(कौस्तुभानंद चंदोला की कलम से)
उत्तराखंड के पौराणिक देवताओं के साथ ही स्थानीय लोक देवता अपने भक्तों की न केवल मनोकामना पूरी करते हैं बल्कि उनके दैहिक,दैविक और भौतिक इत्यादि संबंधी प्रश्नों का भी निराकरण करते हुए उनके कृषि, पशुधन आदि में अभिवृद्धि एवं सुरक्षा में भी अपना योगदान देते हैं । इस प्रकार उत्तराखंड में पौराणिक देवताओं के साथ ही इन लोक देवताओं की पूजा का बहुत अधिक महत्व है, किंतु इन लोक देवताओं को कहीं न कहीं पौराणिक देवताओं के साथ अवश्य जोड़ा गया है।
(फ़ाइल फोटो- धौलीनाग मन्दिर कुमाऊँ)
प्रसंगगत लोकदेवता धौलीनाग का मंदिर उत्तराखण्ड राज्य के बागेश्वर जनपद के उत्तर में विजयपुर के ऊपर एक पहाड़ी पर स्थित है। धौलीनाग मंदिर, नाग देवता को समर्पित एक प्राचीन मंदिर है। धौलीनाग मंदिर में वैसे तो प्रतिदिन, पूजा,अर्चना होती है; परंतु कुछ खास दिनों में यहां भक्तों की भारी भीड़ होती है। मुख्य रूप से नवरात्रि के दौरान तो यह भक्तों व श्रद्धालु ओं से भरा रहता है। प्रत्येक नाग पंचमी को इस मंदिर में विशाल मेला लगता है। इस मंदिर को गंगोलीहाट के महाकाली मंदिर और पाताल भुवनेश्वर से पर्यटन सर्किट से भी जोड़ा गया है।
देवताओं के मंदिर तो प्राय: देखे-सुने जाते हैं, किन्तु जन्तुओं के नाम पर मंदिर कम ही देखे-सुने होंगे। यह मंदिर नाग देवता के नाम पर बना है और उन्ही की पूजा हेतु स्थापित है। हालांकि नाग मानव जाति थी लेकिन धीरे-धीरे उन्हें प्रतीकात्मक रूप से सर्पों व नागों के प्रतीक रूप से प्रस्तुत किया जाने लगा। यहां पर नाग देवता-धौलीनाग को पूजा जाता है।
केदारखंड और मानस खंड जिसे आज संयुक्त रूप से उत्तराखंड कहा जाता है वैसे ही देवभूमि कहलाती है। जहां देवों के देव महादेव का निवास स्थान है, विचरण स्थल है और सभी जानते हैं कि नाग जाति के लोग शिव के परम भक्त थे, इसीलिए नागों के राजा वास��।
स्थानीय मान्यताओं के अनुसार, जब भगवान कृष्ण ने कालियनाग को यमुना छोड़कर चले जाने को कहा था, तब उसने उन्हें बताया कि उनके वाहन गरुड़ के डर के कारण ही वह यमुना में छुपा बैठा था।[2] इस पर कृष्ण ने उसके माथे पर एक निशान बनाकर उसे उत्तर में हिमालय की ओर भेज दिया।[2] कालियनाग कुमाऊँ क्षेत्र में आया, तथा शिव की तपस्या करने लगा।[2] स्थानीय लोगों की कई प्राकृतिक आपदाओं से रक्षा करने पर उसे कुमाऊं क्षेत्र में भगवान का दर्जा दिया जाने लगा।
धवल नाग (धौलीनाग) को कालियनाग का सबसे ज्येष्ठ पुत्र माना जाता है।[3] धवल नाग ने प्रारम्भ में कमस्यार क्षेत्र के लोगों को काफी परेशान किया, जिसके बाद लोगों ने उसकी पूजा करना शुरू कर दिया, ताकि वह उन्हें हानि न पहुंचाए।[3] लोगों के पूजन से उसके स्वभाव पर विपरीत असर पड़ने लगा, और फिर उसने लोगों को तंग करने की जगह उनकी रक्षा करना शुरू कर दिया।[3] महर्षि व्यास जी ने स्कंद पुराण के मानस खण्ड के ८३ वें अध्याय में धौली नाग की महिमा का वर्णन करते हुए लिखा है:
धवल नाग नागेश नागकन्या निषेवितम्।
