विधायिका का खुला उल्लंघन। चौराहे पर खड़ी मिली विधान सभा। नौकरियों की खुली खरीद-फरोख्त।
(मनोज इष्टवाल)
ऐसा भाव शायद ही पूरे देश की किसी प्याज या सब्जी मंडी में लगा हो। या फिर किसी कोठे में बिकते ठगते इंसानी जिस्मों का। विधायिका का खुला मजाक इससे पहले शायद ही कभी प्रकाश में आया हो जब सम्पूर्ण विधान सभा चौराहे पर खड़ी की गई हो व जिसने जैसे भाव लगाए उसने वैसे पद पाए। अब इस में इंसान बिका या इंसानियत। खरीददार ने राजनेता को खरीदा या खरीददार स्वयं बिका? लेकिन सच ये है यह उसका हक भरे बाजार बिका जिसका बेरोजगार बेटा बेटी अथक परिश्रम कर अच्छी शिक्षा ग्रहण कर आज भी नौकरी की तलाश में जूते-चप्पल घिस रहा है। इन राजनेताओं ने तो विधायिका का ज़मीर ही बेच दिया।
अब आम भाषा में यदि कहा जाय तो विधायिका का अर्थ किसी विधान सभा क्षेत्र से जीतकर आई कोई महिला प्रत्याक्षी समझी जाती है, जो आम भाषा में लोगों की जानकारी में है। ऐसे आम लोगों तक विधायिका का खास अर्थ समझाना भी आवश्यक है क्योंकि हम सबको पता होना चाहिए कि विधान सभा के दायित्व व कर्तब्य होते क्या हैं जिसे इन राजनेताओं ने खरीद-फरोख्त की मंडी बना दिया है।
विधायिका (Legislature) या विधानमंडल का अर्थ होता है “किसी राजनैतिक व्यवस्था के उस संगठन या ईकाई को कहा जाता है जिसे क़ानून व जन-नीतियाँ बनाने, बदलने व हटाने का अधिकार हो।”
ऐसे में अगर इसी विधान मंडल की सर्वोच्च कुर्सी पर आसीन व्यक्ति ही इस विधायिका को चौराहे में लाकर इसकी बोली लगाने वाला बन जाये व कहे कि ये उसके आरक्षित असीमित अधिकारों की श्रेणी में आता है तो आम जनता के हिस्से में आई ठगी का ऐसी विधायिका के प्रति क्या आदर रह जाएगा ! यह प्रश्न महत्वपूर्ण है।
पूरे देश भर में राजनीति के प्रखर राजनेता के रूप में जाने गए गांधीवादी नेता पंडित नारायण दत्त तिवारी के उत्तराखंड के मुख्यमंत्री काल में (2002-2007) तक पहली बार विधान सभा में अवैध नियुक्तियों को लेकर विपक्ष ने आवाज उठाई थी। उस दौर में नैनीताल के विधान सभा से निर्वाचित विधायक यशपाल आर्य विधान सभा अध्यक्ष थे और तब विधान सभा के पक्ष विपक्ष में बैठे ज्यादात्तर विधायक मंत्री नौसिखिए…! इसलिए उन्हें यह जानकारी नहीं थी कि विधान सभा में नियुक्ति का सर्वाधिकार मुख्यमंत्री को है या विधान सभा अध्यक्ष को? शायद तत्कालीन विधान सभा अध्यक्ष यशपाल आर्य भी शुरुआती दौर में इस बात को नहीं जानते रहे होंगे। उस दौर में भी विधान सभा में ऐसी नियुक्तियां हुई हैं जैसे रेवड़ियां बंट रही हों लेकिन नई विधान सभा में नारायण दत्त तिवारी जैसे विशाल कद के आगे भला किसकी मजाल जो चू कर सके। तब दो चेहरे ही सरकार के ऐसे समझे जाते थे जिन्हें संसदीय ज्ञान था। जिनमें संसदीय कार्य मंत्री सहित कई भारी भरकम विभागों को संभालने वाली इंदिरा हृदयेश व तत्कालीन राजस्व मंत्री डॉ हरक सिंह रावत।
