Sunday, September 8, 2024
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“झुमैलो” क्या हमें पता है कि इस गीत में लोक के कितने गीत-नृत्य समाहित हैं?

(मनोज इष्टवाल)

किसी भी लोकसंस्कृति व लोकसमाज का प्रतिनिधित्व अगर कोई करता है तो उस लोक समाज के गीत-नृत्य ही उसका मुख्य अंग है, तदोपरांत महिलायें व अंत में पुरुष वर्ग ! लेकिन उत्तराखंड एक मात्र ऐसा प्रदेश मेरी नजर में है, जो नव-बर्ष के प्रतिनिधित्व व स्वागत की जिम्मेदारी बाल्यकाल के कोमल हाथों से स्पर्श पुष्पों को देव देहरियों व घर के देहरियों में सजाकर “फुलदेई” के साथ सबको बसंत के आगमन की सूचना के साथ बासंती रंगों में रंगता हुए बैशाखी के साथ पूरे साल भर के तीज त्यौहारों के आगमन की सूचना देते हैं। बसंत के आगमन के बाद ऋतुरैण में बहुत सी नारी प्रदान पूजाएँ होती हैं जिनमें एड़ी, आँछरी, पीढ़ी-भराडी, हंत्या सहित गाड़ की छाया, डांड की छाया, भेल का लमडयां, भूखन मोर्यां, फांस खैकी मोर्यां सहित जाने कितनी पूजाएँ होती थी जी अतृप्त आत्माओं से सम्बन्धित हुआ करती थी, वर्तमान में यह सब पूजाएँ इसलिए भी कम हो गयी हैं क्योंकि अब माँ-बहनों को उन परिस्थितियों से नहीं गुजरना पड़ता जिससे उनकी आत्माएं अतृप्त रहें। नारी श्रृष्टि की उत्पयका मानी जाती है, फिर भी सम्पूर्ण विश्व में नारी वेदना के स्वरों को परिभाषित करते कई लोकगीत सदियों से परम्परागत तौर से चले आ रहे हैं। लोक में व्याप्त ये गीत नारी वेदना की हृदयी टीस से जागृत होकर एक ऐसी खुद में तब्दील हो जाते हैं जो दिल की हूक के साथ अनंत आकाश तक गूंजते लगते हैं।

इसी परिवेश को अगर हम उत्तराखंड से संदर्भित करके देखते हैं तो यहाँ खुदेड़ गीतों का प्रचलन सदियों से रहा है। उस खुद की याद दिलाती माँ नंदा के कैलाश गमन से लेकर वर्तमान तक हजारों-हजार ऐसे संदर्भ हैं जो हर किसी की आँखें नम कर देती हैं। इसी लोक समाज में व्याप्त एक परम्परा “झुमैलो” गीत-नृत्य की रही है जिसे सामवेद ने ढोल वादन के साथ नए रंग में रंगा है जिसे हम ऋतुरैण गायन, सैदेई गायन के साथ कई अन्य माध्यमों से प्रकट करते हैं। नाट्यशास्त्र जिसे पंचम वेद भी कहा जाता है, के अनुसार :-“जग्राह पाठ्य ऋग्वेदात् सामभ्यो गीतमेव च। यजुर्वेदादभिनमं रसानाथर्वणादपि।।“ अर्थात् साहित्य का भाग ऋग्वेद का, स्वर भाग सामवेद का, ताल भाग यजुर्वेद का और रस का भाग अथर्ववेद का है।

