Sunday, September 8, 2024
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कुमाऊं  का खतडवा लोकपर्व ….! गैन्डा बिष्ट और खड़क असवाल के संग्राम की दास्ताँ..!

कुमाऊं  का खतडवा लोकपर्व ….! गैन्डा बिष्ट और खड़क असवाल के संग्राम की दास्ताँ..!

(मनोज इष्टवाल ट्रेवलाग/केजीबीवी भ्रमण खनस्यू (ओखलकांडा नैनीताल) 21 सितम्बर 2014)

भैल्लो जी भिल्लो जी.. गैंडा की जीत,ख़तड (खड़क सिंह) की हार,
भाजो खतडा धारे-धार , गैंडा पड़े श्योब (स्याल) ख़तड पड़ो भ्योब (भ्याल)

तब मैं उत्तराखंड के कस्तूरबा गांधी आवासीय बालिका विद्यालयों की मोनिटरिंग स्टडी पर  कुमाऊ के भ्रमण में था! अभी -अभी धुंधलका हुआ ही था कि दूर एक ओर गोला नदी तट पर बसे खनस्यू बाजार में पुल के नीचे महादेव मंदिर में घंटे व शंख बजने की आवाज गूंजनी अभी अभी बंद हुई थी। जिस से अनुमान लगाया जा सकता है कि संध्या का समय हो गया है। मेरे बिलकुल सामने दूसरी पहाड़ी छोर पर  दूर कनस्तर/ढोल  बजने की आवाज के साथ रौशनी पुंज बिखेरते लोगों की आवाजें सुनाई दी ..! पहले सोचा या तो कोई जंगली जानवर गॉव में घुस गया है या फिर कोई बात जरुर है।  जब जानकारी ली तो स्कूली छात्राओं ने बताया कि सर कल खतडवा है. ये लोग आज भी जश्न मना रहे हैं! मैं विस्मित था क्योंकि मैंने इसके बारे में लगभग दर्जन भर किताबों में पढ़ा था जिनमें कुछ लेखकों के नाम याद आते हैं जैसे –कुमाऊं का इतिहास …खस (कस्साईट) जाति के परिपेक्ष्य में ..पृष्ठ संख्या २२५ शक्ति गोसाईं व सियार राजा- यमुना प्रसाद वैष्णव ‘अशोक’, कुमाऊं का इतिहास – बद्री दत्त पांडे, कत्युरी -चंद राजवंश में कुमाऊं के राजा – डॉ. शिब प्रसाद डबराल “चारण”, हिमालयन गजेटियर -वाल्टन, कुमाऊं गजेटियर- अटकिंशन इत्यादि। मैं प्रफुलित हो गया क्योंकि दूर से ही सही मैंने कुछ तो अनुभव किया। जिज्ञासावश मैंने छात्राओं  से पूछा  कि क्या कल हम भी खतड मनाएंगे?  तब तक एक लड़की तपाक से बोल पड़ी – लेकिन सर आप तो गढ़वाली हो खतड में तो गढ़वालियों को हम गा……! उसकी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि मैडम सुुश्री सुशीला जोशी बीच में ही बोल पड़ी- हाँ सर,  कल मनाएंगे ये तो पागल है जाने क्या-क्या बोलती है ..! जो कुछ होता था वह अज्ञानतावश होता था अब उत्तराखंड राज्य निर्माण के बाद वह परंपरा लगभग समाप्त हो गई है ..! अब सिर्फ त्यौहार का स्वरुप है पुरानी बातें कुछ नहीं हैं।


मुझे पता था कि इस त्यौहार में चंद राजा लक्ष्मीचंद की जीत हुई थी और उसी की खबर पुआल जला-जलाकर अल्मोड़ा व चम्पावत पहुंचाई गई थी, लेकिन उसके पीछे का कुछ सच नहीं जानता था।मैंने अँधेरे में तीर मारा और बोला- तो क्या हुआ इगास पर हमारी सवा लाख गढ़वाली सेना ने जब कुमाऊँ पर जीत हासिल की थी तब हम भी तो भैल्लो खेलकर मदमस्त हो एक दूसरे को गाली दिया करते थे – जैसे भैल्लो बे भैल्लो …फ़लाणा गौ का अपणी माँ बैणीया …ह्वेल्यो?  ये जरुरी भी था बताना क्योंकि तभी तो वह इतिहास भी छनकर सामने आता जिसे मैं देखने को बेहद उत्सुक था। 

