(मनोज इष्टवाल)
●सैदवाली अर्थात बरमा गौड़ ब्राह्मण व ब्राह्मणी से पैदा पीर व सैद।
●गढ़ जागर में मुस्लिम धर्म की ऐसे हुई उत्पत्ति।
गोल टोपी, गले में रुद्राक्ष धारण कर आग की परिक्रमा कर कर ढोल की थाप व पहाड़ी बोलों की जागर में नृत्य वीडियो में दिखने वाले सभी युवक मूल रूप से मुस्लिम समुदाय के हैं। जिनमें से कुछ रुड़की से चलकर यहां पहुँचे हैं।
हिमांशु कलूरा नामक एक ब्लॉगर ने यह वीडियो अपने ब्लॉग पर शेयर किया है जो काफी चर्चाओं में है। @himanshukalura के @pahadibloger में यह देखकर अचंभित हो रहा है कि भरपूर गांव में सैद भी नाचते हैं। जी हां….जिसे सैद देवता के रूप में यहां पूजा जाता है। सबसे बड़ी बात तो ये है कि ये लोग मुस्लिम टोपी व पहनावे के साथ नृत्य करते हैं। नृत्य वह भी ढोल दमाऊ में जो कि मुस्लिम बाजा है ही नहीं। जागर के बोल वह भी गढ़वाली भाषाई जिसे सैद जानते ही नहीं हैं। सैद या पीर अवतारी रुद्राक्ष माला पहने हैं जिसे मुस्लिम धारण ही नहीं करते। हाथ पर कलावा पहनते हैं जो मुस्लिम धर्म में नहीं पहना जाता। तो क्या मुस्लिम संस्कृति के कपड़े व गोल टोपी धारण करने के बाद ही किसी व्यक्ति सैद या पीर का अवतार उतरता है।
आखिर यह कैसे और कब सैद देवता बन गए इस सबकी कहानी भरपूर गांव (भरपोर) लम्बगांव टिहरी गढ़वाल जाकर ही पता चल पाएगी, जहां ये सैद/पीर नचाये जा रहे हैं।
ये सैद अग्नि की परिक्रमा करके नाच रहे हैं, जबकि अग्नि को पवित्र हिन्दू धर्म के अनुसार माना जाता है। ये अवतारी लोहे की गर्म ताज चाटते भी नजर आते हैं जो हिन्दू धर्म में भैरव देवता करता है। सैद या पीर बाबा का नृत्य गढ़वाल में माने जाने वाले देवताओं जैसा ही होता है यह वानगी देखकर आश्चर्य होता है।
आखिर यह नृत्य कला है तो गढ़वाल की पुरातन संस्कृति के देवी देवताओं की फिर यह सैद या पीर देवता कहीं बामणी से उत्पन्न वह सन्तान तो नहीं जो बाद में मुस्लिम बन गयी थी।
सैदवाली अर्थात बरमा गौड़ ब्राह्मण व ब्राह्मणी से पैदा पीर व सैद।
इस सब पर लिखना रात खराब करने से कम नहीं है लेकिन जब बुद्धिजीवी व उत्सुक व्यक्तित्व के लोग फोन करके सच को जानने के लिए उतावले होते हैं तो लगता है ऐसे ज्ञानार्जन करने वाले महर्षियों के लिए राती काली करनी भी पड़े तो मलाल नहीं। मित्र मनीष जोशी का फोन घनघनाया तो बोले- भाई साहब, एक वीडियो व्हाट्सएप किया है। प्लीज इस से पर्दा उठाइये। वीडियो देखकर मैं अचंभित हो गया । यह सचमुच आश्चर्यचकित कर देने वाली घटना थी जिसमें गढ़वाल के किसी भरपूर गांव में मुस्लिम भेषभूषा में ढोल व दमाऊ की जागर में मुस्लिम समुदाय के लोग गले में रुद्राक्ष डाले आग की परिक्रमा करते हुए सैद/पीर अवतारी बन नृत्य कर रहे थे। उनकी नृत्य कला रामढोल में नाचने वाले या डौंर थाली में बजने वाली राम ढोल की धुन वाला कतई नहीं था जिसमें वे नृत्य करते समय चौमुखी चिराग, पान का जोड़ा, सिगरेट सुलगाये नृत्य कर रहे हों और न ही जागरी के बोलो में पीर पैगम्बरों की जागर के बोल थे जैसे-
जिस्में सलाम भाई सल्लाम, पीरे चले रे भाई पीरे चले रे।
हलाल की छुरी चले पीरे चले रे, बरछी वाले जवान पीरे चले रे।
तीन टांग घोड़ी के जवान को सल्लाम, पीरे चले रे भाई पीर चले रे।
मक्का मदीना चले रे भाई पीर चले रे। अस्सलाम वालेकुम, अर्जा
