Friday, October 18, 2024
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समैणा, सोरणी कु बबल्या (आँछरियां)! नकदार का ध्वर्या उड्यार व पास्ता के पंडित जूपा पांडे!

समैणा, सोरणी कु बबल्या (आँछरियां)! नकदार का ध्वर्या उड्यार व पास्ता के पंडित जूपा पांडे!

(मनोज इष्टवाल ट्रेवलाग 14 अक्टूबर 1995-96)

गतांक का अंतिम पैराग्राफ…..!(कहते हैं आटा गोंदते वक्त पानी की कमी पड़ी तो लोधी रिखोला की माँ ने कहा वह ग्याड़ा ही उठाकर ले आओ ! सब हंस पड़े! उनमें से एक ने कहा कि हम भौं रिखोला जैसे बलशाली थोड़े हैं! यह बात आठ साल के बालक लोधी रिखोला को नागवार गुजरी और वह पनघट से अकेले ही पानी का भरा ग्याडा लेकर आ पहुंचे! पूरे गाँव में आये मेहमानों के बीच लोधी का यह बल चर्चा का बिषय बन गया और सब जगह खबर पहुँच गयी कि भौं रिखोला का पुत्र भी अपने बाप की तरह वीर भड है!)

गतांक से आगे……

कहते हैं लोधी/लोदी रिखोला की माँ मैणा देवी ही सिर्फ इस ख़ुशी से खुश नहीं थी क्योंकि वह जानती थी कि भड पैदा होने का सीधा अर्थ हुआ उस हमेशा युद्ध के लिए तत्पर रहना! वह अपने पति भौं रिखोला जैसे वीर भड की पत्नी कहलाने में गौरव अवश्य महसूस करती थी लेकिन लड़ाई से लौटकर आये भौं रिखोला के तन में लगे बर्छी, भाले व तीर तलवार के घाव भरने में उसे दिन रात जड़ी बूटियों के साथ उनके बहते लहू व शरीर के घावों को सुखाने की जो पीड़ा महसूस होती थी वह सब सब हृदय से जानती थी!

कल्पित ध्वर्या उड्यार

बहरहाल लोदी रिखोला के गाँव में आज कोई पूजा थी इसलिए सभी लोग वहां कई लोगों से मिलने का अवसर मिलने जिनमें एक बड़ी मूछों वाले ठाकुर साब थे अब उनका नाम ही ठा. ठाकुर सिंह रिखोला हुआ तो उनकी मूछों में ताव होना ही था! साथ ही एक पंडित जी मिले- नाम हुआ पंडित जूपा पांडे…! गाँव पास्ता!

बस मुझे इतना ही चाहिए था! ठाकुर साहब शायद फ़ौज से हाल ही में सेवानिवृत्त हुए थे! लोदी रिखोला का जिरह आते ही उनकी छाती चौड़ी हो गयी मूछों की बलबलाहट बता रही थी कि उनकी छाती के बाल भी बलबलाने लगे व तन के रोंवें खड़े हो गए! वे बोले- पंडित जी, हम सूर्यवंशी राठौर शाखा के राजपूत हैं! हमारे झड़दादा लोग राजस्थान से आकर पहले पश्चिमी उत्तर प्रदेश के थाना भवन क्षेत्र में बसे और बाद में आकर कोटा-बयेली (गढवाल) में आ बसे! हमार पड़दादा, झड़दादा लोदी रिखोला किसी भीम से कम नहीं थे उन्होंने राजा महिपत शाह के राजकाज में बतौर सेनापति गढ़वाल राज्य का विस्तार तिब्बत तक किया! वे अपनी पूरी रौ में थे और बोले ही जा रहे थे- अब तक पंडित जूपा पांडे बीडी सुलगा चुके थे! तो ठाकुर साहब का ध्यान भंग हुआ! बोले- अबे बामण, तू भी यार..! फिर सिगरेट की डिब्बी निकालते हुए बोले- ले इसे रख ले! पंडित जी मुस्कराए व बोले- ये हुई न बात! फिर बोले-

मंगलाचार, मंगलाचार, बड़ा सरकार बड़ा दरवार!

