Friday, July 26, 2024
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“रवांई रसोई” यानि यमुना घाटी में जमुना के हाथों का स्वाद ।

अब "रवांई रसोई" की श्रीमती जमना रावत के पकवानों पर बन गया गीत। कुछ निराला ही कर गुजरते हैं रवांल्टे।

  • अब “रवांई रसोई” की श्रीमती जमना रावत के पकवानों पर बन गया गीत। कुछ निराला ही कर गुजरते हैं रवांल्टे।

(मनोज इष्टवाल)

सच में जब पहली बार नौगाँव उत्तरकाशी में आयोजित “रवाई महोत्सव” में शशि मोहन रंवाल्टा ने अशिता डोभाल के साथ मुझे व मेरे मित्र दिनेश कंडवाल जी को एक छोटे से स्टाल पर थोडा बहुत पेट पूजा के लिए भेजा तो लगा वही मेले की जलेबियों की तरह धूल से सना दाल भात या फिर राजमा चावल खाने को मिल जाएगा । काउन्टर के पीछे खड़ी एक शालीन से स्वभाव की महिला खड़ी दिखाई दी। ऊपर बैनर पर नजर पड़ी तो रवाई रसोई लिखा था। दिनेश कंडवाल जी ने कहा – अरे इष्टवाल जी, छोड़ो यार कुछ नहीं खाना …! आगे देख लेंगे। अशिता बोली- सर एक बार रवाई रसोई का खाकर तो देखिये आपको भी पता चलेगा कि रवाई के खाने में क्या स्वाद है। कंडवाल जी बोले- कहाँ है कुछ दिख नहीं रहा है। अशिता रवांल्टी भाषा में बोली – दीदी, इन्हें डिंडके इत्यादि खिलाना । महिला ने काउन्टर के नीचे से दो पत्तल निकाले और उसमें कुछ पकवान सजा दिए। मुंह में पहला ग्रास जाते ही कंडवाल जी बोल पड़े …वाह !

फिर उन्होंने उस भद्र महिला से नाम पूछा तो वह बोली- सर..मेरा नाम जमना रावत है। जमना या जमुना …बहरहाल यह नाम उनके पकवानों की तरह जुबान पर चढ़ गया और फिर शुरू हुई उनके रसोई खाने पर बात….! श्रीमती जमुना रावत बोली – हम रवांई रसोई में मंडूवे के डिंडके, सीडे (मीठे/नमकीन), बडील (नमकीन), मास के पकोड़े (उड़द की दाल), झंगोरे की खीर, तिलकुचाई, मंडूवे की रोटी/चोपड़, लाल चावल, मंझोली (मांड), मट्ठा मन्जोली, आलू का थिच्वाणी, फाणु (गहथ पीसकर), चौंसा (उड़द पीसकर), भट्ट की भटवाणि, भट्ट की चुटक्याणी, पोस्त की चटनी, नाल बड़ी का साग, पिंडालू की भुज्जी, इन्डोली (गहत व बुरांस के फूल से ) सहित दर्जनों पकवान बनाते हैं, जिन्हें लोग बहुत चाव के साथ खाते हैं और इस स्वाद की प्रशंसा ने ही मुझे प्रेरणा दी कि मैं अपने रवाई घाटी के पकवानों को देश दुनिया के स्वाद में शामिल करवा सकूं।

