Saturday, May 17, 2025
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आँछरीखाल…! जहाँ हर लेती थी सात बैणी आँछरी।

नौ बैणी आंछरी ऐन, बार बैणी भराडी
क्वी बैणी बैठींन कंदुड़यो स्वर
क्वी बैणी बैठींन आंख्युं का ध्वर
छावो पिने खून , आलो खाये माँस पिंड।

(मनोज इष्टवाल)

क्या ये सत्य घटनायें थी या सिर्फ़ एक ऐसा डर था जो पीढ़ी दर पीढ़ी सैकड़ों बर्षों से हमारे बुजुर्ग हमें कथागोई के रूप में सुनाया करते थे? अगर ऐसा होता तो आज भी कफलना गाँव की देवपूजा में माँ भगवती भुवनेश्वरी के थान में फिर कैसे नृत्य करने पहुँच जाती हैं ये सात बैणी आँछरियाँ…! आखिर कहाँ गया वह संगमरमर का पहाड़ जिसके सात घणतीर इन साथ बहनों के लिए चढ़ाये जाते थे? सुमाड़ी गाँव के काला बंधुओं ने आखिर क्यों कीला इस मंदिर को? ऐसी क्या वजह रही कि वर्तमान के वैष्णोदेवी मंदिर के स्थान से उठाकर इन सात बहनों को “खाल” अर्थात तालाब में स्थापित करना पड़ा? आने-जाने वाले बटोहियों को क्यों हर लिया करती थी ये परियाँ? ऐसे बहुत सारे प्रश्न सभी के मन मस्तिष्क में उमड़ते घुमड़ते होंगे लेकिन हम इनके जबाब को तलाश करने में नाकाम रहते हैं।

आइये मेरे शोध और आमजन की राय में इस सब पर क्या राय है, जान लेते हैं। उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल कमीशनरी से मात्र 09 किमी दूरी पर पौड़ी -घुड़दौड़ी-देवप्रयाग मोटर मार्ग में बसा आँछरीखाल अपने प्राकृतिक सौंदर्य के कारण आपका मन मोह लेता है। यह मात्र एक ऐसी जगह है, जहाँ पहाड़ सड़क से नीचे हो जाते हैं। यहाँ से हिमालयी शिखरों का सुरम्य दर्शन होता है और मन कुछ पल के लिए स्वतः ही स्फूर्त कहें या विचलित हो जाता है।

आँछरी खाल के बारे में स्थानीय लोगों के अलग – अलग मत हैं। ज्यादात्तर लोग इन्हें सात बैणी आँछरी के रूप में ही जानते हैं, इनके क्या नाम हैं ये कोई नहीं जानता।

आइये जानते हैं कहाँ से आई आँछरी खाल की सात बैणी आँछरी 

ढ़ोल सागर के प्रबुद्ध ज्ञाता पट्टी – डागर, गंवाणा राड़ागाड़ निवासी श्री ओंकार दास जी ने ढ़ोल पर चर्चा के दौरान खैट व पीढ़ी पर्वत की आँछरियों (परियों) का किस्सा सुनाया कि ये सात बहनें स्वैच्छाचारिणी रही। इनका जब मन होता तब ये रमणीक स्थलों की ओर चली जाती और जब इच्छा होती वापस खैट व पीढ़ी पर्वत लौट आती। ये अक्सर बसंत ऋतु में खैट पर होती व अन्य ऋतुओं में शिवालिक की निचली श्रेणियों में ऐसी जगह रहती जहाँ इन्हें जल क्रीड़ा के लिए ताल मिल जाएँ। ये हेमंत ऋतु में पौड़ी के आँछरी ताल में रहा करती थी। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि एक बार मैं अपनी डागर पट्टी के किसी गाँव में देवियों की वार्ता लगा रहा था तो बार बार मेरी लांकुड़ (गजाबल) आपस में टकरा जाते। मैं हैरान परेशान हुआ तो हाथ जोड़कर माँ भगवती भुवनेश्वरि से क्षमा याचना करते हुए बोला – “त्वम् वैष्णवीशक्तिरनन्तवीर्य्या विश्व बीजम् परमाsसि माया। सम्मोहितम् देवी समस्तमेत त्वम्बे प्रसन्ना समस्ता: सकला जगस्तू।।” फिर माँ के पश्वा को कहा – माँ माफ़ करना, मुझसे कहाँ चूक हो रही है जो मेरी लांकुड़ आपस में ही लड़ रही हैं। तब माँ का जबाब आया – तूने सात बैणी आँछरियों को पराज लगा दिए हैं। अब उन्हें बुलावा भेज़… चिंता न कर मैं हूँ ना। फिर मैंने नौ ताल बजाई। नवम् खंड हरिखंड का रूप म ‘हरिखंड मो बैकुंठ द्या पति तुमको नमो नम:। नौ खंडी देवतों का ध्यान करदो नमन करदो। सुता जगौँदो रूठा मनौन्दो।।’

