Thursday, November 21, 2024
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गंभीर चेतावनी : उत्तराखंड के 99 प्रतिशत ग्लेशियर में आ गई हैं दरारें…!  

  • 2006 से वर्तमान तक तेजी से खिसक रहा है गंगोत्री ग्लेशियर. पढ़ रही हैं दरारें- डॉ राकेश भांवरी
  • जलवायु परिवर्तन व मानवीय दुश्वारियों से बदल रहा है हिमालयी परिवेश – डॉ मोहन सिंह पंवार
  • हिमालयी राज्य के विकास में सतत सामूहिक जबाबदेही व मॉनिटरिंग जरुरी- डॉ राजीव पांडे
  • हिमालय के शोध और अनुभवों को जनमानस तक पहुंचाने की आवश्यकता- कर्नल अजय कोठियाल
  • 130 बर्ष पूर्व के रिकॉर्ड की बराबरी की इस बर्ष का तापमान – पद्मश्री प्रेम चंद शर्मा
  • नीतिगत फैसलों के दृष्टिगत हो विकास- डॉ प्रणव पाल
  • जल स्रोतों, धाराओं पर जलवायु परिवर्तन का बड़ा असर- डॉ गौरव
  • तेजी से सूख व घट रही हैं नदियाँ- रतन सिंह असवाल 
  • परम्परागत समुदाय आधारित ज्ञान को तथा नवीनतम वैज्ञानिक शोध के साथ एक बेहतरीन सामंजस्य की नित्तांत आवशयकता – नेत्रपाल यादव
  • लोक परम्पराएं, पहाड़ और पर्यावरण बचेगा तो जल जंगल जमीन सुरक्षित- मनोज इष्टवाल
  • सरकारी अधिकारी अपनी खामियां लोक समाज पर नहीं थोप सकते- हरीश सनवाल

 (मनोज इष्टवाल)

जून माह आया नहीं कि उत्तराखंड की प्रदेश सरकार, डिजास्टर मैनेजमेंट, रैपिड एक्शन फ़ोर्स सहित अन्य सरकारी सिस्टम की नींदें खराब होनी शुरू हो जाती हैं. यही नहीं हिमालयी प्रदेश अर्थात शिवालिक श्रेणियों से लेकर मध्य हिमालय व उच्च हिमालयी क्षेत्रों में रहने वाले जनमानस को अब जून माह से सितम्बर माह तक के ये चार माह काटने में बड़ी बेचैनी होती है क्योंकि कब कहाँ बाँध टूट जाए, कब कहाँ अतिव्रिष्ठी हो जाय, कहाँ बादल फटे और कहाँ गाँव, खेत, खलिहान रगड़ बगड़ में समा जाएँ कोई पता नहीं। जून 2013 के बाद से हर साल ये महीने दुश्वारियों के से लगने लगे हैं जबकि इन्ही चार माह में प्रदेश की आर्थिकी का मजबूत पहलु चार धाम यात्रा चरम पर होती थी। वर्तमान में यही धार्मिक यात्रा प्राकृतिक कारणों से बंद करनी पड़ रही है. दोष…कहाँ और किसका है? इस पर कोई सोचने को तैयार नहीं। बड़ी बड़ी बैठकें सेमीनार आयोजित होते हैं, वैज्ञानिक राय ली जाती है. करोड़ों का बजट स्वाहा होता है लेकिन सुरक्षा रुपी खम्ब हर बर्ष चमोली जिले के हिमालयी क्षेत्र ऋषि गंगा में बने दो हाइड्रो प्रोजेक्ट की तरह हो गए हैं जो एक बर्फीले तूफानी एवलांच में जमीनी सचाई की बखिया उदेड देता है और सैकड़ों मानव जानें लील लेता है. सवाल सिर्फ 2013 में केदार आपदा या 2021 में ऋषि गंगा आपदा की नहीं है, अपितु हर बर्ष पूरे हिमालयी क्षेत्र में हो रही उथल पुथल को लेकर जमीनी सचाई की है!