अब मैडम सुश्री सुशीला जोशी ने भी बात खोल ही दी उन्होंने अटकती जुबाँ से कहा – यहाँ भी कुछ ऐसा ही होता है सर। लोग गढ़वाली राजा को कोसा करते थे..! मैं बड़े ध्यान से उन्हें सुन रहा था। मैंने अनुरोध किया कि यदि आप भी इसे मनाते हैं तो ठेठ गॉव के यथास्वरुप की भाँति मनाईयेगा क्योंकि मुझे खतड देखने की बहुत बड़ी जिज्ञासा थी। दूसरे दिन ग्राउंड के बीचों-बीच रंगोली बनायी गई फिर पुल्या नामक बूढा-बुढिया बनायी गई, बहुत सारी पहाड़ी ककड़िया लायी गयी फिर पूजा हुई। मैंने उन्हें पूछने लगा कि यह पूजा क्या है तो पता लगा कि यह गौ पूजा है। आज जानवरों की पूजा होती है और उन्हें ये खीरे पटक-पटक कर तोड़कर खिलाये जाते हैं।

खैर फिर अँधेरा होते ही कार्यक्रम शुरू हुआ सभी छात्राएं देखते-देखते जाने कहाँ से इतने कनस्तर लेकर आई मुझे स्कूल के चौकीदार बर्गली ने विद्यालय प्रांगण से थोडा दूर स्थित मेरे कमरे में आकर बताया कि अब शुरुआत हो गई है। मैं भी उत्सुकता से वहां पहुंचा जहाँ घास फूंस कागज़ गत्ते लकड़ी जलाकर सभी स्कूली छात्राएं कनस्टर बजाकर जश्न मन रही थी..और आग को लांघकर इधर-उधर कूद रही थी। कभी उस पर जूते बरसा रही थी ..!कुछ ये भूल गई कि मैं भी भीड़ का हिसा हूँ। अत: नादाँ बच्चों के मुंह से ठेठ पहाड़ी भाषा में गढ़वाली सेना और राजा के लिए अमृतवर्षा सुनाई देने लगी। मुझे बुरा लगना स्वाभाविक सा था, मानव जो ठहरा लेकिन उस उत्साह में मेरी भाव-भंगिमा देखने वाली सिर्फ वहां की वार्डन थी, जिनकी लरजती आवाज में लड़कियों को कुमाउनी भाषा में ही शब्दों को जुबाँ से न फिसलने देने के निर्देश थे। उसका असर यह हुआ कि बहुत जल्दी ही यह रस्म गाहे-बगाहे समाप्त हुई।….ककड़ियां दुर्दशा के साथ तोड़ी फोड़ी गई..और फिर उनका प्रसाद गुजरता मुझ तक भी उसे सहर्ष स्वीकार तो किया लेकिन ईमानदारी से कहूँ तो उसे खाने के लिए मेरे हाथ मुंह तक नहीं जा रहे थे जबकि सभी बच्चों का झुण्ड मुझे टीका करने के बाद वहीँ खडी थी। उनकी ख़ुशी मेरी ख़ुशी थी प्रसाद मैंने खाया भी, लेकिन बड़े उचाट मन से….! लेकिन फिर ग्लानि हुई कि लगभग ५००-६०० साल बाद भी हमारे परिवेश में वही राजाओं के आपसी कलह का रक्त भरा हुआ है। आज पढ़ा लिखा समाज होने के बाद भी मुझ जैसा आदमी इसे गढ़वाल कुमाओं के समाज से जोड़कर देख रहा है…यह ठीक नहीं है! 