ओंकार दास बोले- बस, ढ़ोल व ताल क्या बजी। सातों बहनें नृत्य करने उतर आई। करीब डेढ़ घंटे झूलने के बाद खुश होकर बोली- अब हमें वापस लौटना है आँछरीखाल…। इस घटना की चर्चा 08 अगस्त 2017 में ओंकार दास जी के साथ तब हुई थी, जब संस्कृति विभाग के आवाहन पर सम्पूर्ण उत्तराखंड का ढोली समाज संस्कृति एवं धर्मस्व मंत्री सतपाल महाराज जी के प्रेम नगर आश्रम हरिद्वार में विश्व कीर्तिमान के लिए एकत्र हुए थे। तब से मेरे मन में आँछरीखाल को लेकर काफी उथल-पुथल थी।

आज अचानक याद हो आया कि उत्तराखंड के इतिहासविद्ध व महान तांत्रिक डॉ शिब प्रसाद डबराल “चारण” जी से भी उनकी पुस्तक “शाक्तमत की गाथा-1 मातृदेवी” पर चर्चा के दौरान हुई थी।  मुझे आज वह पेपर मिल ही गया जो जुलाई माह 1986 की वह बरसाती डरावनी रात्रि थी। तब मैं दिल्ली से दुगड्डा उतरकर सीधे उनके आवास पर आया था। उस दिन मुझे लगा भी कि मुझे नहीं आना चाहिए था क्योंकि डॉ चारण को उस रात्रि शायद शमसान साधने के लिए किन्ही नैथानी जी के साथ जाना था, लेकिन लगातार बारिश के चलते न नैथानी जी उनके पास आ पाये और न वह जा पाये। बोले- प्रभु इच्छा पहले से थी, तभी तुम पहुँचे। उस दिन क्योंकि वे तंत्र मंत्र की रौ में थे तो उन्होंने अपनी हस्तलिखित कुछ पांडूलिपि जो उन्होंने 13 जुलाई 1982 में लिखी थी। मेरे सामने रख दी। मैं उसका हेडिंग पढ़ते ही रोमांचित हो गया। शीर्षक था “प्रेतात्माओं की काम केलियां”! मेरे लिए यह इसलिए ज्यादा महत्वपूर्ण था क्योंकि आज भी 13 जुलाई 1986 है।  यह शीर्षक मैंने अपने कॉपी के पन्ने में इसलिए लिख लिया था क्योंकि उनका प्रेतात्मा से पहला परिचय 1917 में तब हुआ था जब वे मात्र पांच बर्ष के थे।

अपनी दाढ़ी खुजाते हुए अपने मोटे ग्लास युक्त नजरी चश्मे से मुझ पर नजरें गढ़ाते हुए डॉ चारण बोले थे। कि पूरे पैंसठ साल हो गए हैं। तब से लेकर अब तब कई बर्षों तक आज का दिन मेरी तंत्र साधना का होता है। ये जो पुस्तक “शाक्तमत की गाथा-1 मातृदेवी” है, उसका जन्म ही इस साधना की देन है। मैंने अहेड से बात शुरू की तो उन्होंने ऐसे ऐसे प्रसंग सुना दिए मानों सारी अहेड, आँछरी, बणद्यो, रक्तपिचासिनी आकर वहीं बैठी हों। मेरे रोंगठे खड़े हो गए। कहाँ मैं झोला उठाकर दुगड्डा भागने को तैयार था, कहाँ अब कमरे के बाहर कदम रखने में भी डर लग रहा था। अचानक बाहर से आहट हुई तो मैं और डर गया। आवाज आई गुरु जी.. मैं पुष्कर…! इतना बोलते ही पुष्कर मोहन नैथानी जी ने पुस्तकालय में प्रवेश किया। मुझे देखा तो कुछ अजीब नजरों से घूरा। मैं उन्हें देखकर डर गया था। आखिर 22-23 साल का युवा जो ठहरा। बाद में जब डॉ चारण ने मेरा परिचय शोधार्थी के रूप में करवाया तो मैं और पुष्कर मोहन भाई साहब अच्छे मित्र बन गए।

