मेरा पहला प्यार..(फर्स्ट अफेयर ऑफ़ माय लाइफ) अंतिम अध्याय!
पिछले अंक के अंत में ….दूर गोत्राचार के मांगल व दमाऊ के सुर के बीच कभी कभी ब्राह्मण के श्लोक “ॐ स्वतिनैन्द्रों ..सुनाई दे रहा था तो कभी कभी ठट्ठा मजाक के सुर..! contd 12/-
गतांक से आगे…
(मनोज इष्टवाल)
अगले दिन सुबह उठकर मैं जब शौचादि के लिए बाहर गया तब बाराती पक्ष के कई मेहमान भी शौचादि से निवृत्त हो लौट रहे थे ! उस गॉव के कई लोग मेहमानों में भी एक आध पहचान वाले चेहरे थे..! सबने आश्चर्य जताते हुए कहा कि रात दिखे नहीं कहाँ थे! हर एक से यही कहता रहा वहीँ तो था! शौच से लौटा और फिर बिस्तर में आकर लेट गया! देर रात को ही घर के ज्यादात्तर सदस्य वापस लौट आये थे इसलिए गरमागर्म चाय व नाश्ता मुझ तक पहुँच गया था! सारा दिन अंदर ही अंदर काटा…! वह भाई बोले- भुला शायद तबियत खराब है..!जब से आया न तूने खाना खाया! न ही बाहर गया, जबकि कई बार बहु भी पूछ रही थी नाती पोते सब पूछ रहे थे..! कोई अलग बात है तो बता..!
मैं बोला – नहीं भाईजी ऐसा कुछ नहीं है बस हल्का सिर दर्द चल रहा है शायद यही कारण हो सकता है..! मुझे भी लगा कि उन्हें मेरे इस तर्क पर जरुर संदेह है! मैंने झोला उठाया और थके क़दमों से अपने घर की ओर चल दिया! बारात की वापसी की तैयारी में देरी थी! आज मौसम थोडा खुशगवार जरुर था लेकिन ग़मगीन वैसा ही था! मैंने घंटो फिर वहीँ बैठकर समय काटा जहाँ मैंने अंतिम विदाई ली थी! अचानक जाने क्या ख़याल आया ! मुझे लगा यूँ कायरों की तरह मुंह छुपाकर भागना ठीक नहीं है! मैंने ठान लिया कि अब उनके घर मैं सबसे मिलकर आऊंगा ताकि कल यह बात सामने न आये कि कोई निमत्रण का मान रखने भी नहीं आया! मैंने तेज कदम बढाए और गॉव की ओर लपक पड़ा! यह क्या… डोली आँगन से उठ चुकी थी, क्योंकि दुल्हन के साथ सहेलियों व गॉव की महिलाओं और उसकी माँ का प्रलाप साफ़ सुनाई दे रहा था! बारात विदा हो रही थी तो मैं भी रास्ते में रुक गया! यह भूल गया कि मैं ऐन उसी राह में खड़ा हूँ जहाँ से पालकी गुजारनी थी..! जो अनर्थ होना था हो ही गया ..! उसकी निगाह मुझ पर पड चुकी थी! उसने पालकी से मुंह निकाल़ा और इतनी जोर का प्रलाप करना शुरू कर दिया मानो अपने एक-एक पल का हिसाब पूछने को आतुर हो! उसके हाथ पालकी से बाहर थे! नथ और मंगलसूत्र चेहरे सहित बाहर को निकल रहे थे..! पालकी वालों को पालकी सम्भालने में बड़ी दिक्कत हो रही थी! वह पालकी से जोर-जोर से चिल्ला रही थी -हे रोको..अरे रोको जरा ! रोको तो..मुझे मिलने तो दो..! वह रोटी हुई, एकटक मुझे ही घूरे जा रही थी और मैं भी जड़वत उसे ही घूर रहा था लेकिन पालकी वाले भला कहाँ उस पीड को समझ पाते वे तो यही सोच रहे थे कि अपनों से विदा होते समय हर दुल्हन का यही हाल होता है! अब पालकी मेरे करीब थी..! मेरा जरा ध्यान बंटा कि उसका लरजता हाथ जिसमें कंगन बंधा होता है मेरे चेहरे को स्पर्श करता मुझे लगा जाने क्या है..! मैंने झट से वह हाथ पकड़ा जिसमें सुहाग की चूड़ियाँ खनकती हुई मेरे हाथ का स्पर्श पाकर एक आध टूट भी गयी..! मेरे गाल छूते वह हाथ मेरी कमीज तक जा पहुंचे! जो गले के पास से मुझे पकड़कर घसीटते पालकी के साथ आगे बढ़े..! मेरी कमीज के बटन धड़धड़ाकर टूटते उसकी मुट्ठी में कैद हो गए! वह पालकी से और बाहर निकलकर मुझे बान्हे फैलाए ऐसे बुला रही थी जैसे मैं न जाऊं तो उसकी जान निकल जायेगी..! मुझे जोर का धक्का लगा और मैं दीवार के पत्थरों से टकराते-टकराते बचा! तब तक पालकी ओझल हो गयी थी!उस समय भल़ा यह किसका ध्यान जाता कि कौन गिरा और कौन संभाला..! मैंने ऐसा प्रलाप ऐसी बेबसी ऐसा विद्रोह ऐसा बिछोह..जिंदगी में आज तक नहीं देखा था! आज भी जब इस बिछोह को याद करता हूँ तो रूह कांप जाती है! सचमुच कहूँ तो मैं डर सा जाता हूँ! सोचता हूँ अगर पालकी वाले रुक जाते और वह पालकी से उतरकर मुझसे मेरी बेहयाई का हिसाब पूछती तो क्या मैं इन दो घरों की लाज के साथ अपने कुल की मान मर्यादा बचा पाता! वह आज कहाँ किस हाल में है!