राज मुसद्द्दी राज परिवार!

बेटा बेटांन को राज बढ़े, नाती पोतान को राज बढे!

कुल को दीवा सब पर नेह करे, डेटा-धाता गुण से भरपूर करे!

डांडयों म फूल, धरती पर अन्न को भंडार भरे!

ग्यानी पंडित सदा गरीब रहे, छत्री का हथ रक्षा को हमेशा शस्तर रहे!

मैंने पहली बार गौर से पंडित जी की ओर देखा! हाथ में घूंघा लाठी, एकहरी काया के, सर पर टोपी, गले में गमछा, खादी का कुर्ता पैजामा, व फत्वी! मैंने मन ही मन प्रशंसा की! अब लगा कि यह पंडित वास्तव में ज्ञानी है! उनके इस यशोगान ने ठाकुर साहब के चेहरे पर चमक के साथ हंसी ले आई थी! बोले- बस बस बामण! मतलब हमें तो तुमने पहरेदारी पहले भी सौंपी! अपने आप गरीब बनकर घर बैठे माल-पुवे डंकारते रहे और हमें पहले तलवार और अब बन्दूक पकड़ाकर देश सेवा के लिए समर्पित कर दिया! यह ठट्ठा मजाक चलता रहा लम्बा बिषय है इसलिए इसे संक्षेप किये देता हूँ!

फाइल फोटो

फिर हम घर के बाहर आये तो ठाकुर साब ने नयार पार की ताम्बानुमा चट्टान की तरफ अंगुली उठाते हुए कहा कि वो रही सोरणी की आंछरी गुफा..! जहाँ से हमारे पूर्वजों को परियां, एड़ी आँछरियाँ जाज कारिज (शुभ कार्यों) के लिए बर्तन मुहैय्या करवाती थी! आज भी चांदना में रात्री काल में वहां कभी कभी उजाला दिखता है व घुघुरुओं की घमक, नृत्य, हंसी, खिलखिलाहट, अट्टाहास इत्यादि की आवाजें सुनाई देती है! फिर क्या था भला पंडित जूपा पांडे चुप रहने वाले थे! यूँ भी जितना मेरी नजरों ने उनका एक्सरे किया था उससे यह साफ़ हो गया था यह बिद्वान व वाचाल पंडित हैं! पंडित जूपा पांडे ने हाथ जोड़े और बुदबुदाए:-

“प्रियहास्या प्रियक्रोधा: प्रियवासा प्रियंवदा! सुखप्रदाश्च सुखदा: सदा द्विजजनप्रिया:!!

नक्तंचरा सुखोदर्का: सदा पर्वणी दारुणा! मातरो मातृवत्पुत्रं रक्षन्तु माम नित्यशः!!

(जो कभी प्रसन्न होकर हंसती हैं तो कभी रुष्ट होकर क्रोध प्रकट करती है, जो सुंदर स्थानों में विचरण करती हैं, मधुर वचन बोलती हैं, जो कभी सुख भी देती हैं तो कभी दुःख भी देती हैं, जो द्वीजातीय तथा पक्षियों से प्रेम करती हैं, जो रात्री में विचरण करती हैं, जो पर्वकालों में अपने दारुण स्वभाव का परिचय देती हैं, वे मातृकाएं मेरी प्रतिदिन रक्षा करें, जैसी रक्षा माता अपनी सन्तान की करती है!) …हरिवंश बिष्णुपर्व १०९/६१-६२

यकीनन पंडित जूप पांडे के इस श्लोक ने मुझे अंदर तक हिलाकर रख दिया था क्योंकि मैं इस मामले में अपने को ज्यादा विद्वान् समझने की अब तक भूल कर रहा था लेकिन जब “मातृका शास्त्र” के यह श्लोक उन्होंने बोले तो मैं समझ गया कि यह पंडित दिखने में झेन्तु हो सकता है लेकिन बहुत ज्ञानी है! यह एडी आंछरी, भराड़ी, परी, नरपिचासिनियों के तंत्र मन्त्र की अच्छी जानकारी रखते हैं क्योंकि बिष्णु पर्व पढने व जानने वाले आज भी चुनिन्दा ही पंडित हैं!