ऐसे में कौन पहल करे व किस तरह की पहल हो. विगत दिवस “डालियों का दगडया” नामक एक गैर सरकारी संगठन द्वारा राजधानी देहरादून में विभिन्न सामाजिक संगठन व भूगर्भवेता वैज्ञानिकों, लोक समाज में पैठ व हिमालय को समझने वाले बुद्धिजीवियों ने जलवायु परिवर्तन, पर्यावरण संतुलन और मानव दुशवारियों को दृष्टिगत रखते हुए एक विचार गोष्ठी का आयोजन किया।

कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रगतिशील किसान एवं फलोत्पादन में नवाचार करने के लिए प्रसिद्द  पदमश्री प्रेम चंद शर्मा ने की। गोष्ठी में सर्वप्रथम प्रोफेसर (डॉo ) मोहन सिंह पंवार, भूगोलवेत्ता तथा निदेशक, डालियों का दगड़िया (DKD) ने विभिन्न सामाजिक संगठन व भूगर्भवेता वैज्ञानिकों, लोक समाज में पैठ व हिमालय को समझने वाले बुद्धिजीवियों ने जलवायु परिवर्तन, पर्यावरण संतुलन और मानव दुशवारियों को दृष्टिगत अपनी उपस्थिति दर्ज करने पहुंचे व्यक्तियों का आभार व्यक्त करते हुए कहा कि कुछ बर्षों से हिमालयी भू-भाग में जलवायु परिवर्तन व आपदाओं ने यहाँ के जनमानस व भौगिलिक परिस्थितियों को लेकर चिंता बढ़ा दी है, जिसके लिए हमें यह आवश्यक हो गया है कि हम इस पर वैज्ञानिकी राय के साथ-साथ उस हर राय को महत्वपूर्ण स्थान दे जिन्होंने जमीनी स्तर पर आये ऐसे परिवर्तनों को महसूस किया है। उन्होंने कहा है कि हिमालयी क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन का सीधा असर  मानवीय दुश्वारियों पर पड़ रहा है, जिससे उत्तराखंड राज्य के जनजीवन में आये दिन आ रहे परिवर्तन को देखा व समझा जा सकता है। उन्होंने देहरादून, हरिद्वार व उधमसिंह नगर जिलों में आकर बस रहे 10 पहाड़ी जनपदों से पलायन कर रहे लोगों को इसी परिवर्तन से जोड़ते हुए कहा है कि गढ़-कुमाऊं के गाँवों का रैबासी लगभग 75 प्रतिशत इन तीन जिलों में आ बसा है।

 2006 से वर्तमान तक तेजी से खिसक रहा है गंगोत्री ग्लेशियर…! पढ़ रही हैं दरारें- डॉ राकेश भांवरी

वाडिया भूविज्ञान संस्थान के वैज्ञानिक डॉ राकेश भांबरी जी ने हिमालयी क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन का ग्लेशियर पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों तथा उससे उत्पन्न असम्भावी खतरों एवं उससे उत्पन्न विषम परिस्थितियों का जिक्र करते हुए हिमालय में जलवायु परिवर्तन को अपने शोध कार्यों की प्रस्तुति के माध्यम के विस्तार पूर्वक समझाया। उन्होंने उपग्रह से प्राप्त चित्रों के माध्यम से गंगोत्री ग्लेशियर सहित तमाम अन्य गलेशियरों के तेजी से खिसकने व उन पर दरारें पड़ने को लेकर चिंता जताते हुए कहा है कि ये ग्लेशियर 2006 से लेकर वर्तमान तक तेजी से खिसक रहे हैं व अपना आकार भी बदल रहे हैं जो हम सबके लिए गंभीर चिंता का बिषय है।

हिमालयी राज्य के विकास में सतत सामूहिक जबाबदेही व मॉनिटरिंग जरुरी- डॉ राजीव पांडे