(पत्रकार अखिलेश डिमरी द्वारा जुटाई गई 154 अवैध नियुक्तियों की डिटेल)
तब डॉ हरक सिंह रावत ने पौड़ी जनपद में पटवारी भर्तियां प्रारम्भ की थी। इसमें भी खूब पैंसा चला। राजनीति के विदूषक व धूर्त राजनेता कहे जाने वाले एन डी तिवारी ने बिना क्षण गवाए इस पर सीबीआई जांच बिठाई व भर्ती घोटाले का खुलासा होते ही तत्कालीन जिलाधिकारी पौड़ी लाम्बा को तत्काल सस्पेंड कर दिया गया। एक आईएएस अधिकारी के सस्पेंड होते ही एनडी तिवारी की जय जयकार होने लगी। लेकिन पर्दे के पीछे खड़े सफेदपोश बाइज्जत अपने को सात पर्दों में छुपाने में इसलिए कामयाब हो गए क्योंकि तब केंद्र में भी कांग्रेस सरकार थी व प्रदेश में भी। सूत्र तब यही कहते थे कि तिवारी को मोटा चढ़ावा चढ़ा। नारायण दत्त तिवारी काल में न सिर्फ विधान सभा बल्कि सचिवालय व अन्य विभागों में भी बिना भर्ती विज्ञापन सूचना के हजारों नौकरियां औने-पौने दामों पर बांटी गई और यहीं से श्रीगणेश हुआ राज्य निर्माण के बाद ट्रांसफर भर्ती प्रक्रिया में लाखों रुपये का लेन-देन।
ऐसा नहीं है कि हर बार ऐसा ही हुआ होगा कि जब भी जो भी राजनेता विधान सभा अध्यक्ष बना उसके कार्यकाल में ऐसी अनैतिक नियुक्तियां हुई हैं। सन 2000 से 2002 तक उत्तराखंड राज्य गठन के समय जब पहले मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी बने व उनके बाद भगत सिंह कोश्यारी के हाथों बागडोर आई तब विधान सभा अध्यक्ष प्रकाश पंत के दौर में लखनऊ विधान सभा में कार्यरत कुमाऊं मूल के ज्यादात्तर कर्मियों को उत्तराखंड लाया गया तो लगा कि उनके द्वारा कुमाऊँ मंडल के लोगों की अवैध नियुक्तियां की जा रही हैं। उन पर आरोप लगे कि उन्होंने अपने रिश्तेदारों की खूब नौकरियां लगाई। लेकिन ऐसी सम्भावनाएं कम ही रही कि उनके कार्यकाल में अवैध नियुक्तियां ऐसे ही हुई हैं जैसे मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी के काल में बबाल मचा या फिर विधान सभा अध्यक्ष गोबिंद सिंह कुंजवाल व प्रेम चंद अग्रवाल के दौर में …! हां इतना जरूर है कि एनडी तिवारी के दौर में विधान सभा अध्यक्ष रहे यशपाल आर्य की जगह एनडी तिवारी द्वारा अपने चहेतों को बांटी गई नौकरियां ही अखबारों की सुर्खियां बनी व यशपाल आर्य का नाम ऐसी नियुक्तियों में नहीं उछला।
(पत्रकार अखिलेश डिमरी द्वारा जुटाई गई 154 अवैध नियुक्तियों की डिटेल)
यह आश्चर्यजनक है कि 2007 से 2012 तक विधान सभा अध्यक्ष रहे हरवंश कपूर पर ऐसा लांछन नहीं लगा कि उन्होंने अपने कार्यकाल में अवैध नियुक्तियां की हों। सच कहें तो उनके कार्यकाल स्थायी नियुक्ति का विवाद कभी सामने नहीं आया।