प्रसंग रोचकता लिए था इसलिए विस्तार ने देकर प्रमाणिकता को आधारित कर फिर आँछरीखाल पर लौटता हूँ।  अहेड़ी से चर्चा हंत्या और बाद में आँछरियों पर आ पहुंची। मुझे लगता है इस दौरान हमने काढ़ा भी पिया था। खैट की आँछरियों पर चर्चा करते हुए मैं अपने गाँव के नजदीक दैड़ा का डांडा की आँछरियों का किस्सा सामने ले आया। तब डॉ डबराल ने किस्सा सुनाया कि एक बार सितोनस्यूँ कोटसाड़ा के साहित्यकार भजन सिंह ‘सिंह‘  के आमत्रंण पर वे आँछरीखाल जा पहुँचे। जहाँ के बारे में प्रचलन में था कि यहाँ सात बहनें जो अकाल मृत्यु के बाद आँछरी बन गई थी, वह आटे जाते इंसानों को हर लेती हैं। तब आँछरी मंदिर खाल के ऊपरी हिस्से में होता था। जिसका वेद सुमाडी गाँव लगता था। उस दौर में लोगों का मानना था कि सुमाड़ी गाँव के तांत्रिक रुडोला ने इस मंदिर को कील दिया था, जिसके कारण कफलना गाँव की रजामंदी के बाद इसे तालाब में लाया गया जहाँ गंथर चढ़ाये जाते थे।

सात बैणी आँछरी

हम भले से जानते हैं कि देवभूमि उत्तराखंड में 09 नाथ, 84 सिद्ध व 64 योगिनियों की पूजा विधान है। इन 64 योगिनियों में ही परियां, आँछरियां सम्मिलित की जाती हैं लेकिन उत्तराखंड की स्थानीय बोली भाषाओं में इनके अलग-अलग नाम सुनने को मिलते हैं।  पंडित जगन्नाथ मिश्र, पंडित वायुनंदन मिश्र, कर्निघम, आर. डी. बनर्जी, करमबेलकर, वासुदेव शरण अग्रवाल सहित कई अन्य विद्वानों द्वारा जारी 64 योगनियाँ हर स्थान पर अलग अलग नामो से पुकारी जाती हैं जैसे वसुदेवशरण अग्रवाल ने संभवतः पुराणादि के आधार पर 64  योगिनियों की तीन सूचियाँ प्रकाशित की हैं जो नीचे दी जाती हैं।

(1) कराली, कुमारी, शांकरी, रुद्राणी, किकाली, कराली, काली, महाकाली, चामुण्डा, ज्वालामुखी, कामाक्षी, वाराही, भद्रकाली, दुर्गा, अम्बिका ललिता, गोरवि, सुमंगला, रोहिणी, कपिला, शूलकरा, कुण्डलिनी, त्रिपुरा, कुरुकुआ, भैरवी, चम्पावती, नारसिंही, नीरांजना, हैमावती, प्रेतासना, ईश्वरी, वशंकरी, विनायकी, यमघंटा, सरस्वती, तोतिला, वैष्णवी, वेन्दी, संस्थानी, पद्मिनी, चित्राणी, वारुणी, यमभगिनी, सूर्यपुत्री, सुशीतला, कृष्णवाराही, रक्ताक्षी, कालरात्रि, आकांशी, श्रेष्ठानी, जया, विजया, हिमवती, वागेश्वरी, कात्यायनी, अग्निहोत्री, चक्रेश्वरी, महाविद्या, ईशानी, भवानी, भुवनेश्वरी, वक्रेश्वरी, मोहरात्रि (महारात्रि), धिदेवी ।