फारेस्ट रिसर्च इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया (एफआरआई) के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. राजीव पांडेय ने विकास हेतु सतत सामाजिक – आर्थिक मॉडल को अपनाने की बात करते हुए सतत विकास को लक्ष्यों को प्राप्ति हेतु सामूहिक जागरूकता के साथ सभी सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थानों को सामूहिक जवाबदेही के साथ कार्य करने की विशेष जरूरत पर बल दिया। उन्होंने कहा है कि हिमालय राज्य के रूप में उत्तराखंड में हो रहे विकास पर हर किसी की सामूहिक जबाबदेही भी निहित होनी चाहिए। उन्होंने कहा है कि भू-गर्भ वैज्ञानिक, भूतल वैज्ञानिक, मौसम वैज्ञानिक और पर्यावरणीय संतुलन पर कार्य कर रहे वन्य व जंतु वैज्ञानिक अपनी ओर से बड़ी शिद्दत के साथ हिमालयी परिवर्तनों पर नजर गढ़ाए हुए है। मुझे लगता है इस सब पर आम जन को भी मॉनिटरिंग करने की आवश्यकता है।

हिमालय के शोध और अनुभवों को जनमानस तक पहुंचाने की आवश्यकता- कर्नल अजय कोठियाल

यूथ फाउंडेशन ऑफ़ इंडिया के संस्थापक अध्यक्ष एवं केदारनाथ आपदा के पुनर्निर्माण का नेतृत्व करने वाले कर्नल अजय कोठियाल जी ने वैज्ञानिकों के विशेष शोध व अनुभवों जनमानस तक पहुंचने की विशेष जरूरत माना तथा उनकी तकनीकी सलाह को सभी संस्थानों को संजीदगी एवं संवेदनशीलता के साथ उनकी आपत्तियों एवं सहमतियों को लागू करने की आवशयकता की बात कही।

 नीतिगत फैसलों के दृष्टिगत हो विकास- डॉ प्रणव पाल

वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के अवकाश प्राप्त वैज्ञानिक डॉ प्रणब पॉल ने वन संरक्षण, जलवायु परिवर्तन तथा जीव जंतुओं पर आने वाली चुनौतियों एवं मानव-प्रकृति के संतुलन की वैज्ञानिकता एवं शोध आंकड़ों एवं जानकारियों का संस्थानों के मध्य आदान प्रदान किये जाने की विशेष जरूरत को बताया तथा उन्होने कहा जब तक हम इन तथ्यों के आधार पर नीतिगत फैसले नहीं लेंगे तब तक इन समस्याओं से निजात नहीं पाया जा सकता।

जल स्रोतों, धाराओं पर जलवायु परिवर्तन का बड़ा असर- डॉ गौरव

दिल्ली विश्विद्यालय के इंद्रप्रस्थ महाविद्यालय के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर डॉ गौरव ने जलवायु परिवर्तन के हिमालयी क्षेत्र के प्राकृतिक धारों एवं जल स्त्रोतों पर नकारात्मक प्रभावों के करणों की चर्चा की तथा समाधान हेतु वैज्ञानिक विशेषज्ञता एवं जन सहभागिता के एकीकृत एवं समन्वय की विशेष आवश्य्कता की बात कही।

परम्परागत समुदाय आधारित ज्ञान को तथा नवीनतम वैज्ञानिक शोध के साथ एक बेहतरीन समंजस्य की नित्तांत आवशयकता – नेत्रपाल यादव

विचार गोष्ठी का संचालन करते हुए फोर्ड फ़ेलो एवं संस्थापक निदेशक नोबेल पीस फाउंडेशन इंडिया के नेत्रपाल सिंह यादव ने हिमालय संवाद के माध्यम से इस विचार गोष्ठी की निरंतरता तथा सार्थकता पर विशेष बल देते हुए कहा कि हमें परम्परागत समुदाय आधारित ज्ञान को तथा नवीनतम वैज्ञानिक शोध के साथ एक बेहतरीन समंजस्य की नित्तांत आवशयकता है, तभी हम सतत विकास की मूल संकल्पना को अर्जित कर सकेंगे,  उन्होंने विज्ञान एवं आध्यात्मिकता के सामंजय के महत्व एवं उपयोगिता की चर्चा की।