अगली सुबह मैंने सभी बालिकाओं से प्रश्न किया कि कितने बच्चे इस त्यौहार को बारीकी से जानते हैं…उनमें से कई हाथ उठे तो मैंने एक से प्रश्न किया कि जब आप के गॉव में यह त्यौहार होता है या जब आप जश्न मनाते हैं तब क्या कहते हैं..उसने जवाब दिया –भैल्लो जी भैल्लो गऊ की जीत खतड की हार …! दूसरी बोली नहीं सर ऐसे बोलते हैं-‘”गै की जीत और खतडुवा की हार, गै पड्यो स्यल, खतडु पड्यो भ्यल! यहाँ आये संबोधन साफ़-साफ़ इशारा करते हैं कि गै यानि गाय या गैंडा (सेनापति) और गऊ का मतलब गाय से है! कुमाऊं राजाओं के राजवंश में राजचिह्न के रूप में  गौ मुद्रा, सिक्के, मोहरों झंडों में हर जगह प्रचलित थी इसलिए गऊ की जीत का मतलब राजा की जीत से है नकि गाय की जीत से! (बद्री दत्त पांडे-कुमाऊं का इतिहास पृष्ठ-२७८)।

मैंने इसका आशय जानना चाहा तो सबका यही कहना था कि इस दिन हमारे गॉव में गऊ को पूजा जाता है, लेकिन कोई यह नहीं बता पाया कि गाय की पूजा में गढ़वाल के राजा को गालियां क्यों दी जाती हैं। मैंने उनकी जानकारी को अपर्याप्त मानते हुए उन्हें बताया कि दरअसल यह गऊ कुमाऊ राजवंश की तत्कालीन मुद्रा का प्रतीक है!  यह किस्सा प्राय: सन १६०८ का है जबकि कुछ इतिहासविद्ध इसे सन १५६५ का मानते हैं, जो आंकड़ों में सही नहीं बैठता क्योंकि सन १५६५ में तत्कालीन अल्मोड़ा चम्पावत के राजा रूप चंद थे जो राजा लक्ष्मी चंद के पिता थे और यह युद्ध राजा लक्ष्मी चंद के समय लड़ा गया था। जिनका राजकाल बद्री दत्त पाण्डेय द्वारा लिखे गए कुमाऊ के इतिहास नामक पुस्तक में सन १५९७ से सन १६२१ बताया गया है! सात बार नजीबाबाद के पास गढ़वाल राजा के किले स्याल बूंगा (मोरध्वज) पर आक्रमण करने के बाद भी करारी हार झेलने वाले कुमाऊ के गढ़पत्ति लक्ष्मी चंद ने हार नहीं मानी! उनकी अंतिम हार तो इतनी बुरी थी कि उन्हें जान-बचाने के लिए खंतडो (पुराने कपड़ों/गद्दों) में छुपकर एक कूली  के डोके (टोकरे) में राजधानी लौटना पड़ा ! टोकरा वाहक कूली व सैनिक रास्ते में जब बिश्राम करने के लिए रुके तो आपस में कानाफूसी करते हुए राजा लक्ष्मी चंद को स्यार (गीदड़) कह रहे थे! जिसे राजा ने सुन लिया और उसे बड़ी आत्मग्लानि हुई! (कुमाऊं का इतिहास पृष्ठ सं.२२६ यमुना दत्त वैष्णव) ! वहीँ बद्री दत्त पांडे कुमाऊं के इतिहास नामक अपनी पुस्तक के पृष्ठ संख्या २७३ की २५ -२६वीं पंक्ति में लिखते हैं कि- कूली आपस में बात करते हुए कहते हैं- “पापी राजा आपु ले चोरे की चार भाजनौछ, हमन लै दुःख दीनौछ”  (राजा पापी व व्यभिचारी है, आप भी चोर की तरह भाग रहा है और हमें भी कष्ट दे रहा है) ! इसके बाद राजा को सियार, भगेड और लखुली-बिराली जैसे नामों से पुकारा जाने लगा, लेकिन फिर भी राजा ने हार नहीं मानी! आठवीं बार अपने सेनापति गैंडा बिष्ट के नेतृत्व में स्यालबूंगा किले के सेनापति खड़क सिंह असवाल को युद्ध में ललकारने के बाद भी जब कुमाउनी सेना पस्त होकर लौटने लगी और खडक सिंह असवाल अपना भाला (जिसके बारे में कहावत थी कि उस पर शिब जी की कृपा थी) एक किनारे रख वह पानी पी रहा था तब खंतडी (रजाई में) लिपटे गैंडा बिष्ट ने धोखे से पीछे से वार कर खडक सिंह का सिर धड से अलग कर दिया और स्याल बूंगा ( बाद में इसे मोर द्वज और डाकू सुल्ताना का किला कहा गया) किले पर विजयी हासिल की जिसकी ख़ुशी मनाते कुमाउनी सैनिक पुआल जलाते हुए घर तक लौटे तब तक बरसात शुरू हो गई थी और वह यह बोलते हुए गए –भैल्लो जी भिल्लो जी.. गैंडा की जीत,ख़तड (खड़क सिंह) की हार,
भाजो खतडा धारे-धार , गैंडा पड़े श्योब (स्याल) ख़तड पड़ो भ्योब (भ्याल)।