2012 से लेकर 2017 तक प्रखर गांधीवादी नेता कहलाने वाले गोबिंद सिंह कुंजवाल के कार्यकाल का अंतिम बर्ष बहुत अधिक चर्चाओं व सुर्खियों पर रहा। क्या मीडिया क्या राजनेता व क्या आमजन..! सभी ने उनकी कार्य प्रणाली पर प्रह्नचिह्न लगाये उनके द्वारा की गई अवैध नियुक्तियों पर खूब बबाल मचा तथा विपक्ष ही नहीं पक्ष के कई नेताओं ने उन पर संवैधानिक अधिकारों के हनन का आरोप लगाते हुए उन्हें व तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत को कटघरे में ला खड़ा कर दिया। और तो और 2017 के विधान सभा चुनावों में उनके इन कृत्यों को भाजपा ने खूब चुनावी मुद्दा भी बनाया। क्योंकि उन पर आरोप था कि विधान सभा व सचिवालय में उन्होंने 154 नियुक्तियां बैक डोर से मोटी रकम लेकर की हैं। उन पर आरोप लगाए गए कि उन्होंने अपने सगे सम्बन्धियों, रिश्तेदारों व उनके पीएस ने भी नियुक्तियों पर खूब चांदी काटी है।
2017 में विधान सभा अध्यक्ष बनते ही अपने तल्ख तेवरों के लिए जाने गए प्रेम चंद अग्रवाल ने घोषणा की कि वे सभी अवैधानिक नियुक्तियों का पर्दाफाश कर ऐसे कर्मियों को विधान सभा से बाहर करेंगे जिनकी नियुक्तियां अवैध तरीके से हुई हैं। आम जन को लगा कि अब मिला उन्हें बेहद ईमानदार व कर्मठ नेता। लेकिन काजल की कोठरी की कालिख व हमाम में सब नंगे वाली कहावत को भला कौन झुठला सकता है। उन्होंने भी अपने कार्यकाल के चुनावी बर्ष में खुन्नस निकाली व 129 बैक डोर भर्ती कर गोबिंद सिंह कुंजवाल जैसा ही अनुशरण किया। भले ही प्रेम चंद अग्रवाल पत्रकारों से कहते सुनाई दिए कि उन्होंने नियुक्तियों में पूरी पारदर्शिता अपनाई लेकिन उन पर आरोप लगाए गए कि उन्हें प्रत्येक नियुक्ति पर 20 से 30 लाख प्राप्त हुए। ये आरोप कितने सत्य हैं कहा नहीं जा सकता क्योंकि ऐसे आरोप पूर्व में पूर्व विधान सभा अध्यक्ष गोबिंद सिंह कुंजवाल पर भी लगे थे कि उन्हें अवैध नियुक्तियों पर 15 से 20 लाख प्रति व्यक्ति ने दिए। मतलब हर पंच बर्षीय योजना के आधार पर नियुक्ति घोटाले की रकम भी बढ़ती रही। अगर ऐसे आरोप सही हैं तो क्यों नहीं पारदर्शिता के साथ जांच बैठाई गयी व दूध का दूध पानी का पानी हुआ। अब ये सब आरोप निराधार ही लगते हैं क्योंकि आम जनता भी करप्शन व करप्ट सिस्टम की भागीदार बन चुकी है क्योंकि उसकी चुप्पी सिर्फ सरकारें तो बदल रही है लेकिन वह सड़क पर हल्ला बोलने की स्थिति में नहीं है क्योंकि अधिकत्तर लोग ले देकर जैसे तैसे अपने बेरोजगारों को नौकरी दिलाने की जद्दोजहद में जुट रखें हैं शायद वे लोग यह भूल गए कि जिस दिन जांच की आंच में ये नाम सामने आएंगे उस दिन उन्होंने वैध या अवैध तरीके से घूस के लिए जुटाई राशि तो गंवा ही दी है ऊपर से जग हंसाई के पात्र भी बन बैठे हैं और अपने पुत्र पुत्री को आगामी समय में घूसखोर बनने का सबक अलग दे दिया है।
विधानसभा में अवैध नियुक्तियां जो नियमानुसार हुई बताई जा रही हैं उन नियमो में कुछ उदाहरण निम्नलिखित रूप से प्रमुख हैं जिनमें अब तक के मुख्यमंत्रियों के रिश्तेदार उनके ओएसडी व उनकी पत्नी साले, मुख्यमंत्रियों व मंत्रियों के पीआरओ की पत्नियां व विभिन्न पार्टियों के संघ संगठन से जुड़े लोगों के पुत्र व रिश्तेदार सम्मिलित हैं।
