रं समाज : हिमालय उनके लिए चुनौती नहीं, रहवासी हैं!
(डाॅ. अरुण कुकसाल)
‘अमटीकर’ रं भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है, पथ-प्रदर्शक। जीवन और जीविका की राहों पर साथ-साथ चलने वाला, मार्गदर्शी। संयोग से रं कल्याण संस्था की दो स्मारिकायें- ‘अमटीकर-2010’ (सम्पादन- श्री अरविन्द सिंह ह्यांकी) और ‘अमटीकर-2020’ (सम्पादन- सुश्री कृष्णा रौंकली) से एक साथ मुलाकात हुई। यह मुलाकात रं समाज के विविध आयामों को जानने और समझने का एक स्वर्णिम अवसर बन गया। ये स्मारिकायें, उच्च-हिमालयी पारिस्थिकीय में विकसित रं समाज के मन-मस्तिष्क में समायी विराटता और वैभव को महसूस कराने के साथ, मुझे जीवनीय कष्टों को ‘परे हट’ कहने का साहस भी दे रही हैं।
समुदाय और क्षेत्र विशेष पर केन्द्रित स्मारिकायें प्रकाशित होना आम बात है। इस माध्यम से उनको और अधिक समग्रता और आत्मीयता से जाना-समझा जा सकता है। पर अनुभव बतातें हैं कि सामान्यतया स्मारिकायें आत्म-मुग्घताओं से भरी-पड़ी होती हैं। अपनी जाति, वर्ग और क्षेत्र का कथित श्रेष्ठता बोध करना उनका मूल भाव बन जाता है। ऐसे में वे मात्र कुछ लोगों के सम्पादक और लेखक कहे जाने की इच्छा-परिपूर्ति और विज्ञापनों का संकलन मात्र ही रह जाती हैं।
रं कल्याण संस्था की ये स्मारिकायें उक्त व्याधियों से ग्रसित होने से बची हैं। इस मायने में मेरे लिए अधिक आकर्षक, विशिष्ट और उपयोगी हैं। अतः बतौर पाठक मैं, रं कल्याण संस्था के संरक्षक श्री नृप सिंह नपलच्याल के इस कथ्य से सहमत हूं कि ‘अमटीकर का प्रत्येक अंक रं इतिहास, संस्कृति, सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था तथा रं समाज के सामने खड़े प्रश्नों से रू-ब-रू होने का महत्वपूर्ण माध्यम होता है। उसके लेख हमें अपने अतीत की ओर ले जाते हैं, वर्तमान से सामना कराते हैं तो भविष्य की दिशा भी इंगित कराते हैं। यह कहने में कतई कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि ‘अमटीकर’ रं समाज के लिए आत्मपरिचय, आत्मावलोकन व आत्मावलोचना करने का अवसर प्रदान करता है।’ (‘अमटीकर-2010’ में ‘मार्गदर्शन’ शीर्षक)
निःसन्देह, रं (शौका) समाज हिमालयी ज्ञान और हुनर का धनी है। यायावरी और उद्यमशीलता इसकी पैतृक विरासत है। जो कि आज भी, रं समाज की सामाजिक अभिवृत्ति- हिम्मत और हौंसले से समृद्धता की ओर अग्रसर है। प्रसिद्ध इतिहासविद् डाॅ. शिव प्रसाद डबराल ने ‘उत्तराखंड के भोटांतिक’ पुस्तक में लिखा कि ‘यदि प्रत्येक शौका अपने संघर्षशील, व्यापारिक और घुमक्कड़ी जीवन की मात्र एक महत्वपूर्ण घटना भी अपने गमग्या (पशु) की पीठ पर लिख कर छोड़ देता तो इससे जो साहित्य विकसित होता वह सामुदायिक साहस, संयम, संघर्ष और सफलता की दृष्टि से पूरे विश्व में अद्धितीय होता’ (‘यादें’ किताब की भूमिका में-डाॅ. आर.एस.टोलिया)
