Thursday, December 5, 2024
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देश के महानगरों में अपने पकवानों की खुशबु बिखेर रही है जमना की “रवांई रसोई”!

देश के महानगरों में अपने पकवानों की खुशबु बिखेर रही है जमना की “रवांई रसोई”!

(मनोज इष्टवाल)

यह सचमुच एक अप्रितम क्षण है जब हम उत्तराखंड से बाहर पहाड़ की बात करते हैं या फिर पहाड़ सम्बन्धी पकवानों की खुशबु से अपने को तर्र महसूस करते हैं! आज भले ही विगत कुछ बर्षों से देहरादून व कोटद्वार में दो उत्तराखंडी युवाओं ने अपना व्यवसाय ही उत्तराखंड की रसोई चलाकर शुरू कर दिया है और वे इस प्रयास से न सिर्फ खुद बल्कि कई अन्य को भी रोजगार दे रहे हैं! लेकिन जब यही काम ठेठ एक ग्रामीण महिला बेहद कम संसाधनों में बर्षों पूर्व शुरू करती है और उसका नाम देती है “रवांई रसोई..! तब यह सब कैसा महसूस होता है!यहाँ हम एक ऐसी ही महिला की बात कर रहे जिसने अपने दम पर बेहद कम संसाधनों से एक अनूठी शुरुआत की!

श्रीमती जमना रावत (रवांई रसोई)

उत्तरकाशी ब्रहमखाल जैसी छोटी सी जगह से उठकर देहरादून और उसके बाद दिल्ली, चंडीगढ़, मुंबई जैसे महानगरों में अपनी रवांई के पकवानों की खुशबु से सबको तृप्त करने वाली श्रीमती जमना रावत पिछले पांच बर्षों से यह कार्य निरंतर करती आ रही है! रवाई घाटी की यह महिला बडकोट से लगभग 20 किमी. दूर पट्टी-ठकराल के गाँव मणपाकोटि (गंगताड़ी) के चौहान परिवार में जन्मी जिनका विवाह उत्तरकाशी जिले के ब्र्ह्मखाल में लक्ष्मण सिंह रावत से हुआ जो पेशे से स्कूल में क्लर्क हैं! श्रीमती जमुना देवी बताती हैं कि उन्होंने अपनी माँ से ठेठ पकवानों को बनाना बेहद रूचि के साथ सीखा! मेरे बनाए पकवानों के स्वाद की शादी से पहले मायके में और शादी के बाद ससुराल व मेहमानों में होने लगी तो मन में इच्छा जागृत हुई कि क्यों न इसे मैं व्यवसाय के रूप में लूँ! फिर सोचा कि भला गाँव या पहाड़ में अगर मैं दुकान खोलूं तो वह चलेगी भी कि नहीं ! बस इसी जद्दोजहद में यूँहीं कई साल निकल गए लेकिन आँखों में यही सपना था कि रूपये तो सबने कमाए क्यों न अपने पहाड़ के लोक समाज व लोक संस्कृति के माध्यम से नाम कमाया जाय! मेरे पति ने हर पल हर घड़ी मेरी इस सोच का समर्थन किया और कहा जब तुझे लगे कि तुझे काम शुरू करना है तभी सोच लेना कि हाँ – बस शुरुआत ही तो करनी है!

साक्षात्कार के दौरान पत्रकार मनोज इष्टवाल के साथ श्रीमती जमना देवी!

श्रीमती जमना रावत बताती हैं कि बच्चे स्कूली हुए बड़ी कक्षाओं में जाने को हुए तब हम दोनों ने निर्णय लिया कि बच्चों की पढ़ाई अच्छी शिक्षा के साथ हो! क्योंकि हमारे दोनों बेटे राजीव गांधी नवोदय विद्यालय पुरोला से पढ़े हैं इसलिए वहां आगे की पढ़ाई के लिए वैसा प्लेट फॉर्म नहीं था! जैसे तैसे हमने देहरादून में बच्चे पढ़ाने के लिए किराए का कमरा लिया ! फिर सोचा इस सब से गुजर नहीं होने वाली इसलिए एक मकान खरीदा और वहां रहने लगे! दिन भर बच्चे स्कूल रहते और मैं घर पर खाली होती तब दृढ निश्चय कर ही लिया कि रवांई घाटी के पकवानों को मैं किसी भी हालत में राजधानी देहरादून के लोगों को चखाऊँगी! मैंने एक टीम अपने क्षेत्र की महिलाओं व लड़कियों की बनाई और सबसे पहले चौदह बीघा ऋषिकेश में “रवांई रसोई” के नाम से स्टाल लगाईं! यहाँ प्रशंसा मिली तो मनोबल बढ़ा! मेरे पतिदेव ने भी पीठ थपथपाई और तब तो एक जूनून सा सवार हो गया! फिर देहरादून के परेड ग्राउंड, मुंबई कौथीग, दिल्ली में व चंडीगढ़ में तीन-तीन बार स्टाल लगाए! लेकिन अफ़सोस कि किसी भी पत्रकार की नजर हम पर नहीं पड़ी! चंडीगढ़ में मेरा पहनावा व पकवान देखकर जरुर पांचजन्य पत्रिका की एसोसिएट आर्ट डायरेक्टर शशिमोहन रवांल्टा बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने मुझे रवाई महोत्सव के लिए अपने क्षेत्र में आमंत्रित किया! इससे पहले रवांई घाटी की होने के बाबजूद भी किसी को हमारे क्षेत्र में यह पता नहीं था कि कोई रवांई की रसोई लेकर देश के महानगरों तक पहुँच गया है! अपने क्षेत्र में अपनों के बीच मिलने वाला स्नेह गदगद कर देता है लेकिन जब अपना ही कोई धोखा देता है तब दिल टूट जाता है!