बिषयगत बातें यूँहीं चलती रही तो यह लेख लंबा हो जाएगा! बयेली गाँव पहुँचने से पहले मैं लोदी रिखोला की पराक्रम गाथा पर पूर्व में कई पुस्तकें पढ़ चुका था जिनमें Early Jesuate Travellers in Central Asea (1603-1721), जहाँगीरनामा (मुंशी देवी प्रसाद), अकबर द ग्रेट खंड-2 (श्रीवास्तव), द तुजुक-ई-जहाँगीरी (हेनरी/ए रोजर्स), आईने अकबरी (ब्लाचमैन/जैरेट), टिहरी राज्य अभिलेख रजिस्टर -4 (गढवाल का ऐतिहासिक वृत्तांत), गढवाल का इतिहास (हरिकृष्ण रतूड़ी), हिस्ट्री ऑफ़ गढ़वाल 1358-1947 (अजय सिंह रावत), सिरमौर गजेटियर, गढवाल गजेटियर, हिमालय परिचय गढ़वाल (राहुल सांकृत्यान), उत्तराखंड का राज. तथा सांस्कृतिक इतिहास भाग-१ से १० (डॉ. शिब प्रसाद डबराल चारण) तथा उत्तराखंड का नवीन इतिहास (डॉ. यशवंत सिंह कठोच) इत्यादि शामिल हैं!

यहाँ यहाँ मात्र 8 बर्ष में यानि महिपतशाह के राजकाल (1624-1631) में गढवाल राजा को सदी के सबसे नायब सेनापति मिले जिनमें लोदी रिखोला, माधौ सिंह भंडारी, बनवारी लाल तुन्वर व दोस्तबेग मुग़ल शामिल हैं! जिन्होंने गढ़वाल राज्य विस्तार सुदूर तिब्बत से लेकर सिरमौर तक व सहारनपुर तक फैलाया! इन्हीं के कारण राजा महिपत शाह द्वारा कुमाऊं नरेश त्रिमलचंद को फिर से वहां की राजगद्दी में बिठाया! इन्हीं के कारण इस राजा की प्रसिद्धी इतनी फैली कि राजा महिपत शाह को “गर्व भंजन” के नाम से जाना जाने लगा! यानि दुश्मन इनका नाम सुनकर ही कांपते थे!

ऐतिहासिक तथ्यों को छोड़ अब मेरा लक्ष्य किसी भी सूरत में वो तमखणी की आँछरी गुफा थी जहाँ पहुंचना बेहद जटिल काम था लेकिन मुझ जैसे सनकी आदमी के लिए यह सचमुच इतना मुश्किल भी नहीं था!

दिमाग में आया क्यों न अब पंडित जूपा पांडे का दामन थामा जाय! उन्हें बोला- पंडित जी, आपसे तो ज्यादा बात हो नहीं पाई और देखते ही देखते शाम ढलने को आ गयी! बोले- कोई बात नहीं ऐसा करते हैं मुझे आज रात के लिए मोळखंडी जाना है! एक से दो भले..! मैं बोला- लेकिन मैं वहां आकर क्या करूँगा? वे बोले- अरे वहां भी ये रिखोला जाति के ही वंशधर हैं! वहां से भी आप जानकारी जुटा सकते हैं! मैं परवश होकर उनके साथ पैदल-पैदल सडक-सड़क चल पड़ा! रास्ते में उन्होंने बताया कि मोळखंडी गाँव भी दो हैं एक को अकरी बोलते हैं व दूसरे को सकरी! हमें सकरी जाना है जहाँ रिखोला के वंशज आ बसे थे! अकरी का मतलब हुआ जहाँ भूमि कर न देना पड़े ! सकरी का मतलब हुआ जिस भूमि पर कर देना पड़े!