उत्तरकाशी जिले के ब्रहमखाल जैसी छोटी सी जगह से उठकर देहरादून और उसके बाद दिल्ली, चंडीगढ़, मुंबई जैसे महानगरों में अपनी रवांई के पकवानों की खुशबु से सबको तृप्त करने वाली श्रीमती जमना रावत पिछले पांच बर्षों से यह कार्य निरंतर करती आ रही है। रवाई घाटी की यह महिला बडकोट से लगभग 20 किमी. दूर पट्टी-ठकराल के गाँव मणपाकोटि (गंगताड़ी) के चौहान परिवार में जन्मी जिनका विवाह उत्तरकाशी जिले के ब्र्ह्मखाल में लक्ष्मण सिंह रावत से हुआ जो पेशे से स्कूल में क्लर्क हैं । श्रीमती जमुना देवी बताती हैं कि उन्होंने अपनी माँ से ठेठ पकवानों को बनाना बेहद रूचि के साथ सीखा। मेरे बनाए पकवानों के स्वाद की शादी से पहले मायके में और शादी के बाद ससुराल व मेहमानों में होने लगी तो मन में इच्छा जागृत हुई कि क्यों न इसे मैं व्यवसाय के रूप में लूँ। फिर सोचा कि भला गाँव या पहाड़ में अगर मैं दुकान खोलूं तो वह चलेगी भी कि नहीं! बस इसी जद्दोजहद में यूँहीं कई साल निकल गए लेकिन आँखों में यही सपना था कि रूपये तो सबने कमाए क्यों न अपने पहाड़ के लोक समाज व लोक संस्कृति के माध्यम से नाम कमाया जाय। मेरे पति ने हर पल हर घड़ी मेरी इस सोच का समर्थन किया और कहा जब तुझे लगे कि तुझे काम शुरू करना है तभी सोच लेना कि हाँ – बस शुरुआत ही तो करनी है।

श्रीमती जमना रावत बताती हैं कि बच्चे स्कूली हुए बड़ी कक्षाओं में जाने को हुए तब हम दोनों ने निर्णय लिया कि बच्चों की पढ़ाई अच्छी शिक्षा के साथ हो, क्योंकि हमारे दोनों बेटे राजीव गांधी नवोदय विद्यालय पुरोला से पढ़े हैं इसलिए वहां आगे की पढ़ाई के लिए वैसा प्लेट फॉर्म नहीं था। जैसे तैसे हमने देहरादून में बच्चे पढ़ाने के लिए किराए का कमरा लिया। फिर सोचा इस सब से गुजर नहीं होने वाली इसलिए एक मकान खरीदा और वहां रहने लगे। दिन भर बच्चे स्कूल रहते और मैं घर पर खाली होती। तब दृढ निश्चय कर ही लिया कि रवांई घाटी के पकवानों को मैं किसी भी हालत में राजधानी देहरादून के लोगों को चखाऊँगी। मैंने एक टीम अपने क्षेत्र की महिलाओं व लड़कियों की बनाई और सबसे पहले चौदह बीघा ऋषिकेश में “रवांई रसोई” के नाम से स्टाल लगाईं! यहाँ प्रशंसा मिली तो मनोबल बढ़ा। मेरे पतिदेव ने भी पीठ थपथपाई और तब तो एक जूनून सा सवार हो गया। फिर देहरादून के परेड ग्राउंड, मुंबई कौथीग, दिल्ली में व चंडीगढ़ में तीन-तीन बार स्टाल लगाए, लेकिन अफ़सोस कि किसी भी पत्रकार की नजर हम पर नहीं पड़ी। चंडीगढ़ में मेरा पहनावा व पकवान देखकर जरुर पांचजन्य पत्रिका की एसोसिएट आर्ट डायरेक्टर शशिमोहन रवांल्टा बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने मुझे रवाई महोत्सव के लिए अपने क्षेत्र में आमंत्रित किया। इससे पहले रवांई घाटी की होने के बाबजूद भी किसी को हमारे क्षेत्र में यह पता नहीं था कि कोई रवांई की रसोई लेकर देश के महानगरों तक पहुँच गया है! अपने क्षेत्र में अपनों के बीच मिलने वाला स्नेह गदगद कर देता है लेकिन जब अपना ही कोई धोखा देता है तब दिल टूट जाता है।