यानि गैंडा बिष्ट ने स्याल बूंगा पर कब्ज़ा कर लिया है और खड़क सिंह को किले से बाहर खाई में लुढका दिया है…और तब से यह परंपरा निरंतर चलती आ रही है। स्याल बूंगा किले का नामकरण कुमाऊं के सैनिकों ने किया था, क्योंकि इस किले की किलेबंदी बेहद मजबूत थी व इसके पहरेदार सियार (लोमड़ी) जैसे चालाक! जबकि यह किला गढ़वाल के राजाओं द्वारा मोरध्वज कहलाया गया। 

खतड़वा नामक त्यौहार के बारे में पंकज सिंह मेहर(पिथौरागढ़)  बताते हैं कि खतड़वा लोक पर्व मनाया जायेगा, एक जगह पर घास के पुतले बनाये जाते हैं, जिसे फूलों से सजाया जाता है और उस पुतले को अखरोट, मक्का और ककड़ी अर्पित की जाती है। उसके बाद आज पशुओं के गोठ की सफाई की जाती है व सभी जानवरों को नहला धुला कर नई हरी घास खिलाई जाती है। गोठ में लगे मकड़ी के जाले साफ किये जाते हैं, फिर उनके सोने लेटने के लिये नई सूखी घास बिछाई जाती है। खतड के दिन सभी जानवरों का तिलक होता है, फिर शाम को भांग के डंठल पर एक पुराना कपड़ा बांधकर उसे जलाया जाता है और पूरे गोठ में घुमाया जाता है, उसके बाद उस आग को गांव की सीमा पर एकत्र केड के ढेर में भाज खतड़वा भाज कहते हुए फेंक दिया जाएगा। सामूहिक रूप से ककड़ी भोज होता है। कुछ नवयुवक आग के ऊपर से कूदेंगे, सभी के माथे पर ककड़ी के बीज को लगाया जाता है, सभी पशुपालकों को उनके लोकपर्व की बधाई दी जाती है। अब इस सब के बीच किसी को सेनापति की जीत और हार दिखाई दे, जो कि आज तक किसी इतिहास में नही हुई, तो उसके प्रति मेरी हार्दिक संवेदनाएं, जय उत्तराखण्ड।

वहीँ नैनीताल समाचार के सम्पादक राजीव लोचन साह  (नैनीताल) बताते हैं-  भेल्लो खतडवा, भेल्लो‘, ‘गाय की जीत खतडवै की हार‘…। वर्षा ऋतु के अंत और शरद-शिशिर के आगमन का प्रतीक, असोज माह के पहले दिन मनाया जाने वाला, मकर संक्रांति, वैशाखी और हरेले जैसा ऋतुपर्व ‘खतड वा’ सम्पन्न होता है। अज्ञान और नादानी के चलते यह कुमाऊँ और गढ़वाल के बीच विद्वेष का कारण भी बना रहा…।

