न सूर्यवंशी भानुप्रताप और न चन्द्रवंशी कनकपाल बल्कि अजयपाल हुए गढ़वाल के पहले राजा! सूर्यवंशी राजा भानुप्रताप ने चन्द्रवंशी राजा कनकपाल को दहेज़ स्वरुप सौंपी थी बदरीनाथ की गद्दी!
(मनोज इष्टवाल)
यह बड़े असमजंस की स्थिति तब आकर सामने खड़ी हो जाती है जब हम गढ़वाल नरेश के रूप में सूर्यवंशी राजा भानुप्रताप या फिर चन्द्रवंशी राजा कनकपाल को गढ़वाल के पहले राजा के रूप में दर्शाते हैं जिनका कार्यकाल छटी शताब्दी के प्रथम दौर में माना गया है! लेकिन यह बेहद कपोल-कल्पित है क्योंकि तब तक गढ़वाल नाम से कोई भी राज्य सम्पूर्ण वर्तमान उत्तराखंड में नहीं था बल्कि ये दोनों ही बदरीनाथ के राजा हुए जिनकी राजधानी चांदपुर गढ़ थी!
गढ़ शब्द के पीछे वाला लगाने से गढ़वाल का नामकरण सन 1515 ईस्वी में पड़ा जिसमें 52 ठाकुराई गढ़ों का उल्लेख मिलता है लेकिन यह आश्चर्य की बात नहीं तो और क्या है कि इन 52 गढ़ों से कई पूर्व सम्पूर्ण उत्तराखंड में 100 गढ़ हुआ करते थे जिनका विवरण ऋग्वेद में मिलता है! इसलिए यह कहा जा सकता है कि गढ़ों की परम्परा प्रागैतिहासिक काल से चली आ रही है!
गढ़वाल से इस सम्पूर्ण क्षेत्र पांच भागों के नाम से जाना जाता रहा है जिनमें तपोभूमि, हिमवंत, बद्रिकाश्रम, उत्तराखंड व केदारखंड प्रमुख हैं ! मात्र केदारखंड ही शास्त्रों में स्वर्ग भूमि के रूप से जाना गया है! आपको बता दें कि सम्पूर्ण पृथ्वी के जलमग्न के बाद जिस मनोरव सपर्ण नामक स्थल पर श्रृष्टि की रचना हुई वह हिमालय के बद्रिकाश्रम का माणा गाँव माना गया है! आदिमानव ने यहीं मान-जीवन यापन किया! बद्रिकाश्रम के समीप गणेश गुफा, नारदगुदा, मुचुकुंदगुफा, ब्यास गुफा और स्कन्द गुफा हैं जहाँ वेदों और पुरानों की संरचना हुई!
ऋग्वेद (10-29-19) के अनुसार सप्त ऋषियों ने जल प्रलय के बाद माणा गाँव में ही अपनी प्राण रक्षा की थी और पुनः यहीं श्रृष्टि की रचना पर भी लग गए ! भले ही कई जातियों की उत्पत्ति के बारे में कई पुराणों में राजस्थान के माउंट आबू पर ऋषियों की आहुति से जन्में जाति-धर्म वर्ण का भी जिक्र हुआ है लेकिन सप्तऋषि जिनमें मारीचि, अंगीरा, अत्रि, अगस्त्य, भृगु, वशिष्ट और मनु हुए ने यहीं से अनेक वंश चलाये!
यह भूमि सिर्फ देवताओं की ही रही होगी यह कहना सर्वथा गलत हैं क्योंकि राजा दक्ष को ब्रह्मा जी का पहला पुत्र माना गया है जिनकी राजधानी हरिद्वार के पास कलखुल (कनखल) बताई जाती है और वे सर्व सम्मत्ति से प्रजापति पद से सम्मानित भी किया गए (महावन पर्व ८४-३०, ९०-२२, अनु. २५-१३ शान्ति पर्व २८४-३) ! कहा जाता है कि ब्रह्मा के ६ अन्य मांस पुत्रों के जन्म भी इसी उत्तराखंड में हुए !
