“चक्रब्यूह” एक ऐसी गढ़वाली फ़िल्म जो ओला सिंह अंगार के इर्द-गिर्द घूमती रही।
(मनोज इष्टवाल)
न बल जातवान न थातवान अर नौ प्वडी ओला सिंह अंगार…! पटकथा गीत व फ़िल्म निर्देशक श्रीमति सुशीला रावत ने जब यह नाम सोचा होगा तो वह मन ही मन मुस्कराई जरूर होंगी। यह पहला ऐसा नाम है जो ओला अर्थात गढ़वाली में ढांडु, ओला = ओला टैक्सी, अंगार तो गढ़वाली व हिंदी दोनों में है जो आग से जन्म लेता है। यह नाम शायद ही किसी पुरुष के नाम से मैच करता हो। लेकिन इस फ़िल्म में ठेठ ग्रामीण परिवेश का यह ओला सिंह जो चक्रब्यूह रचाता है वह सचमुच सोचने को मजबूर कर देता है कि एक शक को प्रबल करने के लिए कोई किस हद तक जा सकता है।
फ़िल्म की पटकथा एक ऐसे प्रेम को परिभाषित करती है, जो एक नादान लड़की एक उम्र दराज चाय बागान के मालिक से उसके उनके घर उठने बैठने से शुरू होकर प्रेम में बदल जाती है। लेकिन कहानी के दूसरे अंश में एक शराबी पैसे वाला व्यक्ति भी दिलोजान से फ़िल्म की नायिका को पसंद करता है जिसे नायिका का थोकदार बाप पसंद नहीं करता इसलिए वह ओला सिंह को बिचौलिया बनाकर उसे खूब धन देकर उसे अपने पक्ष में करने को कहता है। नायिका एक रात भागकर रूप सिंह अर्थात चाय बागान के मालिक से गुपचुप विवाह रचा देती है। जो ओला सिंह अंगार जो कि चाय बगान के मालिक का मुंशी है नागवार गुजरती है व वह ऐसा चक्रब्यूह रचता है कि चार खून हो जाता हैं व एक पूरा परिवार तबाह।
(फ़िल्म की पटकथा लेखिका, निर्देशक श्रीमति सुशीला रावत व फ़िल्म निर्माता के साथ)
श्रीमति सुशीला रावत निर्देशित इस फ़िल्म की सिनेमाफोटोग्राफी गढ़वाली सिनेमा के हिसाब से देखी जाय तो यह आले दर्जे की है। बैक ग्राउंड म्यूजिक का भी अच्छा क्लास है व डायलॉग डबिंग में भी कहीं कोई खामी नहीं है। फ़िल्म समीक्षक के रूप में अगर देखा जाय तो फ़िल्म की स्क्रिप्ट में कुछ लूप होल्स हैं जिन्हें आम आदमी नहीं समझ सकता लेकिन एक फ़िल्म समीक्षक की नजर में वह आँखों से ओझल नहीं हो सकते।
श्रीमति सुशीला रावत पूर्व में गढ़वाली सिनेमा की आले दर्जे की कलाकार रही हैं, उन्होंने अपनी शुरुआत दिल्ली के नाट्यमंचों से की। दिल्ली में ही उन्होंने गढ़ चाणक्य पुरिया नैथानी पर शानदार मंचन किया। अब अगर चक्रब्यूह की पटकथा की बात की जाय तो पटकथा में ठेठ गढ़वाली शब्दों का कई जगह अभाव दिखाई दिया जोकि डायलॉग में भी परिदृश्य हो रहा था। डायलॉग हिंदी पुट लिए हुए लगे लेकिन हिंदी पुट होने का मतलब यह नहीं है कि वह आम गढ़वाली बोलचाल में प्रयुक्त होने वाले शब्द नहीं हैं। हो सकता है कि जौनसारी, नेपाळी, गढ़वाली तीन भाषाओं में डब होने वाली इस फ़िल्म के लिए जानबूझकर यह प्रयोग में लाया गया हो।
(उत्तराखंडी सिनेमा के कुछ चुनिंदा फ़िल्म निर्माता/निर्देशकों के साथ फ़िल्म चक्रव्यूह के प्रीमियर पर )
फ़िल्म में थोकदार देर रात्रि भी जब बाहर निकलता हैं उनके सिर में पगड़ी, माथे पर टीका गले में मोतियों की माला व जूते दिखाई दे रहे हैं। जबकि होता यह हैं कि घर में आदमी बेहद रिलेक्स होकर रहता है व किसी के आवाज देने पर तैयार होकर बाहर नहीं आता बल्कि अपने घर की दिनचर्या के कपड़ों में बाहर निकलता हैं, नायिका व सह नायिका की नाक की नथ सोते जागते झलकती है, वहीं ओला सिंह व नायिका के प्रेमी के कपड़े कई सीन तक एक जैसे ही रहते हैं। फिर इंटरवल के बाद ओला सिंह की कमर में अचानक खुखरी लटकी दिख जाती है। भेषभूषा एवं आभूषण जहाँ इस फ़िल्म को पौराणिक टच देने की जुगत में दिखाई दिए वहीं मिरजई (कुर्ते)के नीचे जींस पैंट व महंगे जूते आधुनिकता की निशानी दिखाई दे रहे थे। जहाँ एक ओर फ़िल्म में लेन देन कलदार में होता दिखाई दिया तो लगा यह फ़िल्म ब्रिटिश काल अर्थात 1850 के दशक की है लेकिन अचानक वर्दी में उत्तराखंड पुलिस दिखाई देती है जो 1 जनवरी 2007 में प्रदेश में उत्तराँचल से उत्तराखंड का बैच लगाती है। यहाँ यह समझ नहीं आया कि पहाड़ी परिदृश्य की इस फ़िल्म में राजस्व पुलिस की जगह रेगुलर पुलिस कैसे तैनात हुई और आम थाने में पुलिस एसएसपी कैसे सारी व्यवस्था संभाल सकते हैं?पुलिस अधिकारी के सामने ओला सिंह अपनी नायिका की हत्या कर देता है और पुलिस अधिकारी एकदम आवाक खड़ा रहता है? ऐसे कई लूप होल्स होने के बावजूद भी फ़िल्म के दृश्य व गीत मन मोहक हैं।
संगीतकार राजेंद्र चौहान ने थड़िया गीत “माया म तेरी… रूप सिंगा” में सुंदर संगीत दिया है व गीत का फ़िल्मांकन भी बेहतरीन हुआ है। बादी जाति की धुन कम्पॉजिशन “ज्वनी कु उलार छ दगड्या जन फूलूँ म फुलार…।” ने यकीनन उस लोक में पहुंचा दिया जिसकी आज कल्पना ही की जा सकती है।
बहरहाल इस फ़िल्म के तकनीकी पक्षों को अगर छोड़ दिया जाय तो यह एक ऐसी कहानी को जन्म देती नजर आई जो एक खलनायक के इर्द गिर्द घूमती चरम पर पहुँचती है और इसमें अभिनेत्री अभिनेता गौण हैं।