तेजी से सूख व घट रही हैं नदियाँ- रतन सिंह असवाल 

विचार गोष्ठी में ‘पलायन एक चिंतन’ के संयोजक रतन सिंह असवाल ने जमीनी मुद्दों की वकालत करते हुए कहा कि हम सिर्फ मौसम परिवर्तन और हिमालय को ही केंद्र बिंदु न बनाए बल्कि इस बिषय को भी दृष्टिगत रखें कि आखिर आये दिन उत्तराखंड में आ रही आपदाओं के पीछे कारण क्या हैं? क्या ये आपदाएं मानव जनित हैं या फिर सरकार जनित? उन्होंने कहा कि प्रदेश की 100 से 200 नदियाँ अपना अस्तित्व खो चुकी हैं जबकि 500 से अधिक नदियाँ सिर्फ बरसाती पानी वाली नदियाँ बन गयी हैं। उन्होंने कहा कि उत्तराखंड में बमुश्किल 15 से 20 नदियाँ ही ग्लेशियर से निकलती हैं बाकी ताल बुग्याल व वन्य शिखरों के जल संवर्धन से निकलती हैं लेकिन अब इनके अस्तित्व पर भी खतरा मंडराने लगा है। उन्होंने कहा कि उच्च शिखरों के बुग्याल अपने में पानी समेटने में सफल इसलिए नहीं हो पा रहे हैं क्योंकि आपने वहां चरान व चुगान बंद कर दिया है। जब तक इन बुग्यालों में भेड़ बकरियां, भैंस, गाय-बैल इत्यादि विचरण करते थे तब तक उनके खुर्रों से उखड़ी घास के नीचे बने गड्डे बरसा का जल अपने में समेटने में कामयाब थे, आज यह सब बंद होने से बारिश का जल सीधे नदियों में प्रवेश कर भारी नुकसान के संकते दे रहा है। असवाल ने कहा कि पलायन की जद में गाँवों की बंजर भूमि के रूप में तब्दील होते खेतों में हल न चलना भी एक कारण है क्योंकि उन बंजर खेतों में भी बर्षा का जल नहीं समा रहा है। ये भी एक कारण मौसम परिवर्तन न सही प्राकृतिक आपदाओं से जोड़कर देखा जा सकता है।

लोक परम्पराएं, पहाड़ और पर्यावरण बचेगा तो जल जंगल जमीन सुरक्षित- मनोज इष्टवाल

हिमालयन डिस्कवर फाउंडेशन के चेयरमैन मनोज इष्टवाल ने एक आम आदमी की विचारधारा को हिमालय से जोड़ने हुए उस लोक समाज से अपनी बात की शुरुआत की जो धरती को माता और कुर्म अवतार को देवता मानकर उसकी पूजा करता है। उन्होंने कहा कि उत्तराखंड वही प्रदेश है जहाँ की मातृशक्ति एक पेड़ के जन्म का उत्सव मनाती हैं, गीत गाती, नृत्य करती हैं और उस पेड़ की पूजा करती हैं। पेड़ों के अवैध कटान यहाँ जनगीत के रूप में उभरते हैं। आज पलायन की मार ने यहाँ पेड़ों की उत्पत्ति कई गुना बढ़ा दी है उससे मौसम परिवर्तन में तब्दीलियाँ तो हो सकती हैं लेकिन अतिवृष्टि से आपदाओं का जन्म संभव हो यह कह पाना कहाँ तक सही है, मैं नहीं जानता। उन्होंने गंगोत्री ग्लेशियर में आई दरारों पर प्रश्न उठाते हुए कहा कि आखिर जब से हिमालयी क्षेत्रों में बांधों के निर्माण कार्य शुरू हुए हैं तभी से हिमालय में ग्लेशियरों की कार्यशैली पर अचानक बदलाव क्यों आया है? और अगर पानी का उच्च हिमालयी शिखरों से कोई वास्ता नहीं है तब अलकनंदा के जल के रंग बदलने के बाद कई किमी. ऊपर बसे सुमाडी गाँव के नाव (कुंवे) का जल भी उसी की तरह गुंदमैला कैसे हो जाता है? कैसे उसमें अलकनंदा की मछलियाँ यदाकदा दिखाई देती हैं। यही हाल रुपिन सुपिन नदी क्षेत्र से कोसों दूर स्थित देवक्यार ताल का भी है और यमुना के शीर्ष क्षेत्र के सरू ताल का भी…! संभव है कि इन बाँधों का जल भी भूगर्भ के अन्दर वही काम कर रहा हो जैसे मानव शरीर में रक्त संचार करती नसों का होता है। यूँ भी उत्तराखंड का मध्य हिमालयी क्षेत्र बेहद नया माना जाता है व इसमें पठारी भू-भाग नामात्र का है। ऐसे में जल अपना रास्ता अंदर ही अन्दर कहा बना रहा है, यह शोध का बिषय है व इस पर भी वाडिया भूविज्ञान संस्थान व फारेस्ट रिसर्च इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया के वैज्ञानिकों को शोध करना चाहिए।