ज्ञात हो कि राजा दक्ष के १३ पुत्रियों में सबसे बड़ी दिति व सबसे छोटी अदिति हुई जिनमें दिति दैन्त्यों की माँ कहलाई व अदिति से १२ आदित्य (देवता) उत्पन्न हुए जिनमें इंद्र सबसे बड़े व बिष्णु (बामन) सबसे छोटे हुए ! सौतिया बाँट में इस क्षेत्र का दक्षिणी भाग अदिति के ब्राह्मण पुत्रों को जबकि उत्तरी भाग दिति के असुरोपासक असुर पुत्रों को मिला! इसलिये वर्तमान गढ़वाल देव और दैन्त्य उत्पति स्थान भी कहलाता है! कहा जाता है कि दक्ष प्रजापति के राज्यकाल में इस क्षेत्र को चार भागों में विभक्त किया गया था जिनमें कैलाश, अलका पूरी, देवपुरी व हिमक्षेत्र हैं! जो सभी क्षेत्र वर्तमान गढ़वाल के अंतर्गत ही पड़ते हैं!
यह क्षेत्र उत्तर वैदिक काल में सम्पूर्ण आर्यवर्त का हिस्सा था जिसमें आर्यों के छोटे-छोटे राज्य थे! पहला मानव मनु से सुर्यवंश व दुसरे मानव ऐल से चन्द्रवंश की स्थापना होनी बताई गयी है! सुर्यवंश के प्रथम राजा मनु के पुत्र इक्ष्वाकु बताये जाते हैं जिनके वंशज कौशल देश के राजा हुए और मान्धाता सबसे प्रतापी राजाओं में गिना गया उन्हीं के वंश में सूर्यवंश के अंतिम राजा बद्रिकाश्रम के भानुप्रताप हुए जिनकी राजधानी चाँदपुर गढ़ हुई! इन्हीं के वंशज राजा सगर, भागीरथ, दलीप, रघु, दशरथ व रामचन्द्र हुए जबकि चन्द्रवंश के प्रथम राजा पुरुरवा हुए जिनकी चौथी पीढ़ी में ययाति हुए व इनके पाँचों पुत्रों ने अपने शाखा वंश चलाये!जिनमें यदु, यादव, पुरु और पौरव हुए! इन्हीं चन्द्रवंशियों में खश पुत्री शकुन्तला से जन्में पुत्र भरत हुए जिन्होंने सम्पूर्ण आर्यवर्त के छोटे-छोटे राजाओं को पराजित कर भारतबर्ष की स्थापना की! भारतबर्ष की स्थापना करने वाले भरत का जन्म भी इसी गढ़वाल में हुआ जिसे गढ़-पुत्र भी कहा गया है! पौराणिक काल की गणना के अनुसार भरत का समय लगभग २२५० ईसा पूर्व और श्रीराम का जन्म जन्म काल १९०० ईसा पूर्व बैठता है! अत: इन दोनों का काल महाभारत व रामायण काल से मिलता है!
यह सब तो ठीक है लेकिन यह जानना भी जरुरी है कि वर्तमान गढ़वाल में किस किस काल में किस किस राजा ने राज्य किया और यह कब चन्द्रवंशी पाल राजाओं के अधीन होता हुआ नाम प्रवर्तित होकर गढ़वाल कहलाया! ईसा की पहली सदी के उत्तरार्द्ध में कनिष्क का साम्राज्य कश्मीर से नेपाल तक फैला बताया गया था! देवप्रयाग से प्राप्त यात्री-नामावली से ज्ञात होता है कि कनिष्क के कुषाण काल में बद्रिकाश्रम की यात्रा अधिक प्रचलित थी! लेकिन ईसा की तीसरी सदी तक पहुँचते पहुँचते गढ़वाल-कुमाऊं में कुनिंद काल छिन्न-भिन्न होकर छोटी ठ्कुराइयों में बंट गया और सन ३८० में समुद्रगुप्त का राज्यारोहण हुआ! प्रयाग-प्रशस्ति-पत्र से प्राप्त जानकारी के अनुसार तब कर्त्रिपुर (कार्तिकेय्पुर) ने भी उन्हें उपहार दिया था और कर्त्रिपुर में खस राजा पूर्णत: अपना साम्राज्य स्थापित कर चुके थे जिनका साम्राज्य मैदान तक फैला हुआ था!
कहा जाता है की रामगुप्त ने जिस शक राजा की पुत्री धुर्वस्वामिनी को भेंट स्वरूप माँगा था वह इसी खस नरेश की पुत्री थी! कार्तिकेयपुर के खस राजा से समुद्रगुप्त के पुत्र चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने उसका राज्य हस्तगत कर लिया था! इस काल में सम्पूर्ण गढ़वाल –कुमाऊं गुप्त राज्य के अधीन रहा! यही कारण भी है कि कविकुल शिरोमणि कालिदास विक्रमादित्य के दरवार के रत्नों में गिने जाते रहे हैं!