यह आश्चर्यजनक है कि “झुमैलो” अर्थात नारी वेदना के ऐसे स्वर जो हृदय चीर दें, के बारे में हमने सिर्फ गायन कला को परिभाषित तो किया है लेकिन इसकी नृत्य कलाओं के बारे में हमारे सुप्रसिद्ध संस्कृतिधर्मी, साहित्यकार, संगीतकार व लोकनृत्य जानकार ज्यादा कुछ कहने व लिखने में समर्थ नहीं दिखाई दिए। शायद इसके पीछे एक कारण रहा हो कि नारी वेदना को प्रकट करने वाला नारी समाज तब कम साक्षर रहा हो और पुरुष समाज साक्षर होकर उन शब्दों की पीड़ा को तो उजागर कर सका लेकिन उनकी झुमैलो में बदलती नृत्य कलाओं को संग्रहित करने में उन्होंने ज्यादा ध्यान नहीं दिया। अगर ध्यान दिया होता तो हम आज भी जान पाते कि शादी-विवाह के मांगलिक अवसरों पर मांगल गीतों के मध्य गूंजने वाली पौणा गाली (बारातियों को दी जाने वाली ठट्ठा-मजाक वाली गाली) देते हुए दुल्हन की सखियाँ, भाभियाँ, चाचियाँ इत्यादि किस स्थिति में खड़ी होकर सामूहिक स्वरों के इस्तेमाल के साथ सामूहिक रूप में खडी होकर गालियाँ देती हैं जिसे बाराती अपना श्रृंगार समझते हैं।

झुमैलो शब्द की व्यापकता को लेकर चर्चा करेंगे तो यह बेहद वृहद हो जाएगा इसलिए पहले इसकी व्याख्यात्मक अपरिभाषाओं का तुलनात्मक दृष्टिकोण अंगीकार कर लेते हैं। जानते हैं झुमैलो के बारे में विभिन्न साहित्यकारों ने क्या क्या परिभाषाएँ दी हैं:-

‘झुमैलो नृत्य गोल परिधि में बाँहों में बाँहें डालकर, दो कदम आगे, थोड़ा कमर झुकाकर, फिर दो कदम पीछे, कमर सीधा कर गोलाई में मन्द गति से चलते हुए किया जाता है। इसमें किसी वाद्ययंत्र के बजने का उल्लेख नहीं मिलता। यह वसन्तपंचमी से विषुवत सक्रांति तक चलता है। प्रकृति वर्णन, मायके की यादें, खुदेड़ गीत और झुमैलो की विषय वस्तु में कोई अन्तर नहीं। यह नृत्य मुख्यतः मायके आई हुई विवाहित महिलाओं या ससुर घर में रहकर कठिन जीवन बिताने वाली यौवनाओं का नृत्यगीत है। इसमें प्रायः कन्याएँ भी भाग लेती हैं।’(डॉ शिबानंद नौटियाल “गढवाल के लोकगीत-नृत्य” पृष्ठ-224)

“झुमैलो स्त्रियों का ऐसा प्रसिद्ध सामयिक गीत है जिसमें विशेष करुणाजनक अर्थ और शब्द्-चमत्कार है। वसन्त में अपने प्यारे माता-पिता बंधु-बांधवों से दूर ससुराल में सर्वथा अपरिचित लोगों के बीच रहने वाली नवपरणिता उदास बंधुवों की आंतरिक वेदना (खुद) को झुमैलो अत्यन्त मर्मस्पर्शी रूप से संसार के सम्मुख रखती है, जैसे:-

आई गैने ऋतु बौड़ी दाई जैसो फेरो, हे झुमैलो। फूली गैन बणू-बीच ग्वीराल-बुरांश, हे झुमैलो।

झपन्याली डाल्यूं माज घुघती घूरली, हे झुमैलो। गैरी-गैरी गदन्यू मा मेल्वड़ी बासली, हे झुमैलो।

ऊंचि ऊंचि डाल्यू माज कफुआ बासलो, हे झुमैलो। मौलिगैने भांति-भांति की फुलौर डाली, हे झुमैलो।

गेहूँ जौ की सारी सैरि पिंगली ह्वै गैने, हे झुमैलो। पुंगड्यू का तीर-ढीस फ्यूलडी फूलिगे, हे झुमैलो।

डांडी-कांठी गुंजी गैने ग्वैरू की मुर्ल्यूंन, हे झुमैलो। जौंकी बोई होलि बेटि मैतुड़ा बुलाली, हे झुमैलो ।

जौंका भाई होला देला अंगड़ी-टालखी, हे झुमैलो। मेरी बोइ हून्दी मी तैं मैतुड़ा बुलांदी, हे झुमैलो।

मेरो दादू हून्दो मी तैं ऋतु समलांदो, हे झुमैलो। बार मास मीकु तई, एकी ऋतु रैगे! हे झुमैलो ।