(2) काली, कराली, ईश्वरी, सुश्यामला, दिव्यायोगी, महायोगी, वारुणी, ब्रह्माणी, अम्बिका, दुर्गा, जया, विजया, धूमावती, कामेश्वरी, चामुंडा, महाकाली, चित्राणी, वारुणी, कुरुकुल्ला, कपिला, रोहिनी, सुमंगला, वाराही, प्रेतासना, हेमकंठा, निरंजनी, शंखनी, पद्मनी, चन्द्रावती, नारसिंही, चंडी शौतिला, सरस्वती, हरसिद्धि, वैष्णवी, ईश्वरी, ललिता, गौरी, सूर्यपुत्री, येमभगिनी, वेनदेवी, नारायणी, भैरवी, भद्रावती, अग्निहोत्री, कात्यायनी, ज्वालामुखी, कामाक्षी, कपालिनी, द्रकाली, श्रेष्ठनी, कालरात्रि, युगेश्वरी, सिद्धि, कौमारी, शंकरी, इन्द्राणी, द्विकाली, महाविद्या, चक्रेश्वरी ।”

अग्रवाल जी की इस तीसरी सूची में तथा पहले दी गई मिश्र जी की सूची में कुछ समानता है, कहीं-कहीं अन्तर भी है।

(3) दिव्ययोगिनी, महायोगिनी, सिद्धयोगिनी, युगेश्वरी, प्रेताक्षी, डाकिनी, काली, कालरात्रि, निशाचरी, किंल्कारी, सिद्धवैताली, हिंकारी, भूतदामा, उर्ध्वकेशी, विरूपाक्षी, रक्ताक्षी, नरभोजनी, वीरमाद्राक्षी, धूम्राक्षी, कलहप्रिया, राक्षसी, घोररक्ताक्षी, विरक्ताक्षी, भंयकारी, वीरा, कुमारी, चण्डिका, वाराही, मुंडधारिणी, भैरवी, वज्राणी, क्रोधायी, दुर्मुखी, प्रेतवाहिनी, कंटकी, लम्बोष्ठी, मालिनी, मंत्रयोगिनी, कालाक्षी, मोहिनी, चक्री, कंकाली, भुवनेश्वरी, कुण्डली, मालिनी (?), लक्ष्मी, धेनदुरी, कराली, कौशिकी, भद्रांणी, व्याघ्राणी, यक्षयी, यक्षिणी, कुमारी, यंत्रवाहिनी, विशाली, कामाक्षी, विषहारिणी, द्विजटी, विकटी, घोरायी, कपाली, विशालांगुली।

ऐसे में यह कह पाना कि योगनियाँ, यक्षणी, वन देवी, अरण्यानी, रात्रि देवी, मातृदेवी, दिव्य मातृका, लोक मातृका, इत्यादि भी ऐड़ी-आँछरी, परियों में शामिल हैं, तो गलत नहीं होगा। लेकिन इतना जरूर है कि इन्हें चिन्हित करना उतना ही कठिन कार्य है।

बहरहाल इन मातृकाओं का वंदन कर फिर लौटते हैं आँछरीखाल..। जहाँ मेरी नजर में विशुद्ध रूप से हिमालयी क्षेत्र की वह ऐड़ी-आँछरियां, परियां निवास करती होंगी। जिन्हें हरे भरे बुग्याल, पुष्प क्यारियां, पानी के ताल पोखर व स्वछन्द प्रकृति की जरूरत पड़ती है। मेरा मानना ये भी है कि ये साथ बहने खैट की आँछरियां ही हो सकती हैं, जिन्होने जीतू बगडवाल का हरण किया था। क्योंकि आँछरीखाल की आँछरियां भी हरण ही करती थी। मेरा मानना है कि अगर ये सात बैणी आँछरियां खैट से सैर पर निकलकर आँछरीखाल आई थी तो अन्य दो बहनें व 12 बहन भराडी क्यों नहीं आई? क्योंकि खैट की जागर में इनका कुछ ऐसा बर्णन है:-

नौ बैणी आंछरी ऐन, बार बैणी भराडी
क्वी बैणी बैठींन कंदुड़यो स्वर
क्वी बैणी बैठींन आंख्युं का ध्वर
छावो पिने खून , आलो खाये माँस पिंड।

आइये जानते हैं आम जन मानस की आँछरी खाल के बारे में क्या राय है!