माजोरम, अस्सलाम वालेकुम, अजमत एलैकुम, अल्लाहुस समद कावदीफ़ा-100
इत्यादि बोल शामिल थे तब लगा कि ये तो सचमुच ब्रह्मपुरी की गौड़ ब्राह्मणी से जन्में संताने हैं जिनमें बाबा दरगाई भी शामिल हैं। व जिनकी ‘सैदवाली’ गायन विधा इस सबसे अलग भले ही शब्द उर्दू हैं व फारसी की इसमें कम गुंजाइश रही है व ये मक्का-मदीना वाले नहीं बल्कि गंगा की जगह जमुना से उऋण हुए वे सैद व पीर हैं जो पीर पैगम्बर नहीं बल्कि पीर बाबा कहलाए। जब इनके पशुवा का आवाहन होता है तब इनकी जागर के बोल कुछ इस तरह के होते हैं-
हिलकद में हिलाविस्मिल्ला रहमानी रहमतुल्ला। हे कमदरी, हे मेरे मेहरबान, गैबी बादशाह, गुरु बादशाह, अल्लादीन, मुल्लादीन, खोरदीन, ख़बरदीन। तुम सब को एक लाख अस्सी हजार चार सौ चवालीस जवानों का सल्लाम। एक सल्लाम, दो सल्लाम, तीन सल्लाम, चार सल्लाम, पांच सल्लाम..! पंच वीरों का सल्लाम, पंच पीरों का सल्लाम, मूरतानी पीर को सल्लाम, झाड़पीर को सल्लाम, झरतानी पीर को सल्लाम, तख्तपीर को सल्लाम, तख्तानी पीर को सल्लाम, पीरबाबा महाजादे को सल्लाम। बातर तोपों को सल्लाम, बात्तर तोपो को सल्लाम, बूढा हजरत को सल्लाम, मामा रतन को सल्लाम। आलम गढ़ की दाई को सल्लाम। जो आंखों की अंधी कानो की बाहरी आल्मा को सल्लाम। तुम्हारी ब्रह्मपुरी को सल्लाम। जिस ब्रह्मपुरी में गौड़ ब्राह्मण रहते थे उस ब्रह्मपुरी को सल्लाम।
गढ़ जागर में मुस्लिम धर्म की ऐसे हुई उत्पत्ति।
तुलसी राम गौड़ को सल्लाम, मुंसिराम गौड़ को सल्लाम, सीताराम गौड़ को सल्लाम, गंगाराम गौड़ को सल्लाम, नत्थूराम गौड़ को सल्लाम, विद्यादत्त गौड़ को सल्लाम। जिस ब्रह्मपुरी में गौड़ ब्राह्मण रहते थे उनके बूढ़े ब्रह्मा को सल्लाम। बूढ़ी तो ब्रह्मा गौड़ की ब्राह्मणी को सल्लाम। जो जन्म से औती व करम से नाटी थी। ब्रह्मा गौड़ 100 बर्ष का व ब्राह्मणी आल्मा 80 बर्ष मि थी। जिनके मुंह में दांत नहीं व पेट में आंत नहीं थी। जिनकी मोंढुली (सिर) रुंवा सी ढ़लुणी (रुई समान सफेद) हो गयी थी।
एक दिन ब्राह्मणी आल्मा पंडित ब्रह्मा गौड़ से बोली- प्राणनाथ हमारी कोई शाक सन्तान नहीं है। चलो किसी घोर जंगल जाते हैं जहां हमें शेर बाघ खा लेगा तो हमारी मुक्ति हो जाएगी या फिर ऐसा काम करो कि खुदा की भक्ति करो। या तो पुत्र दान मांगकर लाओ। तब ब्रह्मा व ब्राह्मणी घोर जंगल में खुदा की भक्ति करने लगे। भक्ति करते करते ब्रह्मा को बारह मास बीत गए। ब्रह्मा मिट्टी का दीमक बन गया। जिसकी सिर में उगी दूब पांव पर लौट आई। खुदा उसकी तपस्या से प्रसन्न हुआ और दर्शन देकर बोला – अपनी इच्छा बताओ। ब्रह्मा बोला – हे खुदा हमारी कोई शाक सन्तान नहीं है। हमें पुत्रदान दो। खुदा ने ब्रह्मा को अमर फल दिया जिसे दोनों ने खाया। अमरफल खाते ही ब्राह्मणी 15 साल की व ब्रह्मा 25 साल का रूपवान हो गया। अब वे दोनों वापस अपनी ब्रह्मपुरी लौट आये। ब्राह्मण अब नित्यकर्म फिर से मायारूपी गाय के चाम में बैठकर भक्ति करता था जैसे ही उसकी पूजा खत्म होती गाय खड़ी हो जाती। उधर ब्राह्मणी का गर्भ भी ठहर गया । एक , दूजो, तीजो, चौथो, पांचों, छटो मास , सातों, आठों व नवां मास लग गया लेकिन ब्राह्मणी की औलाद उत्पन्न नहीं हुई। दसवें मास में ब्राह्मणी की मांस खाने की तीब्र इच्छा हुई। वह ब्रह्मा गौड़ से बोली- मेरा मांस खाने का बड़ा मन है मेरे लिए मांस ले आओ।