यह मैं नहीं जानता और न ही तब से कभी जानने की ही कोशिश की! मैं नहीं चाहता था या हूँ कि उसकी सुखद जिंदगी में एक लम्हा भी ऐसा आये कि वह मुझे याद करे! हाँ…. मैं घर लौटते वक्त घर उसी रास्ते जरुर लौटा जिस रास्ते हम बकरियां चुगाने जाया करते थे..! उस पेड़ के पास गया जहाँ मेरी प्रेमिका ने मेरी याद में एक पेड़ के सीने में असंख्य घाव किये हुए थे..! मैं एक हारे योधा की भाँति घुटनों के बल उस पेड़ के आगे घुटनों के बल झुका और जाने कितनी देर तक योंही बिलख-बिलखकर रोता रहा! मैं उस पेड़ से लिपटकर जी भर रोया..! उसकी हर टहनी से बंधे उस चदरी एक-एक बंधन को अपने हाथों से मुक्त किया! जितनी बार वह डोरियाँ खुलती उनकी हर गाँठ खुलते हुए जैसे मुझसे उसके हर गम, हर तडफ हर याद का हिसाब मांग रही हो! बदले में मैं उन्हें अपनी आँखों के जल की नमी देकर अपनी पवित्रता का प्रमाण देता! ओंठ बुदबुदा देते ! यह तकदीर का रचा परपंच है जिसने इतने करीब होते हुए भी ऐसा घाव ऐसा बिछोह दिया कि वह ताउम्र के लिए नासूर बन गया! सारे बंधन आजाद करने के बाद दरांती के उन घावों पर जो पुराने हो गए थे व उनसे गोंद निकल रहा था मैंने पास ही चुपड़ी मिट्ठी उठाकर उन पर मलहम लगाई मानों उन घावों को भरने की यही दवा रही हो! .. और एक बाप का अच्छा बेटा बन गर्व के साथ सिर ऊँचा कर घर लौटा! घर लौटते ही पिताजी ने पहली बार मुझे ऐसे सीने से लगाया जैसे वह बचपन में लगाया करते थे! मुझे लगा मानों उन्होंने मेरे कोमल मुलायम बचपन के हाथ पकड़कर मुझे काँधे पर बिठा दिया हो ! उसी काँधे पर जिसमें बिठाकर वह बचपन में मुझे पूरे गाँव घुमाया करते थे!
मैंने अपनी आँखों के बबंडर को जैसे-तैसे थामा और बिन कुछ बोले ही सब कुछ बोल दिया! फिर दो दिन बाद बिल्कुल बेरुखेपन से दिल्ली के लिए निकल पड़ा! आखिर जीवन-यापन का जरिया तो बनना ही था! कुछ महीनो बाद ऐसी बरसात आई कि बरसों का बरसों से जमा वह पेड़ जड़ सहित उखड कर जाने कहाँ गंगा शरण हुआ पता न चला..! बाद में पता लगा कि वही पेड़ मेरे ताऊजी ने खरगड नदी से बाहर निकालकर त्रिवेणी (जहाँ मरुगाड, खरगड और दुग्धगाड) संगम में इसलिए रख दिया था कि चाहे पिताजी की पहले मृत्यु हो या उनकी वह लकड़ी उन्हें जलाने के काम आये! विधि का विधान देखिये न पिताजी को ही यह पता था कि यह पेड़ वह है न ताऊजी या किसी अन्य को..!