पेशे से पूर्व में अध्यापक रहे संस्कृतिकर्मी कफलना निवासी योगम्बर सिंह रावत जानकारी देते हुए बताते हैं कि आँछरी खाल उनकी गाँव की सरहद का हिस्सा है। दरअसल जहाँ आज तालाब के किनारे पर माँ भुवनेश्वरी का मंदिर बना है पूर्व में यह मंदिर आँछरी मंदिर के रूप में जाना जाता था, यहाँ सात बहन आँछरियां रहा करती हैं, ऐसा वह अपने पुरानों से सुनते आ रहे हैं। सन 2010 में गाँव वालों ने आपसी चंदा मिलाकर इस मंदिर का जीर्णोद्धार सितोंनस्यूँ कोट निवासी एक ठेकेदार से करवाया और वैष्णो देवी की तर्ज पर यहाँ माँ भुवनेश्वरी का मंदिर बनाया गया।

योगम्बर रावत बताते हैं कि जब तक यह आँछरी मंदिर के रूप में जाना जाता था तब तक यहाँ बस्ती नहीं हुआ करती थी बल्कि सड़क के छोर पर अवस्थित वर्तमान दुकानों के स्थान पर वहाँ संगमरमर का पहाड़ था, जो इस क्षेत्र में अन्यत्र कहीं दिखने को नहीं मिलता। आते-जाते लोग दिन में इसी संगमरमर के सात छोटे – छोटे टुकड़े जिन्हें स्थानीय भाषा में घणतीर कहते हैं, उठाकर आँछरी मंदिर में चढ़ाते थे, या फेंकते थे। इससे परियाँ यानि आँछरियां खुश होती थी या डर जाती थी, कह पाना मुश्किल है। शांयकाल में लोग यहाँ से दुबक कर निकलते थे। उन्हें डर रहता था कि कहीं आँछरियाँ ताल में जल क्रीड़ा न कर रही हों।

योगम्बर बताते हैं कि पूर्व में मंदिर वहाँ अवस्थित था, जहाँ आज वैष्णोदेवी मंदिर बना है। यह ऊँचाई पर होने के कारण अक्सर  इन परियों की निगाह अक्सर आते-जाते लोगों पर पड़ जाती थी, और जिसके ग्रह हल्के होते यह उन पर चिपक जाती थी। बाद में पुआ प्रसाद, बांकदार मुर्गा लेकर ही उनका पिंड छोड़ती थी। इससे पूर्व में उनके बुजुर्ग बताते थे कि ये परियां / आँछरियाँ रात-विरात भूल से इस रास्ते आने जाने वालों को हर लिया करती थी। सुमाडी गाँव की शिकायत यह थी कि इस आँछरी मंदिर का उनके गाँव पर वेद लगता है। अत: इस मंदिर को तालाब के किनारे तंत्र व कर्म कांड विधि के साथ बनाया गया। इस मंदिर के जीर्णोद्धार से पूर्व इस मंदिर के मुख्य द्वार के पास गैर गाँव के ग्रामीणों द्वारा हवनकुण्ड बनाया गया था। वह बताते हैं कि जब वह 1978 तक इंटर कॉलेज कोट में पढ़ते थे व गाय बैलों की पांत चुगाने यहाँ आते थे तब यहाँ का यह खाल (ताल) पानी से लबालब भरा रहता था। यहाँ जानवर पानी पीते थे और हम भी खूब नहाते थे।

योगम्बर सिंह रावत बताते हैं कि कालांतर (90 के दशक में) उनके गाँव कफलना के ही राजेंद्र सिंह वैष्णव देवी यात्रा कर वहाँ से पिंडी लेकर आये व जहाँ पूर्व में आँछरी मंदिर था वहाँ उन्होंने उसी मंदिर का जीर्णोद्धार कर वैष्णो देवी मंदिर बनाकर बड़ा भंडारा किया और आज माँ की कृपा से वह साल में दो बार वहाँ बड़ा भण्डारा करते हैं। अब यह धर्म व पर्यटक स्थल के रूप में विकसित हो गया है। जहाँ पहले लोग दिन दोपहर जाने में भी डरते थे, आज यहाँ लोगों ने अपने मकान व दुकान बना दिए हैं।  आँछरी मंदिर जहाँ कभी सात टुकड़े घणतीर पत्थर चढ़ते थे, अब माँ भुवनेश्वरी मंदिर के रूप में जाना जाता है और यहाँ अब श्रद्धालुओं ने पैंसे चढ़ाने शुरू कर दिए हैं, जो सालाना लगभग 50 से 60 हजार चढ़ावा होता है।