काश…मुझे उन ठाकुर साहब का नाम पता चल पाता जिनके घर हम रात्री बिश्राम के लिए रुके थे व हमारी खूब आवाभगत हुई थी! तब सतपुली दुधारखाल सडक मार्ग पूरा कच्चा था! यहाँ एक आध गाडी ही आया करती थी इसलिए इस ओर मेहमान के लिए शाम की साग़-सब्जी की व्यवस्था बड़ी मुश्किल हो जाया करती थी! शाम को आलू चना व रोटी! सुबह नाश्ते में चना व रोटी देख पंडित जूपा पांडे घोड़े की तरह हिनहिनाये! उन्होंने अपने मुंह से घोड़े के हिनहिनाने की आवाज निकाली तो मैंने चौंककर उनकी ओर देखा! अब ठाकुर साहब बोले- अरे पंडत..! मैं समझ गया हूँ यार! अब तू ही बता तेरे लिए साग सब्जी कहाँ से लाऊं! तेरा कहने का मतलब है कि हम घोड़े हो रखे हैं जो चने ही खिला रहा है! पंडित जी व ठाकुर साहब हंस पड़े! लेकिन मैं शर्मिंदगी महसूस कर रहा था क्योंकि एक तो उन्होंने आदर के साथ हमें खाना रोटी सोना सब उपलब्ध करवाया ऊपर से पंडित जी ने कच्ची करवा दी! लेकिन विदाई के समय जब 20 रूपये का तिलक लगा तो मैं बड़ा प्रसन्न हुआ! सोचा चलो किराया तो निकला!

15 अक्टूबर 1995

नीचे सडक में उतरकर पंडित जूपा पांडे अपने दूसरे मार्ग को निकल गए व आमडाली से उतरकर मैं डौंर गाँव की ढलान उतरने लगा! क्योंकि मेरा लक्ष्य आँछरी गुफा थी! मुझे पता था कि मेरी फूफू जी की पुत्री साबी दीदी की ससुराल नकधार के धस्माना लोगों में है! भले ही दीदी का परिवार अब सतपुली में रहता है लेकिन उसकी जेठानी व जेठ जी गाँव में ही हैं! मैं लगभग 9 बजे सुबह जब नकधार पहुंचा तब खुद पर शर्म महसूस हो रही थी क्योंकि गढ़वाल में मेहमान अक्सर शान्यकाल ही किसी के घर जाते हैं! दुआ सलाम हुई तो दीदी के जेठानी मुझे देख बहुत खुश हुई उन्होंने न्यायोचित्त सम्मान दिया व चाय पानी के साथ जैसे ही मैंने अपना मकसद बताया उन्हें बड़ी हैरानी हुई! उन्होंने आवाज लगाईं और पता किया कि क्या हो सकता है! यह मेरी किस्मत ही समझिये कि तब गाँव की एक महिला जिस पर देवता आता था व वह नितकर्म में नयार नदी में स्नान कर वहीँ स्थित ध्वर्या उड्यार में पूजा पाठ करती थी, वह व उनके साथ गाँव की कुछ लडकियां व बच्चे भी नयार में जाने को तैयार थे! दीदी की जेठानी की लडकियां चम्पा व अन्य भांजी भी झट-पट तैयार हुई और हम गाँव लांघते हुए नयार में उतर गए!

यह अफसोसजनक था कि तब मेरे साथ मेरा कैमरा तो था लेकिन उस जमाने में रील वाले कैमरे होते थे जिनसे मैंने कई फोटो खींचे लेकिन उन्हें मैं अपने पास संग्रहित इसलिए नहीं कर पाया क्योंकि इसके बाद मैं पुनः दिल्ली नौकरी पर लौट गया था व कैमरा रील गाँव ही छूटनी थी! दुर्भाग्य से ऐसी कई दुर्लभ फोटो उन रीलों में ही कैद रह गयी जिन्हें मैं धुलवा नहीं सका!

