Tuesday, October 8, 2024
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रूपण-सुपण, तमसा-यमुना अर्थात् शाठी व पाशी की राजकुँवारी बेचारी द्रुपदा।

रूपण-सुपण, तमसा-यमुना अर्थात् शाठी व पाशी की राजकुँवारी बेचारी द्रुपदा।

(मनोज इष्टवाल)

उसे पांचाली इसलिए कहा गया क्योंकि वह पाँचाल देश की पुत्री थी । उसे पांचाली इसलिए भी कहा जाता रहा क्योंकि उसके पाँच पति थे। यज्ञ से उत्पन्न हुई इस यज्ञसेना, कृष्ण सखी, द्रौपदी को जीवन भर तथाकथित सभ्य समाज के लांछनो का शिकार इसलिए होना पड़ा क्योंकि उसके पाँच पति थे। अब इसमें उसका क्या दोष है, अपने पुत्रों को एकजुट, एकमुठ व हस्तिनापुर को एक सूत्र में पिरोए रखने का यह लांछन तो पाण्डवों की माँ कुंती पर लगना चाहिये था क्योंकि द्रौपदी ने स्वयंवर में तो सिर्फ़ धनुर्धारी अर्जुन के गले में माला डाली थी। पाण्डवों की माँ कुंती ने कहा कि आपस में बाँट लो और द्रौपदी पाँचों में बंटती चली गई। उन्हें वैश्या कहा गया, भरी सभा में उनकी साड़ी उतारी गई, उन्हें जंघा पर बिठाया गया। कीचक ने उनसे बलात्कार करने की कोशिश की। उनके सभी पुत्रों व रिश्तेदारों का सोए हुए क़त्ल किया गया तब भी बेचारी ने उफ़्फ़ नहीं किया। वह द्वापर से लेकर आजतक वेदव्यास की रचनाओं में पाँच पतियों की पत्नी कहलाती आ रही है लेकिन किसी ने कभी यह नहीं कहा कि केवट पुत्री मत्स्यगंधा सत्यवती क्या कोई क्षत्राणी या राजपुत्री थी, जिनके पुत्र वेदव्यास हुए? आइए आज रूपण-सुपण व तमसा-यमुना घाटी में बसी उन सभी द्रौपदाओं को द्रौपदी समतुल्य मान उस समाज की समीक्षा करें जिसे यह मातृशक्ति वैदिक काल से ढोती आ रही हैं।

प्रश्न यह उठता है कि इस सब की भागीदार सिर्फ़ पांचाल नरेश राजा द्रुपद की पुत्री देवी काली, जो कि माँ दुर्गा की ही एक शक्ति हैं, उनका ही अंशावतार, 64 योगिनियों में से एक खप्पर योगिनी भी कहा जाता है, द्रौपदी ही क्यों? क्या वैदिक काल से कलियुग़ तक सिर्फ़ और सिर्फ़ पुरुष ने ही अपनी मनमर्ज़ी का साम्राज्य स्थापित किया?

अगर ऐसा नहीं है तो वैदिक काल में शकुंतला, सतयुग में देवताओं के संकट हरण करने वाली माँ काली, त्रेता में माता सीता, द्वापर में द्रौपदी को ही हर युग परिवर्तन का स्तम्भ क्यों माना जाता रहा है? यह क्यों कहा जाता रहा है कि हर झगड़े की जड़ स्त्री ही होती है व फिर घुमाकर यह प्रहार भी किया जाता है कि “त्रिया चरित्रं, पुरुषस्य भाग्यम देवो न जानाति, कुतो मनुष्य:। “

देवभूमि उत्तराखंड की बात हो तो इन सभी महान देवियों का जन्म, कर्म, धर्म, मृत्यु , मोक्ष स्थान यही कहलाया। वैदिक काल में स्वर्ग अप्सरा मेनका व ऋषि विश्वामित्र की पुत्री मेनका का जन्म स्थान, सतयुगीन माँ काली का निवास स्थान, त्रेता युगीन माता सीता का पृथ्वी में समाधि लेने का स्थान या फिर द्वापर युगीन पांडव पत्नी व कृष्ण सखी द्रौपदी का धर्म, कर्म व मोक्ष स्थान सब यहीं तो है।