(भजन सिंह ‘सिंह’ “सिंहनाद” पृष्ठ- 44-45)

“झुमैलो लोकगीत दो तरह से गाया जाता है। एक तालबद्ध और दूसरा ताल रहित, तालसहित झुमैलो श्रृंगारिक और कारूणिक दोनों तरह से गाया जाता है, किन्तु ताल रहित झुमैलो आलाप प्रधान, करुण रस प्रधान लोकगीत होते हैं। इस लोकगीत का न्यास झुमैलो शब्द में होता है अर्थात लोकगीत की थाह या टेक झुमैलो शब्द पर होती है। तालबद्ध झुमैलो में गीत की गति के अनुसार ताल में झुमैलों गाया जाता है, किंतु ताल रहित झुमैलों में आलाप शैली में झुमैलो अधिक से अधिक श्वास के ठहराव के साथ में झुमैSSSSSSSSलो को विस्तार देकर लो अक्षर के साथ गीत की पंक्ति को पूर्णता प्रदान की जाती है। झुमैलो का शाब्दिक अर्थ, झूम लो होता है। तालबद्ध झुमैलो में हर्षित मन से झुमैलो और ताल रहित में आह के साथ झुमैलो गाया जाता है। यथाः- तालबद्ध झुमैलो का एक उदाहरणः-

 दापा दूपूधार हुणिया रूम झुमैलो, ऊन चोई लाणु हुणिया रूम झुमैलो।

ऊनेर का कोट हुणिया रूम झुमैलो, रातून की गोट हुणिया रूम झुमैलो।  

आई गैन ऋतु बौड़ी झुमैलो-झुमैलो,

या-फूली गैन बौंणों बीच ग्वीराल-बुराँस झुमैलो-झुमैलो। राड की रड्वाली म्वारी रूणाली झुमैलो,

झपन्याली डाल्यूँ हिलाँस बासली झुमैलो।

या- बालु बदरीनाथ लो झुमैलो, ब्याल की आरती लो झुमैलो।

फजल की पूजा लो झुमैलो, हरि जी की सेवा लो झुमैलो।

 तालबद्ध झुमैलो की एक विशेषता यह भी है कि नृत्य प्रधान होने के साथ ही इनकी गति मध्यम होती है, इन्हें थड़या चौंफुला से कम लय में गाया जाता है। मध्य लय और ठाह लय के कारण ये थड़या, चौंफुला से पृथक हैं। थड़या, चौंफला दुगुन में भी गाये जाते हैं। ताल रहित एक झुमैलों लोक गीत इस प्रकार है:- बऽऽसंऽऽतऽऽ बौड़ीनss झुमैsssलो,  जैsका होला भाई बऽऽन्दs ब्वेs झुमैsssलो, मैतुड़ाऽऽऽऽ बुलाऽऽलाऽऽ झुमैऽऽऽऽलो, निमैत्या धियाँऽऽणीऽऽ रूऽऽणी रेऽऽलीs झुमैऽऽऽऽलो।”

(डॉ माधुरी बडथ्वाल “गढवाली लोकगीतों में राग-रागिनियाँ” पृष्ठ-74-75)

 “पर्वतीय नारी की एक विशेषता इन झुमैलो लोकगीतों में प्रतिबिम्बित होती है कि चाहे वह कितनी भी व्याकुल क्यों न हो, तन और मन के दंश झेल रही हो, कठिन परिस्थितियों में जीवन यापन कर रही हो, वह अपनी पीड़ा को प्रकृति पर अवलम्बित कर सकारात्मक सोच उत्पन्न करके अपने साथ सभी को झूमने को प्रोत्साहित करती है। झुमैलो लोकनृत्य संयोग और वियोग का अतुलनीय उदाहरण है।