ध्वर्या उड्यार के नजदीक जैसे ही हम पहुंचे श्रीमती चन्द्र्मती धस्माना पर देवता खेलना शुरू हो गया! वह नाचती हुई नदी में प्रविष्ट हुई और जल स्नान करने लगी! देखते ही देखते सभी बच्चों व लड़कियों ने भी गोते लगाए व स्नान शुरू हो गया! मैं ठहरा ठेठ ऊँची छोटी पर रहने वाला मानस..! और ये ठहरे नयार घाटी के! इसलिए इनका रोज का काम नदी में तैरना हुआ! मैंने कुछ फोटो खींचे और बाद में यह देखकर कि कहाँ कितना पानी होगा मैं भी हलकी झुरझुरी लेकर ठंडे पानी में नहाने लगा! अब हम पास ही गुफा में प्रविष्ट हुए जिसे ध्वर्या उड्यार नाम से जाना जाता है! सैकड़ों की संख्या में उलटे लटके चमगादड़ों के झुण्ड चीन-चीं-चीं करके तेजी से उड़ने लगे! पूरी गुफा चमगादड़ों से भर गयी थी! यह सचमुच मेरे लिए बेहद डरावना व भयावक मंजर था! हमारी अगुवाई करने वाली श्रीमती चन्द्रमति धस्माना हाथ में दूध की बोतल व अक्षत पुष्प पकडे थी वह एकदम बैठ गयी! उनके पीछे अनुशरण करने वाले सभी जमीन पर बैठ गए! मैं जब तब कुछ समझना चमगादड़ों की ड़ार मेरे सिर व कान के बगल से तेजी से आवाज करती हुई बाहर निकल पड़ी! मेरी चीख निकल गयी लेकिन फौरन मैं भी बैठ गया!

कुछ देर बाद गुफा शांत नजर आई! तो श्रीमती चंद्र्मती धस्माना बोली- आवा, आवा डर की कोई बात नहीं! सचमुच यह गुफा तिलिस्मी थी! जहाँ इसके मुख्य भाग में चमगादड़ों के मल की बदबू आ रही थी वहीँ अंदर असंख्य देवी देवताओं की आकृतियाँ स्वनिर्मित दिखाई दे रही थी! श्रीमती चन्द्रमति धस्माना जी मुझे एक एक करके सब मूर्तियों का ज्ञान दर्शन दे रही थी! फिर पूजा अर्चना प्रारम्भ हुई कहीं धुप कहीं अक्षत कहीं दूध की धार बह रही थी! पूरी गुफा के अंदर उपर से पानी की बूंदे टपक रही थी! लेकिन यह एक बेहद आश्चर्यजनक बात थी कि ये बूंदे सीढ़ी हम पर न गिरकर स्वनिर्मित उन सभी मूर्तियों के ऊपर से गिरकर हमारे उपर आ टपक रही थी! शांत मन चित्त से पूजा अर्चना करने के बाद मैंने अपनी भांजी चम्पा से पूछा- चम्पा ये बता कि यहाँ परियों यानि एड़ी आंछरियों की गुफा कहाँ है? उसने अपना दांया हाथ नयार पार की उन ताम्बे के रंग की चट्टानों की ओर उठाते हुए बताया वो देखो वो रही! गुफा का द्वार दिखाई दे रहा है! वहां आज भी अगर आप कोई पत्थर फैंकों तो उसकी आवाज दूर तक पहुँचने की सुनाई देती है! जिसका मतलब यह है कि गुफा आज भी बहुत लम्बी है!