सच्चाई यह है कि पांचाल देश की यह राजकुमारी यमुना-तमसा, रुपिण-सुपिन घाटी के उत्तराखंडी व हिमाचली मानव की अपरिचिता तो बिल्कुल नहीं थी। क्योंकि इस घाटी क्षेत्र को आज भी पाण्डवों के अनुशरणकर्त्ता के रूप में देखा व समझा जाता रहा है व आज भी इस क्षेत्र के बहुत बड़े भू-भाग में संयुक्त परिवार के ढाँचे को सुरक्षित रखने हेतु बहुपति प्रथा सुरक्षित है। भले ही विगत 25 वर्षों में सामायिक, भौतिक व शैक्षिक परिवर्तनों के बढ़ते आभामंडल ने इन परम्पराओं में नयापन का दिया हो लेकिन इस बात से इनकार भी नहीं किया जा सकता कि जिस देवभूमि की रीढ़ के रूप में यहाँ की नारी को सर्वोपरि माना जाता है व जिस नारी के बारे में कहा जाता है –

“यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ।

यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ।।५६।।”

(मनुस्मृति अध्याय ३, श्लोक ५६-६०)
जहां नारी की पूजा होती है वहाँ देवताओं का वास होता है। अर्थात्
“जहां स्त्रीजाति का आदर-सम्मान होता है, उनकी आवश्यकताओं-अपेक्षाओं की पूर्ति होती है, उस स्थान, समाज, तथा परिवार पर देवतागण प्रसन्न रहते हैं । जहां ऐसा नहीं होता और उनके प्रति तिरस्कारमय व्यवहार किया जाता है, वहां देवकृपा नहीं रहती है और वहां संपन्न किये गये कार्य सफल नहीं होते हैं।”

पांचाल व हिमालय के शिवालिक क्षेत्र का चोली-दामन का साथ रहा है, आज भी बहुत सारे रीति-रिवाज साझे हैं। क्या हस्तिनापुर व क्या इंद्रप्रस्थ सब आपसी डोर में बंधे पाण्डवों के लाक्षागृह लाखमंडल को जोड़कर खांडव वन क्षेत्र की रिक्तता की पूर्ति करते हैं। प्रश्न यह उठता है कि देवभूमि में बहुपति प्रथा वैदिकक़ालीन रही जिसके कई उदाहरण हैं, फिर भी हम द्रौपदी के पक्षधर क्यों नहीं बने क्योंकि इस भूमि में सती अनुसूया, माँ रेणुका, सीता माता, नवदुर्गाओं, महाकाली इत्यादि के साथ-साथ पीढ़ी-भराडी, भ्रामरी सहित कई योगिनियों के मंदिर हैं फिर 64 योगियों के मूल अवतार दुष्यंत पत्नी व चक्रवर्ती राजा भरत की माँ शकुंतला व पाँच पाण्डवों की पत्नी द्रौपदी के मंदिर क्यों नहीं? ये दोनों हाशिये पर क्यों?

फिर क्यों नहीं साठी-पाशी के धड़ों के सभ्य समाज, राजमद के अंधे राजमद के अंधे राजकुमारों को यह नहीं बताया गया कि वे स्वयं अपने गिरेबान में झांककर तो देखें कि उनकी उत्पत्ति की सूत्र कौन सी प्रथा है? भरी सभा में द्रौपदी का अपमान करने वाले कौरवों, कर्ण, कीचक से यह प्रश्न क्यों नहीं किया गया कि वे किस राजवंश, राजकन्या के वंशज हैं? या फिर विवाह से पूर्व जन्मे सत्यवती पुत्र वेदव्यास की रगों में किस राजघराने का खून रहा?

बहुपति प्रथा को अपनाने वाले हमारे हिमालयी लोकसमाज की रीति-परम्पराओं पर व्यंग्य कसकर हंसने वाले लोग क्या यह नहीं जानते कि बहुपति प्रथा वैदिक काल से चली आ रही समाजनुमोदित ब्यवस्था है। क्या सूर्य भगवान को अर्घ चढ़ाने वाला समाज यह नहीं जानता कि सूर्य पुत्री सूर्या ऋग्वेद के अनुसार मनुष्य से विवाह से पूर्व बारी-बारी सोम, गंधर्व व अग्नि की पत्नी रह चुकी है! फिर प्रश्न द्रुपदा (द्रौपदी) पर ही क्यों?