गढ़वाल के झुमैलो और खुदेड गीतों में प्रकृति का स्वतंत्र वर्णन नहीं मिलता। उनमें प्रकृति के पूरे चित्र नहीं होते, पर एक पूरे परिवेश की व्यंजना में वे कम प्रभावी नहीं होते। उनमें प्रकृति और मानव का विभाजन नहीं। इसी कारण उनमें वे सब भाव विद्यमान हैं जो समानता, तादात्म्य, सहानुभूति, आग्रह, आत्म निवेदन, उत्कंठा आदि के लिए अपेक्षित माने जाते हैं। दूत कार्य भी इसी भावात्मक संबंध-सूत्र का एक अंग माना जा सकता है। गढ़वाली गीतों में कफू, घुगूती, भौंरा आदि को इसके लिए उपयुक्त आश्रय माना गया है। ऋतु वर्णन भी उसका एक अंग है। वसंत और पावस पहाड़ों की प्रिय ऋतुएं हैं जो भावों। नारहमास को उद्वेलित करती हैं। किंतु केवल प्रकृति की पृथक चर्चा कहीं नहीं मिलती। बारहमासा भी खुदेड़ गीतों की एक विधा है, पर उनका संबंध प्रायः दाम्पत्य प्रेम से दिखाई देता है। फिर भी वे प्रिय की याद में नायिका की स्थिति और प्रकृति के रूप का बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव या वैषम्य को बखूबी उभारते. हैं।

गढ़वाली झुमैलो, वासंती और खदेड गीतों में प्रकृति के प्रति जो ममता मिलती है ,उसका कारण स्वयं यहाँ का प्राकृतिक सौन्दर्य, ऋतु चक्र और स्वयं जीवन की वे परिस्थितियाँ है जो गढ़वाली नर-नारी को प्रकृति के निकट लाती हैं या बनाए रखती हैं।” (गोविन्द चातक “गढ़वाली लोकगीत पृष्ठ-10-11)

इन सबसे हटकर डॉ नन्द किशोर हटवाल ने अपनी पुस्तक “उत्तराखंड हिमालय के चांचडी गीत एवं नृत्य” में कुछ अनूठा प्रयोग किया है। उन्होंने हाथ के स्कैच बनाकर उन लोक नृत्यों को बेहद करीने से सजाया है जो सम्पूर्ण उत्तराखंड में प्रचलन में हैं। भले ही उनकी यह 551 पृष्ठों की पुस्तक चांचडी गीत नृत्य संदर्भित हो लेकिन उन्होंने सम्पूर्ण उत्तराखंड के कुछ चुनिन्दा लोकगीतों को इसमें समाहित कर उन पर चर्चा की है। उनकी इसी पुस्तक के स्कैच जो पुस्तक के पृष्ठ संख्या 130 से 142 में अंकित हैं, में झुमैलो नृत्य कला आपको दिखने को मिल जायेगी। उन्होंने उन नृत्य कलाओं को कैसे किया जाता है उसके पैरों की चाल, हाथों के का मिलान व शरीर के हाव-भाव का उल्लेख तो किया है लेकिन कौन सी नृत्यकला किस लोकगीत में समाहित की जा सकती है उसका विस्तार इन पृष्ठों (पृष्ठ संख्या 130 से 142) में पढने को कम मिलता है। सच तो यह है कि इन सभी मूर्धन्य साहित्यकारों ने जिस परिश्रम के साथ हमारे समाज की तस्वीर विश्व भर में प्रस्तुत की है वह अतुलनीय है।