इसके अलावा कुछ पत्रकारों की पत्नियां और रिश्तेदार भी लगाए गए हैं जिन्हें यह भनक लग चुकी थी कि बैक डोर से ले देकर भर्तियां हो रही हैं।।
विगत दिवस पत्रकारों के सवालों का जबाब देते हुए पूर्व विधान सभा अध्यक्ष प्रेम चंद अग्रवाल ने तल्ख तेवर में पत्रकारों से बात करते हुए कहा कि नियुक्तियां नियमानुसार ही हुई हैं इसलिए जांच की कत्तई आवश्यकता नहीं , इसके अतिरिक्त नियुक्तियां टेम्परेरी व आवश्यकतानुसार ही की गयी हैं अतः बिना सोचे समझे कोई सवाल न करें ।
वहीं दूसरी ओर मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने पत्रकारों के सवालों के जबाब में UKSSSC भर्ती घोटाला व विधान सभा बैक डोर भर्ती पर दृढ़ता के साथ कहा है कि:-
इन सब मुद्दों को देकर तो वैसे अब ऐसा लगता है कि यह प्रदेश बना ही भ्रष्टाचार की नींव पर है क्योंकि इन 22 बर्षों में इस प्रदेश में अन्य घोटालों के अलावा वन दरोगा भर्ती घोटाला, वन आरक्षी भर्ती घोटाला, पुलिस दरोगा भर्ती घोटाला, जेई , एई भर्ती घोटाला, अध्यापक भर्ती घोटाला, डॉक्टर फार्मासिस्ट भर्ती घोटाला (अभी खुलना बाकी), सहकारिता भर्ती घोटाला सहित UKSSC के कई अन्य घोटाले उजागर हो रहे हैं। जिन पर मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने एसटीएफ जांच बिठा तो दी है और 30 से अधिक गिरफ्तारियां भी हो गयी हैं। लेकिन इन भर्तियों का सीधा संपर्क मंत्री विधायकों के सगे सम्बन्धियों से लेकर संघ संगठन परिवार तक होना कहीं हो न हो निकट भविष्य में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के लिए मुसीबत की वजह बने। लेकिन जिस निष्ठा के साथ उन्होंने यह सब उजागर करने के लिए अपनी सरकार के दौरान ही कमर कस ली है उससे उनकी अच्छी छवि जनता के बीच अवश्य बनी है लेकिन राजनैतिक गलियारों के लोग इसे निखालिश अंदरूनी राजनीति में शह- मात का खेल बता रहें हैं व पार्टी के बीच उभरा ध्वन्ध भी…!
इस प्रदेश का दुर्भाग्य इसी से लगाया जा सकता है कि सिर्फ 70 विधान सभा क्षेत्रों वाले उत्तराखंड प्रदेश की विधान सभा में कार्य करने वाले अधिकारी व कर्मचारी 403 विधान सभा क्षेत्र जैसे विशाल उत्तर प्रदेश की विधान सभा से कई अधिक हैं। उत्तराखंड प्रदेश को क्या नेता व क्या अधिकारी जिसने जब चाहै मनमाफिक तरीके से लूटा और इस सबका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि इन घूसखोरों के कारण ही इस प्रदेश के 10 पहाड़ी जनपदों के 3000 से अधिक गांव पलायन के कारण खाली हो गए हैं। हजारों हैक्टेयर कृषि भूमि बंजर में तब्दील हो गयी है फिर भी आये दिन दिव्य स्वप्न दिखाने वाले राजनेता यहां हर गली मोहल्ले में मिल जाते हैं।