अब बारी श्रीमती चन्द्रमति धस्माना की थी वो बोली- भुलू..(भाई), मैंने तो कई बार देव रथ के दौरान उन्हें अपने साथ स्नान करते हुए महसूस किया है! उन्हें उड़कर गुफा में प्रविष्ट करते भी देखा है! हो न हो वह इस इस समय भी हमारे साथ हों! लेकिन वे हमें दिखाई नहीं देंगी! यह दुर्लभ संजोग है कि किसी के गृह चाल अगर बहुत ठीक हों या फिर बहुत गिरे हों या फिर जो मनुष्य पूरे नियम धर्म के साथ हो वह उसे अवश्य दिखाई देती हैं! मैंने एक नहीं सात आंछरियों को एक साथ देखा है लेकिन तब जब मुझ पर देवता चढ़ता है! मैं इस निर्जन स्थान में आकर घंटों पूजा करती हूँ लेकिन कभी भी किसी ने मुझे नुक्सान नहीं पहुंचाया है! कई बार तो इस गुफा से बाघ बाहर निकलते देखा है मैंने..! फिर वह बायीं तरफ नदी के दूसरे छोर पर अंगुली से बताने लगी वो देख..वो है समैणा सोरुण (समैणा गुफा)! जो सीधे ग्वली गाँव निकलती है! वहां जब भी कोई समैना पूजा होती है तो गाँव में स्थित सुरंग में ही वह बलि व समैणा का प्रसाद डालते हैं जो कई किमी. दूर स्थित इस गुफा के द्वार पर मिलता है! गुफा के द्वार के नीचे ढन्ड (तालाब) है जिसमें लोग स्नान से इसलिए कतराते हैं क्योंकि उसे समैणा ढन्ड के नाम से ही जाना जाता है! पहले ये परियां यहाँ के कई गाँवों में शुभकार्यों के लिए बर्तन दिया करती थी लेकिन हम औरतों ने उनके बर्तनों में कोई जूठा बर्तन भी भेज दिया तब से यह सिलसिला रुक गया! मुझे याद हो आया कि जो फोटो सुप्रसिद्ध रंगकर्मी वसुंधरा नेगी ने श्रम साध्य कर मुझे भेजी थी वही समैणा गुफा है!

समैणा गुफा!

फिर लम्बी सांस छोडती हुई बोली- भुलू, अब न भूत ही रहे न देवता ! क्योंकि अब मनुष्य से बड़ा भूत व देवता कोई नहीं रहा! हम लोगों के लिए प्रकृति अब एक खिलौना है जबकि कभी यही प्रकृति हम सबकी आराध्य होती थी! इसी के बलबूते पर हमारी आस-सांस चलती थी! आज भी मैं इन चौ दिशाओं को नमस्कार करके कहती हूँ कि सब कुछ ठीक है भगवान् लेकिन हमारी देवभूमि में मनुस्यात बनाकर रखना! एक ग्रामीण अनपढ़ महिला के मुंह जब इतने भारी भरकम शब्द सुने तो यकीन मानिए श्रद्धा से उनके आगे सिर झुक गया ! वापसी में चढ़ाई चढ़ते हुए मैं इसी उधेड़बुन में रहा कि क्या सचमुच अब मनुष्य स्वयं ही भूत/मसाण/पिचास/एड़ी/आँछरी या देवी देवता बन गया है क्योंकि जो बचपन में हमारे साक्षात्कार थे वह अब कहाँ चले गए क्योंकि अक्सर संध्या काल में छोटे बच्चों पर भूत चिपक जाया करते थे जिन्हें बभूत लगाकर, कंडाली लगाकर भगाते थे व भूत एक रोटी में कभी गुड, कभी नमक कभी हरी सब्जी माँगा करता था! शायद ये वो लोग थे जो अकाल मौत मरे और उनकी आत्माएं एक युग तक भटकती रही होंगी! अब न अकाल मौतें हैं न ऐसी आत्माएं! यह सत्य सा प्रतीत होता है कि अब हम में अहं ब्रह्मसि वाला अहम आ गया है!

(समाप्त)

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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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