सौभाग्य की बात है कि हम उस मध्यांतर में जन्में जहाँ उत्तराखंड की लोक संस्कृति की साँसे आती-जाती दिखाई देती हैं। आती जाती इसलिए क्योंकि गाँव का लोक समाज अब गाँव से छित्तराकर शहरवासी हो गया है, अर्थात हम कठमाली कहलाने की कगार में खड़े हैं। उत्तराखंड में जितनी भी सरकारें आई और गयी उन्होंने अपने लोकसमाज के लिए संस्कृति विभाग की संरचना तो की लेकिन लोकसंस्कृति क्या होती है या होनी चाहिए उस पर न ध्यान ही दिया न ऐसे सेमीनार ही किये जिसमें युवा पीढ़ी को अपने लोक समाज व लोकसंस्कृति के प्रति अभिरुचि जागे व उसे अंगीकार करे। बड़े शहरों के बड़े मंचों पर रंग बिरंगे कपड़ों में अपने लोकगीत व लोकनृत्य प्रस्तुत करने वाले हमारे ज्यादात्तर लोककलाकार स्वयं लोक व लोक संस्कृति की परिभाषा नहीं जानते। यह सिर्फ मनोरंजन मात्र का महानगरों के लिए साधन बन गया है। व्यक्तिगत तौर पर मेरे द्वारा इसमें पहल करते हुए एक पत्र माननीय मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी जी को पकड़ाया गया था, जिसमें मैंने उनसे गुजारिश की थी कि “अपने लोक समाज या लोकसंस्कृति को बचाने के लिए हमें अपने लोकगीत व लोकनृत्यों को प्राथमिक विद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल कर लेना चाहिए ताकि हम लोक व लोकसमाज की परिभाषा समझ सकें, क्योंकि जिस देश की संस्कृति जिन्दा है वही देश भी जिन्दा दीखता है वरना यूनान, मिश्र, रोम सब ऐसे देश रहे हैं जो भौतिकता की दौड़ में तेजी से आगे निकले और अपने लोक समाज व लोक संस्कृति को भूलते चले गए। आज उनका नामोनिशान नहीं है। हमने अपने राष्ट्रीय ज्ञान में इस बात का आभाष भी करवाने की कोशिश की है कि ” यूनान मिश्र रोम सब मिट गए जड़े से, अब तक है मगर बाकी नामोनिशां हमारा” शायद लोक की बात करना व उसके बारे में सोचना आज के समाज में पिछडेपन की निशानी है। इसीलिए न मुख्यमंत्री जी ने इस पर विचार किया और न उत्तराखंड के 13 जनपदों का प्रतिनिधित्व करने वाली भेषभूषा वाली सलाह पर ..!

झुमैलो में समाहित लोकनृत्य (मेरे शोध के अनुसार)

इसमें तीन कलाएं आम तौर पर प्रचलन में हैं जिनमें पहली कला डॉ नन्दकिशोर हटवाल द्वारा अपनी पुस्तक में दिए गए इस स्कैच से सम्बन्धित है। यह नृत्य कला बहुत ही लोमहर्षक “झुमैलो” गायन में वर्णित गीतों में प्रयोग में लायी जाती है जो अंतश के कोर कोर तक समा जाती है। यह कला प्रकृति प्रदत्त उपादानों के साथ बोलों में ढलती हुई वह प्रदर्शन करती है जिसमें फसल, मायका, पशु-पक्षी, खुद और ससुराल की समस्त खैरी विपदा सम्मिलित होती है। इस नृत्य में दाहिना हाथ दूसरे के दाहिने कंधे के ऊपर तथा बाँयां हाथ दूसरे की बाँहें थामे होता है। इस नृत्य कला की सबसे बड़ी खासियत यह है कि जब आप झुमैलो गा रहे होते हैं तब आप दाहिने हाथ के बल से दूसरे का कंधा आगे की तरह जोर मारते हैं व बांयें हाथ से अपनी तरह खींचते है। इसमें आपका दांया पैर जमीन पर पूर्वत रहता है जबकि बांया पैर एड़ी से उठकर अँगुलियों के छत्ते वाले हिस्से पर आ टिकता है। यह उपक्रम एक से दो सेकेंड्स का लगातार अपनी जगह में खड़े खड़े चलता रहा है, अर्थात अपनी जगह में खड़े खड़े नृत्य करना । कई स्थानों पर यह नृत्य 1234 कदम ताल के साथ आगे पीछे बढ़ता हैलेकिन ऐसा अक्सर कम ही देखने को मिलता है। तब झुमैलो के बोल कुछ ऐसे होंगे:-

हैरी डांड्यों मा फ्योंली फूली झुमैलो, रीती पाख्यों मा फ्योंली फूली झुमैलो !

फ्यूंली फूले जसी नई ब्योळी झुमैलो ! यखुली खुदैणी होली ब्योली झुमैलो !