हूणों के आक्रमण के कारण युद्ध में स्कन्दगुप्त के मारे जाने के बाद मंदसौर के राजा ने गढ़वाल पर राज कर रहे हूणों पर विजय प्राप्त कर वर्तमान गढ़वाल व वर्तमान हिमाचल (जिसे जालन्धर राज्य कहा जाता था)अपने राज में मिला लिया! फिर अचानक गढ़वाल में नागवंशी राजाओं का प्रभाव बढ़ा जिन्होंने धीरे धीरे छोटे छोटे राज्य स्थापित कर लिए ! जिसका वर्णन गोपेश्वर व बाडाहाट के आकाश त्रिशूल में उकेरे गए लेखों में मिलता है! इनके राजाओं में स्कन्दनाग, विभुनाग, अंशु नाग, गणपति नाग, गुह्नाग, नामक नागराजा हुए ! जिनके शास्काल को बहुत प्रशंसनीय माना गया ! मन्दाकिनी घाटी के नागपुर क्षेत्र में इनका बिशेष प्रभाव माना जाता था! तत्पश्चात ६०६ ई. में मौख्रिवंश के ग्रहवर्मन का वध हो गया था! और स्थाणवीश्वर के सम्राट हर्ष ने इसे अपने अधीन कर लिया ! सं ६४७ में हर्ष की मृत्यु के पश्चात स्थानीय शासक स्वतंत्र हो गए और स्वेच्छा से अपना अपना शासन करने लगे! उस समय गढ़वाल कुमाऊं का नाम ब्रह्मपुर था! जिस पर ६४० से ७२५ तक पौरव नरेशों का राज माना गया!
सन ७४० से लेकर १००० ई. तक गढ़वाल कुमाऊं पर कत्युरी वंशजों का एक छत्र राज माना गया है! वहीँ यह भी कहा जाता है कि कत्युरी काल में ही अर्थात ७०० ई. से लेकर ८८८ ई. तक सम्पूर्व वर्तमान गढ़वाल क्षेत्र के छोटे छोटे राजा अस्तित्व में आ गए थे व उन्होंने अपनी अपनी गढ़ी स्थापित कर दी थी! जिसमें जोशीमठ कत्युरी शासन काल था तो चांदपुर गढ़ के राजा अलग स्वतंत्र राज चलाते थे जिनके राज्य का नाम बद्रिकाश्रम था!
यह आश्चर्य की बात है कि अक्सर हम सब यही जानते हैं कि औरंगजेब के राज्यकाल में अधिकत्तर हिन्दू धर्म रक्षा हेतू मैदानों से भागकर पहाड़ों में आ बसे लेकिन यह बहुत कम जानते हैं कि सन ११९२ ई. में उत्तर भारत पर मुहम्मद गौरी ने आक्रमण किया था व पृथ्वी राज चौहान को हराकर सम्पूर्ण उत्तरभारत पर अधिकार जमा लिया था इसलिए उस काल में धर्म रक्षा के लिए कई हिन्दू जातियों ने यहीं आकार शरण ली! लेकिन कोई भी मुस्लिम राजा कभी भी गढ़वाल पर विजयी हासिल नहीं कर पाया!
मुहम्मद गौरी के पश्चात सन १३९८ ई. में जब वर्तमान गढ़वाल पर आक्रमण किया तब उस समय के वत्सराज नामक गढ़वाली राजा ने उसे मोहन घाट पर रोक लिया! जबकि दुसरे गढ़वाली राजा रतन सेन ने उसे कालेसर पर रोक दिया! कहते हैं तैमुर ने इनकी युद्ध कला की बड़ी प्रशंसा की व वह वहीँ से वापस लौट गया!
अब वर्तमान गढ़वाल कैसे सूर्यवंश से चंद्रवंशी राजाओं को हस्तगत हुआ उसके बारे में इतिहासकारों का मानना है कि पंवार वंश की स्थापना करने वाले कनकपाल धार (मालवा-गुजरात) के राजा वाक्पति के छोटे सौतेले भाई थे जो गंगा स्नान के लिए राजा वाक्पति के साथ हरिद्वार आये थे व जिन्हें आतिथ्य सत्कार हेतु बद्रिकाश्रम के राजा भानुप्रताप ने बद्रीनारायण के दर्शनों के लिए आमंत्रित किया ! कहते हैं वे सन ८८७ ई में तीर्थाटन के लिए बदरीधाम आये और चांदपुर गढ़ के राजा जिन्हें बदरीनाथ का राजा भी कहा गया है भानु प्रताप ने उन्हें सन ८८८ ई. में अपनी छोटी पुत्री के साथ विवाह बंधन में बांधकर दहेज़ स्वरुप राज्य सौंप दिया व स्वयं तपस्या के लिए चले गए!