बेहद सरल और सरस व्यवहार की श्रीमती जमना देवी कहती हैं- सर, अब तक तो “रवांई रसोई” देश के हर शहर तक पहुँच जाती लेकिन मेरा आईडिया चुरा कर कोई दूसरा इसका फायदा उठाने लगा तो बुरा लगता ही है न। फिर किसी ने भी ऐसा प्लेटफॉर्म नहीं दिया कि हमें आगे बढने के मंच मिलते। फिर भी हमने अभी तक जितना किया उससे ये संतुष्टि तो है ही कि हम अपनी लोक संस्कृति लोक समाज में प्रचलित अपने ठेठ आर्गेनिक उत्पादों से निर्मित पकवानों को हर वर्ग हर समाज तक पहुंचा रहे हैं। आज कई लोग आकर कहते हैं कि हमें सिखा दीजिये मैडम….!  लेकिन सर, सरकार क्या अपने लोक समाज लोक संस्कृति के परिधानों, अन्नपकवानों के लिए कुछ नहीं करती! क्यों नहीं सरकार इन्हें आगे बढ़ाती ताकि हम सबकी यह आमदनी का जरिया बन सके। जब हम यहाँ बैठकर दक्षिण भारत के इडली डोसा, तिब्बत चीन के चौमीन-मोमो-थुप्पा व पंजाब का सरसों का साग व मकई की रोटी बड़े चाव से खाते हैं तो क्या अन्य राज्यों के लोग हमारे पकवान खाने को क्या तैयार नहीं होएंगे? काश…सरकार इस ओर भी ध्यान देती।

सचमुच श्रीमती जमना रावत का एक एक शब्द एकदम सच भी था और अकाट्किय भी…! आखिर हम क्यों नहीं अपने आप को प्रमोट कर पा रहे हैं ! जिसकी जो विधा है उसी पर आगे बढे व राज्य सरकार ऐसे व्यवसायों को प्रोत्साहित करने के लिए आगे आये।

बहरहाल श्रीमती जमना रावत अपनी रवांई रसोई में मंडूवे के डिंडके, सीडे (मीठे/नमकीन), बडील (नमकीन), मास के पकोड़े (उड़द की दाल), झंगोरे की खीर, तिलकुचाई, मंडूवे की रोटी/चोपड़, लाल चावल, मंझोली (मांड), मट्ठा मन्जोली, आलू का थिच्वाणी, फाणु (गहथ पीसकर), चौंसा (उड़द पीसकर), भट्ट की भटवाणि, भट्ट की चुटक्याणी, पोस्त की चटनी, नाल बड़ी का साग, पिंडालू की भुज्जी, इन्डोली (गहत व बुरांस के फूल से ) सहित दर्जनों पकवान अपनी रसोई में सजाती हैं। उनका मकसद है कि वर्तमान के भौतिक युग की चमक-धमक के बीच कहीं हमारी ये पुरातन पाक कला की धरोहरें समाप्त न हो जाय। वो चाहती हैं कि राज्य सरकार एक ऐसी दूकान मुहैय्या करवाए जिस में वह अपने उत्तराखंडी पकवानों के माध्यम से दर्जनों को रोजगार प्रदान कर सके व हमारे राज्य के पकवान भी देश भर में अन्य राज्यों के पकवानों की भाँति ही प्रसिद्धी पायें।

उस दिन से लेकर अब तक जमुना देवी ने हार नहीं मानी। लाख अवरोधों के बावजूद भी उन्होंने देहरादून उत्तरकाशी सहित कई जनपदों रवाई के पकवानों को सजाया व खूब प्रशंसा एवं सम्मान पाया। आज उन्हें कई छोटे बड़े मंचों पर सम्मानित किया गया है लेकिन अभी भी कशिश यही है कि क्या श्रीमती जमुना रावत जैसी महिला पर प्रदेश सरकार की नजरें पड़ेंगी व वह भी लखपति दीदी जैसी योजना का लाभ ले पाएंगी।

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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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