सारी सार्यो मा अटकणी होली झुमैलो, गंगलोड़ो मा भटकणी होली झुमैलो,

मैत की खुद आणी होली झुमैलो, पुराणी याद सताणी होली झुमैलो ।

हैरी चदरी बीच छिपाईं झुमैलो, पिंगळी मुखड़ी दमकणी होली झुमैलो ।

आंख्यों मा उदासी होली झुमैलो, पर सुपिना सजाणी होली झुमैलो !

झुमैलो का दूसरा लोकनृत्य 

यह झुमैलो एक मात्र ऐसा लोकगीत-नृत्य है जिसमें पुरुष समूह, महिला समूह के साथ गायन व नृत्य में अपनी सह्भागित्ता निभाता है इसमें महिला समूह और पुरुष समूह अलग अलग होते हैं एवं एक दूसरे का हाथ थामे लोकगीत के साथ नृत्य करते हैं। यह झुमैलो नृत्य कला डॉ शिबानंद नौटियाल की पुस्तक में वर्णित लगभग उन्ही शब्दों का सार है जैसे उन्होंने लिखा है कि:-झुमैलो नृत्य गोल परिधि में बाँहों में बाँहें डालकर, दो कदम आगे, थोड़ा कमर झुकाकर, फिर दो कदम पीछे, कमर सीधा कर गोलाई में मन्द गति से चलते हुए किया जाता है। इसमें किसी वाद्ययंत्र के बजने का उल्लेख नहीं मिलता।

इसमें भी 1234 की पदचाप गति होती है, पहले दाहिना पैर एक फिट आगे बढ़ता हुआ दोनों पैरों के बीच दूरी बनाता है और फिर कंधा दाहिनी और झुकता हुआ जब यथा स्थान पर लौटने को बायीं और आता है तब सम्पूर्ण शरीर आदर स्वरुप आधा झुकता हुआ वापस यथा स्थान आता है। इसमें सिर्फ वही झुमैलो सम्मिलित होते हैं इन्हें आप आदर स्वरूप अपने से बहुत बड़े आभामंडल को समर्पित करते हैं जैसे :-

नै डाली पय्याँ जामी झुमैलो, सेरा की मिंडवाली झुमैलो

चल चौंरी चीण्योला झुमैलो, चला पाणी चार्योला झुमैलो

द्यबतौं का शतन झुमैलो, नै डाली पय्याँ जामी झुमैलो

या फिर :-

बालु बदरीनाथ लो झुमैलो, ब्याल की आरती लो झुमैलो।

फजल की पूजा लो झुमैलो, हरि जी की सेवा लो झुमैलो।

झुमैलो नृत्य का तीसरा स्वरुप 

ऐसा नहीं है कि झुमैलो सिर्फ नारी वेदना को ही समर्पित है। झुमैलो में वह सब समाया है जो नारी समाज ने अपने कठोर परिश्रम से पूरे लोक समाज को अर्पित किया है। और जब उनका परिश्रम सार्थक हो जाता है तब उनके कंधे ऐसे ही उठ जाया करते हैं जैसे इस चित्र में डॉ नन्द किशोर हटवाल ने अंकित किया है। ऐसा लगता है कि मानों मातृशक्ति एक दूसरे के कंधे थपथपाकर कह रही हों ..शाबाश बहनों हमने कर दिखाया। इसमें महिलाओं के हाथ एक दूसरे के कन्धों में होते हैं और गीत गाते समय ये एक स्थान में ही खड़े होकर वैसे ही झूमते हुए गाती हैं जैसे प्रथम समूह नृत्य में ! यहाँ भी दाहिना हाथ दूसरी महिला के दायें कंधे को जोर मारता है तो बाएं हाथ अगले ही क्षण वापस खींच लेता है। यह क्रम तब तक चलता है जब तक गीत की पूरी पंक्ति समाप्त नहीं हो जाती। फिर दूसरा धड़ा इन्हीं पंक्तियों को दोहराकर वैसा ही अनुशरण करता है जैसा पहले ने किया था, लेकिन इस दौरान पहला धडा 1234 की कदम ताल कर अपने कन्धों व कूल्हों के साथ बिशेष मुद्रा में आगे बढ़कर चार कदम नाप लेता है। ठीक उससे मिलता जुलता जैसे थडिया नृत्य किया जाता है लेकिन थडिया की गति में चपलता होती है जबकि इसमें मध्यम गति होती है और गीत के बोल होते हैं  :-

राडा की रडवाड़ियों मा म्वारी रूणाली झुमैलो ! झपन्याली डाळ्यों मा कफू चिड़ो बासलो झुमैलो !

