हो गई हैं, नए फ्लेवर में लाकर प्रकाशित करने की योजना है। डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म पर भी हम उनकी साहित्य साधना को लाने का प्रयास करेंगे।
डॉ शान्ति प्रसाद डबराल बताते हैं कि जब पिता जी नवीं कक्षा में पढ़ते थे, तब उन्होंने अपनी पहली पुस्तक प्रकाशित की थी जिसे उन्होंने हरिद्वार के नौचंदी मेले में एक आना प्रति पुस्तक बेचीं थी। उन्होंने उनकी व्यस्तता के आलम की कहानी सुनाते हुए कहा कि वे प्रचार-प्रसार से कोसों दूर रहते थे। सन 1973 की घटना का स्मरण करते हुए वह बताते हैं कि एक सम्मान समारोह के लिए उन्हें बिजनौर में आमंत्रित किया गया था। चूंकि तत्कालीन उत्तर प्रदेश के राज्यपाल के हाथों उन्हें सम्मानित होना था इसलिए मैं उन्हें किसी तरह मना-बुझाकर कार्यक्रम में ले ही गया। राज्यपाल से सम्मान ग्रहण करने के पश्चात वह मुझसे नाराज हो गए कि मेरे बेवजह तूने तीन घंटे बर्बाद कर दिए। वे उन घटनाओं का जिक्र भी करते हैं जब उन्हें डॉ चारण के साथ देहरादून के बड़े पुस्तकालयों में जाना होता था उन्हें आज भी टिहरी हाउस में स्व. शूरवीर सिंह पंवार व बड़े पुस्तकालय के संचालक पद्म कुमार जैन से भेंट का स्मरण है। डॉ शान्ति प्रसाद डबराल कहते हैं – “आज जब हम उम्रदराज हो गए तब लगता है कि पिता जी देव पुरुष थे, ऐसा लगता है मानों कोई ऋषि हिमालय से चलकर मनुष्य योनी में जन्म लेकर हमारे घर आये हों।”
ज्ञात हो कि डॉ शिव प्रसाद डबराल के पांच पुत्रों में सबसे बड़े पुत्र स्व. रूद्र विलास डबराल जो फ़ौज में थे, का देहांत सन 1973 में हो गया था, जिससे डॉ चारण बहुत काल तक अवसाद में रहे व इसका जिक्र उन्होंने अपनी पुस्तक गढवाल का इतिहास में भी किया है। उनके दूरे पुत्र स्व. शिव प्रकाश डबराल का निधन हाल ही दो तीन साल पूर्व हुआ है, वे प्राथमिक विद्यालय के अध्यापक रहे। तीसरे पुत्र डॉ विनय कुमार डबराल गढवाल विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रवक्ता हैं व उन्होंने कई पुस्तकें लिखी हैं लेकिन वे भी अपने पिता जी की तरह प्रचार-प्रसार से बहुत दूर रहे हैं, चौथे पुत्र डॉ संतोष कुमार डबराल प्रिंसिपल संस्कृत के प्रवक्ता रहे। पांचवें पुत्र के रूप में डॉ शांति प्रसाद डबराल हुए जो वर्तमान में लखनऊ में रहते हैं व सरकरी डिग्री कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर रहा बाद में प्राचार्य रहे अब सेवानिवृत्त हो गए हैं। डॉ शान्ति प्रसाद डबराल व अभिषेक डबराल कहते हैं कि यह सब इन्हीं बड़ों की प्रेरणा से हो रहा है जो हम पुन: इस नायब कोशिश में लगे हुए हैं। डॉ चारण की दो पुत्रियों में से बड़ी स्वर्ग सिधार गई हैं जबकि छोटी पुत्री अपने मायके आकर इस यज्ञ में शामिल हुई।
डॉ बृज मोहन डबराल लिखते हैं कि “विलंब से ही सही, स्वर्गीय दादा जी के इस ज्ञान मंदिर के जीर्णोधार का प्रयास बहुत ही सराहनीय है, परिजनों को साधुवाद । मैं इस भवन में कई बार गया और में अपने को अत्यंत सौभाग्यशाली समझता हूं कि यहीं उन महान विभूति के परम सानिध्य में मैने अपनी पीएचडी हेतु उनका मार्गदर्शन लिया । भवन के द्वार शोधार्थियों के लिए खोला जाना डबरालों के सिरमौर और प्रदेश की महान विभूति, सादगी की मूर्ति और ज्ञान के सागर स्वर्गीय शिव प्रसाद डबराल जी के लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी।”
यूँ तो अभिषेक डबराल से मेरी मुलाक़ात तब हो गई थी जब हमारा लगभग पांच दर्जन लोगों का ग्रुप मालन नदी की ट्रेकिंग कर रहा था लेकिन बर्षों बाद चारण आवास में कदम रखने का श्रेय मैं श्रीमति प्रणिता कंडवाल को देता हूँ जिन्होने मुझे वीडियो कॉल कर बताया कि वह आज सरोड़ा स्थित चारण आवास में आये हुए हैं जहाँ आवास की झीर्ण-शीर्ण स्वरूप की मरम्मत व मजोम्मत हो रही है। तब अभिषेक डबराल , दिग्विजय सिंह नेगी व प्रणिता ने मुझे वहां आने का न्यौता दिया था। भला गुरुदर्शन में मै कैसे कोताही बरतता और एक हफ्ते बाद इस सरस्वती मंदिर के आगे नतमस्तक होने मैं सरोडा जा पहुंचा।
उम्मीद है आने वाले कुछ महीनों बाद यह घर पुस्तकालय के रूप में हमारी पीढ़ियों को ज्ञानार्जन करवाने का एक सुलभ माध्यम बनेगा और चारण पुत्रों की यह सिल्वर जुबली यात्रा हम सबके लिए उपयोगी सिद्ध होगी।