मेरा दुर्भाग्य यह कि उसी पेड़ के तने से पिताजी की चिता जली और ठीक एक साल बाद ताऊजी की चिता में भी उसी पेड़ कुछ लकड़ी शामिल हुई..! .मैं दोनों के अंतिम संस्कार पर भी शामिल न था..! वो तो एक दिन जब वहां मछली पकड़ने गए गॉव के मित्रों के साथ अधजले लकड़ी के तने को देखा और उसकी खरोंचों घावों को पहचाना! तब उस पर प्यार उमड़ा ! मैं उन घाव के जले हिस्से को अपने पास रखकर घर लाने को आतुर हुआ तो सब हंस पड़े! मैं सबको देखकर बोला – इसमें हंसने की क्या बात है? गॉव के प्रधान (तत्कालीन) कल्पानंद ने चुहल करते हुए कहा कि क्या देख रहा है..! ये वही लकडियाँ हैं जिनमें तेरे पिताजी और ताऊजी को जलाया गया था..! क्या श्मशान की लकड़ी लेकर घर जाएगा? मैं आवाक, निशब्द क्या कहता…! उस पेड़ ने मेरी तीन बहुत प्यारी चीजों के संजोग को निभाया..! लेकिन मुझे उसकी पीर तीनो बार तब पता चली जब सब कुछ निबट चुका था..! मेरा पहला प्यार..मेरे पिता मेरे ताऊ…मेरा सब कुछ……! (समाप्त)
(आभारी हूँ न्यू जर्सी, यूस्टन, शिकागो (अमेरिका), स्वीडन और ब्राजील, फ्रांस, केपटाउन, दुबई में रह रहे अपने उन मित्रों और प्रकाशकों का..! जिनका कहना है कि “फर्स्ट अफेयर ऑफ़ माय लाइफ” को आप उपन्यास का रूप दें जिसका अंग्रेजी/अरबी वर्जन वे छापेंगे और आभार हिमांशु अग्रवाल जी का जिन्होंने इसके हिंदी वर्जन पर अपनी अदद राय दी.. दिल्ली प्रवास के कई अन्य मित्र भी इसको वृहद रूप देने के लिए कह रहे हैं…. …! अब तो यह जिम्मेदारी एक बड़े मीडिया हाउस के मेरे एक मित्र ने अपने हाथों ले ली है और इसे दुसरे फॉण्ट में ढालकर प्रिंटिंग की तैयारी भी शुरू कर दी है!
उन मित्रों का ऋणी भी हूँ कि जो मुझे रोज अगले एपिसोड के लिए कुरेदते रहे! आज इसे संक्षिप्त रूप देकर आखिरी अध्याय लिखने की कोशिश कर रहा हूँ..!कल एक मित्राणि ने बोला कि प्यार इतना अनमोल होता है कि न उसका आदि न ही अंत…! यह जब तक जिंदगी है मीठा जख्म बन आपको मीठी सी आपकी भूलों की याद दिलाती रहती है! सच में ऐसा ही मुझे भी लगता है कि यह कभी समाप्त नहीं होने वाला प्रेम ग्रन्थ है..! फिर भी अपने को इसी अध्याय में समेटकर इसके सुनहरे पन्ने बंद करने जा रहा हूँ…! मेरा यह उपन्यास लिखने का सबसे बड़ा मकसद यह भी है कि भौतिकता भरे वर्तमान में अब प्यार-प्रेम के नजरिये बदल गए हैं! जरा-जरा सी जिद के लिए प्रेमी-प्रेमिका या तो अपनी जान जोखिम में डाल दे रहे हैं या फिर प्रेमिका के चेहरे पर तेज़ाब डालकर या फिर उसकी ह्त्या जैसे जघन्य अपराध करके यह कहते हैं कि हम एक दूसरे से मुहब्बत करते थे या करते हैं! मित्रों मुहब्बत का असली नाम होना यह चाहिए कि प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम मत दो! प्यार अंतर्रात्मा की आवाज होती है जिस्म तो मात्र खिलौने हैं! आप एक सत्य प्रेम ग्रन्थ के अनमोल पन्नो पर नजर फिरायेंगे तो लगभग चार साढे चार साल के इस प्रेम में हम ऐसे पागल प्रेमी हुए जिन्होंने कभी आपस में एक दूसरे का हाथ पकड़ना तो दूर बात तक नहीं की लेकिन प्यार जी जान से किया! आपको यह लघु उपन्यास कैसा लगा ! क्या इसे बाजार में लाया जाना चाहिए? कृपया अपनी राय देकर अवगत कराएं !आपका मार्गदर्शन और प्रशंसा मेरे लिए मेरे जीवन की अकूत पूँजी है मैं आपका ऋणी हूँ.)