बेहद सरल और सरस व्यवहार की श्रीमती जमना देवी कहती हैं- सर, अब तक तो “रवांई रसोई” देश के हर शहर तक पहुँच जाती लेकिन मेरा आईडिया चुरा कर कोई दूसरा इसका फायदा उठाने लगा तो बुरा लगता ही है न! फिर किसी ने भी ऐसा प्लेट फॉर्म नहीं दिया कि हमें आगे बढने के मंच मिलते! फिर भी हमने अभी तक जितना किया उस से ये संतुष्टि तो है ही कि हम अपनी लोक संस्कृति लोक समाज में प्रचलित अपने ठेठ ओर्गेनिक उत्पादों से निर्मित पकवानों को हर वर्ग हर समाज तक पहुंचा रहे हैं! आज कई लोग आकर कहते हैं कि हमें सिखा दीजिये ! सर, सरकार क्या अपने लोक समाज लोक संस्कृति के परिधानों, अन्न व पकवानों के लिए कुछ नहीं करती! क्यों नहीं इन्हें वे आगे बढ़ाती ताकि हम सबकी यह आमदनी का जरिया बन सके! जब हम यहाँ बैठकर दक्षिण भारत के इडली दोसा, तिब्बत चीन के मोमो-थुप्पा व पंजाब का सरसों का साग व मकई की रोटी बड़े चाव से खाते हैं तो क्या अन्य राज्यों के लोग हमारे पकवान खाने को क्या तैयार नहीं होएंगे? काश…सरकार इस ओर भी ध्यान देती!

सचमुच श्रीमती जमना रावत का एक एक शब्द एकदम सच था कि आखिर हम क्यों नहीं अपने आप को प्रमोट कर पा रहे हैं ! जिसकी जो विधा है उसी पर आगे बढे व राज्य सरकार ऐसे व्यवसायों को प्रोत्साहित करने के लिए आगे आये!

बहरहाल श्रीमती जमना रावत अपनी रवांई रसोई में मंडूवे के डिंडके, सीडे (मीठे/नमकीन), बडील (नमकीन), मास के पकोड़े (उड़द की दाल), झंगोरे की खीर, तिलकुचाई, मंडूवे की रोटी/चोपड़, लाल चावल, मंझोली (मांड), मट्ठा मन्जोली, आलू का थिच्वाणी, फाणु (गहथ पीसकर), चौंसा (उड़द पीसकर), भट्ट की भटवाणि, भट्ट की चुटक्याणी, पोस्ट की चटनी, नाल बड़ी का साग, पिंडालू की भुज्जी, इन्डोली (गहत व बुरांस के फूल से ) सहित दर्जनों पकवान अपनी रसोई में सजाती हैं! उनका मकसद है कि वर्तमान के भौतिक युग की चमक-धमक के बीच कहीं हमारी ये पुरातन पाक कला की धरोहरें समाप्त न हो जाय! वो चाहती हैं कि राज्य सरकार एक ऐसी दूकान मुहैय्या करवाए जिस में वह अपने उत्तराखंडी पकवानों के माध्यम से दर्जनों को रोजगार प्रदान कर सके व हमारे राज्य के पकवान भी देश भर में अन्य राज्यों के पकवानों की भाँति ही प्रसिद्धी पायें!

आप भी सुनिए क्या कहती हैं श्रीमती जमना देवी:-https://youtu.be/QYJsvJJ6pFU

 

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