यहाँ इतिहासकारों में आपसी मतान्तर है. क्योंकि कुछ इस काल को संवत ७४५ विक्रमी संवत ६८८ ई. बताते हैं जब राजा कनकपाल का राजतिलक हुआ जिनका कहना है कि बद्रिकाश्रम के राजा भानुप्रताप जिनकी राजधानी चंद्रपुर (चांदपुर) थी की दो पुत्रियाँ हुई जिनमें बड़ी पुत्री का विवाह कुमाऊं के राजा क्षेमराज के पुत्र राजपाल के साथ व छोटी पुत्री का विवाह धारानगरी के सौनक गौत्री पंवार वंशी कनकराव/कनकपाल के साथ हुआ! कुछ का कहना है कि भानुप्रताप के राजकाल में उनकी राजधानी का नाम बद्रिकाश्रम था लेकिन चन्द्र’वंश के राजा कनकपाल पंवार ने चन्द्रवंशी होने के साथ इसका नामकरण चांदपुर गढ़ कर दिया!
वहीँ कनकपाल की २४वीं पुश्त के राजा सौंनपाल ने वर्तमान गढ़वाल की कई गढ़ियों को फतह कर अपने राज्य में मिला लिया जबकि ३७वीं पुश्तमें पैदा अजयपाल ने सभी ५२ बड़ी गढ़ियों व उनके अधीन छोटी छोटी सह्त्रों गढ़ियों को विजित कर अपना राज्य विस्तार किया व सन १४४६ई. में अपनी राजधानी चांदपुर से देवलगढ़ के बाद अलकनंदा किनारे स्थापित की! यहाँ भी इतिहासकारों के मतों में अन्तर्विरोध झलकता है क्योंकि कोई इसका काल १५१५ ई. मानता है तो कोई संवत १५१७ ई. काल! अजयपाल द्वारा गढवाल नाम दिए जाने के पशचात तब से “अजयपाल को धर्मपाथो” प्रचलन में आया व सारी ठकुराई मिलाकार ५२ गढ़ों के गढ़पती राजा अजयपाल ने गढ़वाल राज्य की स्थापना की!
रेफरेंस:-
(तपोभूमि बद्रिकाश्रम-पृष्ठ ७५ गोबिंद प्रसाद नौटियाल, गढ़वाल का इतिहास (हरिकृष्ण रतूड़ी पृष्ठ १०४- ३२२-३३१-३५३-३६६-367, ऋग्वेद ४-३०-२०,५-१३-४, ६-५८-११, ८-२६-१८ , ११-१२६-२, स्कन्द पुराण, हिमालय परिचय (गढवाल), उत्तराखंड के पशुचारक-डॉ, शिब प्रसाद डबराल चारण पृष्ठ १४,५७,५९ , वसुधारा (गढ़वाल की ऐतिहासिक पृष्ट भूमि)डॉ. शिवानन्द नौटियाल , महाभारत आदिपर्व अध्याय- १७६-३५-३७, भारतीय इतिहास का प्रवाह – पी. सरन, गोरखनाथ- डॉ. बडथ्वाल, गढ़वाल के लोकनृत्य- डॉ. एस. एन नौटियाल पृष्ट ११५, गढ़वाल का इतिहास भाग-२ डॉ. ढिब प्रसाद डबराल पृष्ठ १०३, पोलिटिकल हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया- राय चौधरी पृष्ट २६९, पाणिनि कालीन भारत- डॉ. वासुदेव अग्रवाल पृष्ठ ९६, केदारखंड-गढवाल मंडल – डॉ शिब प्रसाद डबराल पृष्ठ ४१-४५, श्री शंकराचार्य – बलदेव उपाध्याय प्र्सिथ ३४, हिंदुत्व- राम प्रसाद गौड़ पृष्ठ ३६८, उत्तराखंड का इतिहास भाग -४ डॉ. शिब प्रसाद डबराल पृष्ठ ८४-९०, मआसिर-अल-उमरा जि. ३ पृष्ठ ४९४, )