पिथौरागढ़ जनपद (उत्तराखण्ड), नेपाल और तिब्बत से सटे काली, गोरी और धौली नदी क्षेत्र (समुद्रतल से 4000 से 15000 फिट ऊंचाई) की अधिकांश बसासत को शौका, जोहारी अथवा रं (रंङ) समाज के नाम से देश-दुनिया में जाना जाता है।
रं (रंङ) समाज की बसासत मुख्यतया पिथौरागढ़ जनपद की धारचूला तहसील के ब्यांस (व्यास ऋषि का नामकरण), तल्ला दारमा, मल्ला दारमा और चौंदास पट्टी में है। उच्च-हिमालयी क्षेत्र में ब्यांस घाटी- काली नदी, दारमा घाटी- धौली नदी और चौंदास घाटी- काली और धौली नदी के बीच में पसरा भू-भाग है। रं भाषा में ब्यूंखू (ब्यांस), दर्मा (दारमा) और बंबा (चैंदास) के सम्मलित क्षेत्र के 42 गांवों में ‘च्येपी सै सुमसा मा’ याने ‘चौदह देवता और तीस देवियों’ की भूमि रं संस्कृति और सभ्यता से रंगी है। अतुल्य कैलास मानसरोवर मार्ग में स्थित का यह संपूर्ण क्षेत्र सन् 1962 के भारत-चीन युद्ध से पूर्व प्रसिद्ध व्यापारिक केन्द्र की पहचान लिए हुए था।
बिट्रिश कालीन डिप्टी कमिश्नर चार्ल्स ए. शेरिंग ने 1906 में लंदन से प्रकाशित किताब ‘वेस्टर्न तिब्बत एंड ब्रिटिश बाॅर्डरलैंड’ में रं घाटी और समाज पर विस्तृत लिखा है। इसी तरह बिट्रिश अधिकारी और घुमक्कड़ लाॅन्गस्टाफ, हेनरी रैमजे, शिप्टन, डब्लू. जे. वेव, ट्रैल, बैटन, एटकिन्सन, स्मिथ के इस बारे विवरण हैं। रतन सिंह रायपा की सन् 1974 में ‘शौका-सीमावर्ती जनजाति (सामाजिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन)’ और डाॅ. आर.एस. टोलिया की सन् 1996 में ‘बिट्रिश कुमाऊं-गढ़वाल’ प्रकाशित किताब रं समाज पर महत्वपूर्ण संदर्भ साहित्य हैं।
उच्च-हिमालयी क्षेत्र में पल्लवित रं समाज का आधार, अतीत और आयाम घुमक्कड़ी रहा है। हिमालय के शिखरों की गोद में उनके घर-गांव हैं। हिमालय उनके लिए चुनौती नहीं, रहवासी है। हिमालय में रह कर वे प्रकृति की विकटता का नहीं, उसकी विराटता को महसूस करते हैं। इस विराटता में ही दौनों का सह-अस्तित्व और वैभव विकसित हुआ है। स्वाभाविक है कि, हिमालय के प्रति रं समाज का आकर्षक पारिवारिक आत्मीयता से ओत-प्रोत है। यही कारण है कि, भारत, तिब्बत-चीन, और नेपाल की सीमाओं से घिरे इस क्षेत्र में आज भी देशों की परिधि से बेफिक्र रं समाज अपनी जीवंतता और समग्रता में जीता है।
यायावरी और उद्यमशीलता की पैतृक विरासत ने रं समाज को हमेशा गतिशील और कर्मशील रखा है। इसका प्रभाव एवं प्रवाह उनके विचार, व्यवहार और लेखन में आना स्वाभाविक है। तभी तो, ये स्मारिकायें संस्मरणों और यात्रा-वृतांतों की किताब लगती हैं। महत्वपूर्ण यह है कि, ये हिमालयी यात्रायें मात्र घुमक्कड़ी भर नहीं हैं। सच यह है कि, ये रं समाजी लोगों की अपने आधारभूत जीवन और जीविका के लिए की गई जरूरतें और जिज्ञासायें हैं।