अब आँछरियां कहाँ गई होंगी? इस प्रश्न के जबाब में योगम्बर सिंह रावत कहते हैं कि इसका तो पता नहीं लेकिन देव पूजा में आज भी ढ़ोल बजते ही आँछरीखाल की सात बैणी आँछरियां प्रकट होती हैं। ज्ञात हो कि आज भी लोग इनके नाम की डोली गुड्डी चढ़ाते हैं। कोई भी शुभ कार्य हो तो इनके नाम का यहाँ श्रीफल चढ़ाया जाता है। आँछरियों के प्रतीक के रूप में आज भी मंदिर के पीछे छोटे – छोटे मंदिर बने हुए हैं। ये उन लोगों के बनाये बताये जाते हैं जिनका आँछरियों ने हरण किया।

(पुराना आँछरी स्थल जहाँ अब वैष्णोदेवी मंदिर अवस्थित है)

वरिष्ठ पत्रकार मीरा रावत बताती हैं कि मेरा ससुराल कोट ब्लाक के कठूड गांव में है। जब शादी के बाद पहली बार गांव जा रहे थे, तो यहां पर दाल-चावल परोख कर यानि सिर के उपर से घुमाकर फेंके थे साथ ही नारियल भी फोड़ा था। तब यहां पर लबालब पानी से भरा तालाब था, और सच में ऐसी अनुभूति होती थी कि यहां पर देवी अंछरियो का निवास है। अब भी जब उधर से गुजरते हैं तो वहां पर हाथ अपने आप ही उठ जाते हैं लेकिन अब सब कुछ बनावटी सा लगता है।

कफोलस्यूँ जाख की निर्मला जुयाल नैथानी बताती है कि उन्हें थोड़ा बहुत आँछरीखाल के बारे में तब जानकारी मिली जब उनकी इधर ही ससुराल हुई। जब हम वहां पर दर्शन करने गए।  तब हमने वहां के बारे में पूछा।  उन्होंने बताया कि गांव की जो भी लड़कियां औरतें घास काटने गाय चराने जाते हैं, उन पर अक्सर ये आँछरियां चिपक जाया करती थी व उस जगह पर सारे नाचने लग जाते थे। फिर लोग कहीं पूछ करने गए।  तब उनको इसका उपाय बताया कि आप लोगों को वैष्णो देवी की यात्रा करनी पड़ेगी व वहाँ से तीन पत्थर पिंडी के रूप में लाकर यहाँ स्थापित करने पड़ेंगे हैं। कालांतर में वैष्णोदेवी से पिंडी लाकर यहां पर वैष्णो देवी का मंदिर बनाना है जब मंदिर बना तब से सब ठीक है।

(बालशखा कप्तान कलम सिंह रावत के साथ आँछरी खाल मंदिर में)

वर्तमान में कोटद्वार निवासी रेणु बिष्ट बताती हैं कि यह मन्दिर हमारा गांव बाड़ा से पहले है।  हमारी सासू मां ने बताया कि मन्दिर में आने जाने वाले लोग मन्दिर में छोटे-छोटे पत्थर फेंकते थे, ताकि उन पर कोई भूत प्रेत की छाया ना लगे।

आँछरीखाल के बारे में प्रदीप थपलियाल जानकारी देते हुए बताते हैं कि यहां एक बार बारात में गए थे। सर्दियों में जब रात में बारात नीचे  गाँव को जाने लगी तो पाला जमा हुआ था और जो मशक बाजा वाला था। वह फिसला और जंगल में गायब हो गया। कई घंटे मस कद के बाद वह फिर बारात का संगी बना मगर अफसोस कि मशक बीन टूट चुका था। उसे परियां ले गई थी कि नहीं यह वे नहीं जानते।

बहुत सारे अनुभव आँछरीखाल के बारे में साझा होते रहे हैं लेकिन वर्तमान परिवेश में आँछरी खाल जहाँ एक ओर पर्यटन व धर्म स्थल बन गया है, मुझे डर है कि कहीं यहाँ का पुरातन इतिहास ऐड़ी – आँछरी, परियों का निवास धूमिल न हो जाय क्योंकि जहाँ पहले ये रहती थी वहाँ अब वैष्णोदेवी मंदिर है, जहाँ बाद में यह रही अब वहाँ भुवनेश्वरी मंदिर है। कालांतर में जो खाल (ताल) आँछरियों के ताल के रूप में जाना जाता था, वह सीमेंट लगते ही सूख गया। ऐसे में डर ये भी है कि आने वाले भविष्य में आँछरीखाल कहीं किसी और नाम से न पुकारा जाने लगे क्योंकि अब न यहाँ आँछरियों का भय है न आँछरियों का जल क्रीड़ास्थल।

 

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