द्रुपदा का भाग्य देखिए पाँच-पाँच पतियों, वह भी धर्म, इंद्र, वायु और अश्विनी कुमारों जैसे देवताओं की संतान होते हुए भी जीवन के उन क्षणों में जब पति के संरक्षण, सहायता व सम्मान की उसे सख़्त ज़रूरत थी, सभी सिर झुकाये सभा में मूक दर्शक बने उसका चीर हरण देखते रहे।द्युतग्रह से दुशासन उसे बालों से खींचता कुरु सभा में लाकर निर्वस्त्र करने लगा। भरी सभा में कीचक उस से बलात्कार की कोशिश करता है। तब द्रुपदा के आँसू इन महावीरों को नहीं दिखाई दिये। अपनी लाज बचाने के लिए श्रीकृष्ण का स्मरण करते रहे। कुरु सभा छोड़िये विराट सभा में भी तो युधिष्ठिर मूक दर्शक बने रहे। हर कदम पर पाँच पतियों के होते हुए भी द्रुपदा सनाथ होते हुए अनाथ ही रही। फिर हम कहते हैं कि महाभारत द्रुपदा के व्यंग्य बाण से शुरू हुआ।

महाभारत का युद्ध ही देख लीजिए । अंतिम चरण में द्रोणाचार्य पुत्र अश्वत्थामा रानी द्रौपदी के अभी पुत्रों, रिश्तेदारों व पांडव सेनापति धृष्टधूम्न की सोए हुए हत्या कर देता है तब धर्मयुद्ध व धर्म कहाँ था? महाभारत युद्ध विजय के पश्चात वह ख़ाली हाथ ख़ाली मन युधिष्ठर के साथ सिंहासन में पटरानी (महिषी) के रूप में बैठी भी तो बिना आबद मित्रों व पुत्रों के उसने क्या सुख भोगा? और तो और स्वर्गारोहण करते समय थकहार कर जब द्रौपदी रास्ते में गिर पड़ी तब भी उसके पाँचों पतियों ने पीछे मुड़कर नहीं देखा।

यह अचंभित करने वाली बात है कि जिस स्वर्गारोहण के मार्ग में पांडव चले वहाँ उस रूपण-सुपण, तमसा-यमुना घाटी में साठी व पाशी वंशज कहलाने वाले जनमानस ने दुर्योधन, कर्ण व पाँच पांडव मंदिर व चौंरी, चबूतरा तो बनायालेकिन इसी धरा पर प्राण त्यागने वाली द्रुपदा का कोई स्थान नहीं है।

दुःख तो इस बात का है कि अपने युग की सर्वश्रेष्ठ सुंदरी, प्रबल प्रतापी राजा की पुत्री, विश्व के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर, गदाधर की पत्नी पहले भी वंचिता थी और आज भी वंचिता ही है। ज़िंदगी भर दुखों का पहाड़ सिरमाथे पर झेलने वाली द्रुपदा शायद अब लाखामंडल स्थित अपने द्रुपदा ताल से भी वंचित होती दिखाई देने लगी है क्योंकि जहां द्रुपदा मंदिर स्थापित होना चाहिए था वहाँ भूलवश कहें या फिर कुछ और स्थानीय वासियों ने दुर्गामूर्ति स्थापित कर उसे दुर्गा कहना शुरू कर दिया है। अज्ञानता वश ही सही लेकिन पांचाल नरेश राजा द्रुपद की पुत्री देवी काली, जो कि माँ दुर्गा की ही एक शक्ति हैं, उनका ही अंशावतार, 64 योगिनियों में से एक खप्पर योगिनी द्रौपदी के दुर्गाअवतार की लाखामंडल द्रुपदा ताल में पूजा अर्चना होनी शुरू हो गई है। काश…हम अक्षतयोगिनी माँ द्रुपदा के दुर्गाअवतार में द्रौपदी का स्मरण भी करते रहते।

हमें इस बात पर गौरवान्वित होना चाहिए कि इस घाटी में आज भी नारी का दर्जा सर्वोच्च है व उनका स्थान विशिष्ट है। आपसी कलह को सुलझाने का दारोमदार आज भी इस क्षेत्र की नारी को ही जाता है। बेहद पूजनीय ऐसी माँ स्वरूपा नारी व धरा को शत-शत नमन॥

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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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