सरकारी अधिकारी अपनी खामियां लोक समाज पर नहीं थोप सकते- हरीश सनवाल

हरीश सनवाल ने अपनी बात रखते हुए इस बात पर आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा कि सरकार द्वारा संचालित की जा रही समस्त योजनायें जो भी वन, प्रकृति व डिजास्टर सिस्टम के लिए बनाई जा रही हैं, या बन चुकी हैं उन पर गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा मॉनिटरिंग की जानी चाहिए ताकि कागजों में बनी योजनाओं की हकीकत आम जन के सामने आ सके। उन्होंने कहा कि आखिर सरकारी सिस्टम इस बात की अपेक्षा क्यों करता है कि जंगलों में लगी आग बुझाने के लिए गाँव के लोग भी सहयोग करें जबकि आपने ग्रामीणों का जंगलों में प्रवेश वर्जित कर दिया है। ऊपर से तुर्रा ये है कि हम उन वन्य पशुओं को भी अपने खेतों में आने से न रोकें जो हमारी फसलों को नुकसान पहुंचा रहे हैं, उन हिंसक जानवरों को प्रति भी हम सब सकारात्मक रवैया अपनाए जो हमारे नौनिहालों को घरों से उठाकर ले जाते हैं। हमें ऐसे प्रकरणों पर सजग रहने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि हिमालय तभी तक जिन्दा है, जब तक हिमवासी उसे अपने लोक के हिसाब से जिन्दा रखे हुए हैं।  

130 बर्ष पूर्व के रिकॉर्ड की बराबरी की इस बर्ष तापमान ने- पद्मश्री प्रेम चंद शर्मा

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे पद्मश्री प्रेम लाल शर्मा ने प्रश्न उठाते हुए कहा कि अगर जलवायु परिवर्तन हुआ है तो 130 बर्ष पूर्व भी इस बर्ष की भांति गर्म हुआ था तब भी क्या ऐसा जलवायु परिवर्तन रहा होगा? और अगर ऐसा हुआ है तब यह निहित है कि हर सदी में मौसम करवट बदलता है।

राहुल वशिष्ठ ने कहा कि प्रबन्धन के दृष्टिकोण से इस समस्या का निधान नीतिगत आधार पर ज्यादा फलदायी होने की सम्भावना है। इसके अलावा उत्तरांचल उत्थान परिषद् के यशोदानन्द कोठियाल,  दान सिंह बिष्ट, सीमान्त गाँव वाण (चमोली) के उमेद सिंह,  दून विश्वविश्यालय के भूगोल विभाग के शोधार्थी बिनीता, अमित बोरा, बिमल बडोला, सब्बल सिंह पुण्डीर इत्यादि अनेक विभिन्न क्षेत्रो के लोगो ने अपने विचार-अनुभवों को साझा किया।

 

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