प्रसादा तस्य सम्पूज्य विभवं प्राप्नुयात्ररः।।[4][5]
कुमाऊँ में नागों के अन्य भी कई प्रसिद्ध मंदिर हैं, जिनमें छखाता का कर्कोटकनाग मंदिर, दानपुर का वासुकीनाग, सालम के नागदेव तथा पद्मगीर, महार का शेषनाग तथा अठगुली-पुंगराऊँ के बेड़ीनाग, कालीनाग, फेणीनाग, पिंगलनाग, खरहरीनाग तथा अठगुलीनाग अन्य प्रसिद्ध मंदिर हैं।
बागेश्वर जिले के विजयपुर नामक ग्राम में स्थित श्री धौलीनाग मंदिर ।
धौलीनाग देवता का मन्दिर कुमाऊं मण्डल के बागेश्वर जनपद
अन्तर्गत विजयपुर नामक स्थान से मात्र डेढ़ किमी. की दूरी पर
ऊंचाई पर स्थित है। यहां के स्थानीय लोग इस नाग देवता को
अपने आराध्य देव के रूप में पूजते हैं। क्षेत्रभर के लोगों में धौलीनाग
देवता के प्रति गहरी आस्था है और विश्वास तो उनके दिलों में
जैसे कूट-कूट कर भरा है।
धौलीनाग देवता के इस मन्दिर की स्थापना लगभग 400 वर्ष पूर्व की गयी थी। उससे पहले धौलीनाग देवता यहां स्थित एक बांज के एक विशालकाय पेड़ पर निवास करते थे, जो आज भी यहां मौजूद है।यहां के स्थानीय लोगों का कहना है कि एक बार रात्रि के
समय इस क्षेत्र के जंगल में अचानक भयंकर आग लग गयी। तब बांज के विशाल पेड़ पर विराजित धौलीनाग देवता ने ग्रामवासियों
को आवाज लगा कर बताया कि जंगल में आग लग गयी, इसे बुझाने के लिए आओ, लेकिन कहा जाता है कि वह दिव्य आवाज
किसी को नहीं सुनाई दी। देवता के बार-बार आवाज लगाये
जाने पर सहसा वह आवाज क्षेत्र में ही निवास करने वाले
अनुसूचित जाति के ‘भूल’ लोगों ने सुनी तो वे 22 हाथ लम्बी
मशाल जलाकर रात्रि में ही आग बुझाने को निकल पड़े। देवता
के जयकारे की आवाज जब यहीं के धपोला लोगों ने सुनी तो वे
घरों से बाहर निकले और भूल लोगों से सारा वृतान्त सुनकर वे भी
जलती मशाल लेकर उनके साथ चल दिये। देखते ही देखते चन्दोला
वंशज के लोग भी मशाल हाथ में लेकर निकल पड़े और छुरमल देवता के मंदिर में सभी एकत्र हो गये। वहां से एक साथ जंगल की आग बुझाने निकले। मशाल लेकर चलने की परम्परा आज भी विभिन्न मेलों के अवसर पर चली आ रही है।
साल में तीन बार यहां भव्य मेलों का आयोजन होता है, जिसमें
धपोला व भूल लोग मिलकर बाईस हाथ लम्बी जलती मशाल
लाते हैं। यह भव्य मंदिर हिमालय की तलहटी में चारों ओर बांज,
बुरांश, चीड़, काफल, देवदार आदि के वनों से आच्छादित है। इस
क्षेत्र में अनेक जाति के क्षत्रिय, ब्राह्मण एवं अनुसूचित जाति
के लोग निवास करते हैं। चन्दोला, धपोला, धामी, राणा, पन्त,
पाण्डे, काण्डपाल, कम्र्याल, भूल आदि मिलाकर लगभग डेढ़
हजार परिवार धौली नाग देवता को अपना आराध्य देव मानते
हैं। वर्ष में ऋषि पंचमी, नाग पंचमी और प्रत्येक नवरात्रि की
पंचमी की रात्रि को यहां भव्य मेले लगते हैं, जिनमें हजारों लोग
भाग लेते हैं। परम्परा के अनुसार इस मंदिर में विधि-विधान से
पूजा-अर्चना होती है। यहां के पुजारी धामी वंशज होते हैं।
वर्तमान में अमर सिंह धामी व गुमान सिंह धामी इस मंदिर में
पुजारी का दायित्व संभाले हैं।