मुझे भी लगता है कि ऐतिहासिक ध्वंध हर राज्य काल में यूँहीं चलता रहा है। तब हम सभी किसी न किसी राजा के अधीन प्रजा हुआ करती थी, जबकि वर्तमान में हम विराट भारत बर्ष की प्रजा हैं। अतएव जो भी काल कलुषित इतिहास है, उसका ज्ञान तो हो लेकिन आपसी कलुषित विचारधारा का अब किसी के मन में कोई स्थान भी नहीं है, क्योंकि अब समाज जागरूकता के साथ आगे बढा है व राज्य निर्माण के बाद से लेकर अब तक यह त्यौहार सिर्फ गौ पूजा से बढ़कर और कुछ नहीं। यह गौ पूजा यूँहीं खेत खलिहान गाँव के वैभव का प्रतीक बनी रहे ऐसी मंगल कामना करते हैं।

यह सब जानकारी सुनने या जानने के बाद जिन बेटियों के कान बहुत ध्यान से यह सब सुन रहे थे उनके सिर झुक गये, उन्हें लगा कि हमने कोई अपराध कर दिया है। उनमें से एक उठी और बोली- सर, हमें सचमुच यह सब जानकारी नहीं थी। तो दूसरी बोल पड़ी कि राजाओं की हार-जीत में प्रजा के बीच ऐसा वैमनस्य फैलाना कोई किसी राजा का कर्तव्य होता है क्या? मैं मुस्कराया और बोला- पाकिस्तान अगर भारत पर आक्रमण कर दे व भारत उस पर विजय हासिल कर दे तब आप लोग ख़ुशी मनाओगे या फिर चुप बैठ जाओगे? भीड़ के बीच से आवाज आई- सर, मैं तो उनके राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और जनरल की आँखें फोड़ दूँ! उसके बाद तो इन वीरांगना बेटियों के मुंह से जाने पाकिस्तान के लिए क्या-क्या निकलता गया, मैंने सबको बड़ी मुश्किल से चुप करवाया और कहा- देखो, बच्चों कभी पाकिस्तान भी भारत का अभिन्न अंग था। ऐसे ही जैसे गढ़वाल और कुमाऊं देश के अभिन्न अंग हैं। उस दौर में अलग-अलग राजा हुआ करते थे, गढवाल का अलग व कुमाऊं का अलग..! इसलिए प्रजा का पालक जो राजा होता है, प्रजा उसी की होती है। वर्तमान में न गढवाल अलग राज्य है न कुमाऊं ..क्योंकि हम भारत बर्ष के अभिन्न अंग हैं,लेकिन फिर भी हम अपनी पुरातन परम्पराओं को अपनाते हैं ताकि हमारी संस्कृति व समाज के अभिन्न हिस्से हमें याद रहे। यह हमें याद भी रखने चाहिए लेकिन इसका दूषित हिस्सा हटा देना चाहिए। मुझे ख़ुशी है कि वर्तमान में एक भी बच्चे को गढवाल कुमाऊं के इतिहास की लड़ाइयों को जोड़ते खतडवा के वह दूषित भाग हमारे बुजुर्गों द्वारा नहीं बताये जाते।यही कारण भी है कि उत्तराखंड राज्य निर्माण के बाद अब गढ़वाल-कुमाऊं में आपसी रिश्तेदारियां शुरू हो गयी हैं। उम्मीद है आप लोग भी जिन्दगी से वह बुराई निकाल फेंकेंगे जो समाज के लिए बुरा हो। सबने तालियाँ बजाई और मैं खुश था कि मुझे व इस सारी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को सुनने जानने वाली छात्राओं के चेहरे में संतोष की झलक थी व उन्हें भी लगा कि हम सब खुशनसीब हैं कि हमें वह कलुषित इतिहास नहीं पता जिससे गढ़-कुमाऊं की संस्कृति व अनेकता में एकता का रूप खराब हो।

(यह ट्रेवलाग अविस्मर्णीय यादों का हिस्सा है व मेरी गढ़-कुमाऊं यात्राओं पर प्राकशित होने जा रही पुस्तक का हिस्सा भी! कुछ मित्रों के बिशेष अनुरोध पर लिखा गया है)

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