ब्राह्मणी की बात सुनकर ब्रह्मा गौड़ बहुत नाराज हुए और बोले- हे ब्राह्मणी तेरी मत्ति मारी गयी है । तू जानती है कि हम गौड़ ब्राह्मण मांस नहीं खाते। क्या तू हमारा गौड़ धर्म नष्ट करना चाहती है। हम सूचे खाने वाले, सूचे चलने वाले, सूचे नहाने वाले व सूची पूजा लगाने वाले हैं। ब्राह्मणी कसमसाकर रह गयी लेकिन त्रिया हट भला कहाँ रुकने वाली थी। आज दसवें माह ब्राह्मण की पूजा पूरी होने वाली थी। जैसे ही ब्रह्मा गौड़ गाय के चाम में पूजा करने बैठा। ब्राह्मणी ने गाय के शरीर से उखड़ी चमड़ी (आले का चाम) तोड़ा व मुंह में रखकर चबा दिया। गौ माता के आंसू निकल पड़े। वह रम्भा इसलिए नहीं पाई कि कहीं ब्रह्मा की पूजा में बाधा न पड़े। पूजा जैसे ही समाप्त हुई । ब्रह्मा गौड़ को आश्चर्य हुआ कि क्या आज गाय पूजा समाप्त होने के बाद खड़ी नहीं उठी। उन्होने अपनी उत्सुकता ब्राह्मणी को बताई तो ब्राह्मणी बोली-मैं अपनी मांस खाने क़ी तीव्र इच्छा को रोक न सकी व मैंने गाय के आले की चाम से एक टुकड़ा तोड़कर खा लिया।
ब्रह्मा क्रोध से आगबबूला हो गए व बोले- हे बामणी तूने आज हमारे धर्म को नष्ट कर दिया है। इसलिए तुझसे पैदा होने वाली सन्तान बेरहम व चुफकट्टा होगी। देवयोग देखिये ब्राह्मणी से लाटे, लूले, लंगड़े, बहरे पुत्र पैदा हुए। ब्रह्मा ने क्रोध में सबको एक सूप में उठाया व केले के बागीचे में फेंक दिया। लेकिन ये वहां भी नहीं मरे। एक रात ब्रह्मा गौड़ के सपने में बाबा दरगाई आया और बोला -पिताजी जबसे हम पैदा हुए हम सूचे नहीं हुए और ना ही हमने गंगा स्नान पाया है। इसलिए हम मलीच हो गए। हमको यहां से उऋण कर दो।
ब्रह्मा गौड़ ने एक सोने का सम्पट बनाया जिसमें पौन का ताला पौन की चाबी लगाई। सम्पट को उठाया और त्रैफिरि जमुना में फेंक दिया। सम्पट बहते बहते दक्षिण की दिल्ली में पहुंचा । वहां आपरूपी ताली खुली और स्वर्ग से अल्लाह तौबा की पुकार होने लगी। जहां से हलाल की छुरी और कुरान की पोथी छूटी। जिसमें कुरान के कलमे लिखे थे। (फोर मन्त्र ईश्वरोवाचा)
यह समस्त बातें सैदवाली में लिखी गयी हैं। इसमें सच्चाई कितनी है यह कह पाना कितना सच है यह मै नहीँ जानता लेकिन इस पहाड़ी सैदवाली से यह तो साफ हो ही गया है कि भारत की मुस्लिम कौम हिंदुओ से ही उत्पन्न कौम है और इसीलिए विश्व भर के मुस्लिम इन्हें अपने में शामिल नहीं करते।
यह शोध आप सबके समुख पेश करने के पीछे मेरा एक ही मकसद है कि अगर भरपूर गांव में सैद पूजा या पीर पूजा ढोल दमाऊं में होती है तो उसे हम मुस्लिमों में क्यों शामिल कर रहें हैं? क्या इस से पूर्व भी यहां इनकी पूजा में नाचने के लिए मुस्लिम समुदाय के लोग लोग गोल टोपी व मुस्लिम भेषभूषा में रुड़की सहारनपुर से आते थे या फिर यह किसी अनजानी साजिश का हिस्सा है। ठीक वैसे ही जैसे पहाड़ में जंगलों में विचरण करने वाले बहुत भोले भाले वन गूजरों के बीच विगत एक डेढ़ साल से लम्बी टोपी की जगह गोल टोपी व महिलाओं में बुर्के का चलन शुरू हो गया है। भले ही इसे सोशल साइट पर मुस्लिम समुदाय से जोड़कर देखा जा रहा हो लेकिन अभी भी स्थिति असमंजस वाली है क्योंकि जब तक स्वयं भरपूर गांव वाले या स्वयं हिमांशु कलूरा इससे पर्दा नहीं उठाते तब तक कुछ भी कहना सम्भव नहीं है। प्रश्न अभी भी वहीं खड़ा है जहां से जन्मा था…हमें मनन करने की आवश्यकता है।