स्वाभाविक है कि इन आलेखों में प्रकृति और परिवेशीय समाज के प्रति आत्म-मुग्धता की जगह जमीनी हकीकत और उसके प्रति जज्ब़ा दिखता है। जो कि, स्थानीय प्रकृति में रं समाज की समग्र जीवन-चर्या की मौलिकता को बताते हैं। इसीलिए, लेखकों ने अपने अतीत के संस्मरणों में अपने से ज्यादा अहमियत अपने परिवेशीय समाज और प्रकृति को दी है। साथ ही, क्षेत्र के पिछडे़पन और भौगोलिक विकटता को कोसने के बजाय उसमें नई उद्यमीय जीवन संभावनाओं को तलाशने और उसे हासिल करने के प्रयासों को सार्वजनिक किया है।
ये स्मारिकायें, उत्तराखंड के सीमान्त क्षेत्र के परिदृश्य के साथ-साथ अतीत, विगत और वर्तमान में भारत, नेपाल, तिब्बत और चीन के आपसी रिश्तों और विवादों की पड़ताल भी है। समृद्ध जल-प्रवाह काली नदी, गौरी नदी, और धौली नदी के बारे में तथ्यात्मक बातें इनके आलेखों में हैं। भारत-नेपाल के मध्य हुई सन् 1815-16 की सुगोली संधि और सन् 1962 का भारत-चीन युद्ध का जिक्र गाहे-बगाहे इन स्मारिकाओं के अधिकांश आलेखों में है। इन देशों के सीमान्त क्षेत्रों में उक्त दो महत्वपूर्ण घटनाओं के बाद के बदलाव आलेखों में देखे जा सकते हैं। विशेषकर, भारत-नेपाल सीमा के बीच स्न 1815-16 की सुगोली संधि के संदर्भ में कालापानी, लीपूलेख और लिम्पियाधूरा की स्थिति और विवाद को इनमें जाना-समझा जा सकता है।
ये स्मारिकायें, सन् 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद उत्तराखंड के सीमान्त क्षेत्रों में चीन-तिब्बत के साथ सदियों पूर्व के परम्परागत व्यापार के समाप्त होने के कारण आर्थिक और सांस्कृतिक रिक्तता और त्रासदी को भी रेखांकित करती है। इस नाते भारत-चीन के बीच होने वाले युद्ध के बाद दोनों ओर के सीमावर्ती समाज के राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक रिश्तों पर पड़ी दरार के कुप्रभावों का मूल्यांकन इनमें है।
ये स्मारिकायें, क्रमशः वर्ष-2010 और वर्ष-2020 में प्रकाशित हुई हैं। पाठक इसके आलेखों के माध्यम से रं कल्याण संस्था की विकास यात्रा और उत्तराखण्ड सरकार के द्वारा वर्ष-2010 में जोर-शोर से घोषित विजन-2020 का भी मूल्यांकन कर सकते हैं।
दोनों स्मारिकाओं की विषय-सामाग्री के अध्ययन के बाद यह कहना है कि ‘अमटीकर-2010’ से ‘अमटीकर-2020’ तक के इस 10 वर्षीय सफ़र में रं समाज और क्षेत्र में सर्वत्र सुविधायें तो बड़ी हैं, पर अपनी मातृभूमि के प्रति मानवीय संवेदनायें सुकुड़ी भी हैं। सामाजिक चिन्ताओं में गम्भीरता आई है परन्तु चिन्तन में और गम्भीरता आनी बाकी है। रं भाषा, रीति-रिवाजों पर आधुनिकता का दबाव, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के लिए दिनों-दिन तीव्र होते पलायन की वेदना और मुखर होती जा रही है।
पांगू अस्पताल में दशकों पहले डाक्टर के अभाव में अस्पताल के स्वच्छक स्वः सुकराम दवाइयों का रंग पहचान कर स्वयं ही डाक्टरी की सेवायें प्रदान करते थे। आज भी इस अस्पताल की हालत ज्यादा बेहतर नहीं हुई है। पांगू के अस्पताल की तरह रं घाटी के स्कूल-कालेज, सड़क और रोजगार केन्द्रों की बदहाली का जिक्र आलेखों में पग-पग पर है।
ये स्मारिकायें, गंगोत्री गर्ब्याल, आर. एस. टोलिया, चंद्रप्रभा ऐतवाल, नृप सिंह नपलच्याल, सुमन कुटियाल दताल, डी. डी. शर्मा, शान्ति नबियाल, अरविन्द सिंह ह्यांकी, कृष्णा रौंकली, आर. सी. जोशी, चन्द्र सिंह नपलच्याल, अजय नबियाल, अमृता ह्यांकी, चंद्र सिंह ग्वाल, प्रमोद तिवारी, पी. एस. सेलाल, हीरा गुंज्याल, रवि पतियाल, अर्जुन सिंह नपलच्याल, धीराज सिंह गर्ब्याल, रतन सिंह रायपा, बलवन्त सिंह ह्यांकी, कृष्ण सिंह रौतेला, विक्रम सिंह रौंकली, मालती ग्वाल, बिशन सिंह बौनाल, गगन सिंह सोनाल आदि के आलेख / संस्मरण/ यात्रा-वृतांत / कवितायें रं समाज के बहुआयामी परिदृश्य और समृद्ध पहचान को सार्वजनिक करते हैं।
ये स्मारिकायें, मुझे जसुली बूढ़ी शौक्याणी (समुद्रतल से 11हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित दांतू गांव की दानवीरा जसुली बूढ़ी शौक्याणी ने तत्कालीन कुमांऊ कमिश्नर हेनरी रैमजे की सलाह पर अपने पैतृक धन से कुमांऊ-गढ़वाल, तिब्बत और नेपाल-प्रमुखतया कैलास-मानसरोवर यात्रा मार्ग में अनेकों धर्मशालायें बनवाई थी।) और गंगोत्री गर्ब्याल दीदी (समुद्रतल से 10500 फीट ऊंचाई पर स्थित ब्यांस घाटी का गर्ब्याग गांव की गंगोत्री गर्ब्याल दीदी ने सीमान्त क्षेत्र में शिक्षा और सामाजिक सेवा की अलख जगाने में अग्रणी भूमिका निभाई थी।) की याद दिलाती हैं। जो, रं समाज ही नहीं पूरे मानव समाज की अमटीकर (पथ-प्रदर्शक) रही हैं।
रं कल्याण संस्था ने अपने स्थापना वर्ष- 1989 से अब तक इन दो स्मारिकाओं के अलावा और भी स्मारिकाओं का प्रकाशन किया है। निःसंदेह, वे भी इन्हीं की तरह पठ्नीय और उपयोगी हैं। कहना अतिशियोक्ति नहीं है कि, ‘अमटीकर’ स्मारिकाओं का संकलन रं समाज और क्षेत्र का इनसाइक्लोपीडिया हैं। विशेषकर, इनमें प्रकाशित यात्रा-संस्मरणों / वृतांतों को एक साथ प्रकाशित किया जाय तो रं समाज की यायावरी और उद्यमशीलता पर एक बेहतरीन और ज्ञान-वर्धक संदर्भ साहित्य देश-दुनिया के सामने आयेगा।
उत्कृष्ट और उपयोगी प्रकाशन के लिए ‘रं कल्याण संस्था’ और उसकी टीम को आत्मीय बधाई और शुभकामना। यह सुहाना और शानदार सफर अनवरत गतिशील रहे।