गैरी गदन्यों मा मेल्वड़ी वासली झुमैलो ! गौं की नौनी देळ्यों मा फूल चढ़ाली झुमैलो !

औजी को बेटा बढ़ईं बजालो झुमैलो ! हळसुंगो लीक हळ्या टौंखला खेतू मा झुमैलो !

या फिर:-

सीरी पंचमी मै झुमैलो, सीरी पंचमी मै झुमैलो । ऐ गैन दादू जी झुमैलो, रीतू बौड़ीक भै झुमैलो ।

बारा मैनों की भै झुमैलो, बारा बसंघरा भै झुमैलो । रितु बैड़ी ऐमे भै झुमैलो, रितु मा रितु वसंत भै झुमैलो,

बारा रितु मा भै झुमैलो, क्वा रितु प्यांरी भै झुमैलो, बारा रितु मा भै झुमैलो, वसंत रितु प्यांरी भै झुमैलो ।

नारी वेदना का सबसे अंतिम रूप झूमैलो लोकगीत जिसमें नृत्य नहीं होता 

यह पीड़ा का वह समन्दर है जो ऊँची चोटियों से निचली घाटियों और निचली घाटियों से गाड़-गदेरों से होकर नदियों व वहां से खारे समुन्दर में मिल जाता है , ठीक वैसे ही जैसे वेदना में आँखों से बहे नमकीन आंसू ! खेतों में काम करते, पहाड़ की उतुंग शिखरों में घास काटते, गाय या बकरियां चुगाते, पनघट पर पानी की पतली धार में अपने को महसूस करते, छोटी नदी तट पर कपडे धोते या फिर सेलु के लिए भेमल व शण की लकड़ी को पानी में डुबोते, बादलों की ओट में नम पानी की बूंदों से अपने मायके की खुद में आंसू बहाते ये माँ बहनें उस पीड़ा के समंदर को अपने बोलों में साझा करती हुई अपने दिल को कैसे हल्का करती थी, यही झुमैलो का यकीनन मूल स्वरुप भी है।

यहाँ इनके बोलों का साथ संगीत देने के लिए घास काटते समय इनकी छुणक्याली दरांती के छोटे घुंघुरू होते थे जो इन्हें दहेज़ में मायके से दी जाती थी या खेत को गोड़ाई करते वक्त धरती माँ की मिटटी या कंकण जो कुदाल की लोहे की फल में अपना सर्वस्व इसलिए मिटाने को आतुर होती थी क्योंकि उसकी भी आत्मा इन बोलों के साथ धाराशाही हो जाती थी। और मातुल अगर भारी बर्षा से बचने के लिए किसी ओड़ार (गुफा) में थाह लेने बैठी है व सामने घुप्प बादलों ने घटाएँ बिखेर रखी हों तब यह अपना धैर्य बाँधने के लिए अपना दूसरे कान पर हाथ रखकर वही दारुणिक शब्द संरचना के बोल से पूरी घाटी वादी गुंजायमान कर देती थी।कहा तो यह भी जाता है कि ऐसे सुर सुनकर वनदेवियाँ भी दूर उसके सुर में सुर मिलाकर उसका धैर्य बंधाती थी। झुमैलो की यह चौथी गायन विधा एक खेत से दूसरे खेत व दूसरे खेत से तीसरे खेत, एक जंगल से दूसरे जंगल, एक पर्वत से दूसरे पर्वत तक गूंजता कब दूसरे की पीड़ा में समाहित हो जाता था पता ही नहीं चलता। बिना एक दूसरे से परिचय के ये कारुणिक बोल एक दूसरे की पीड़ा को साझा करते आपस में बंट जाया करते थे, और दिल का गुब्बार समाप्त कर जब ये घर को लौटती तब इनका तन मन हल्का हो जाता।

पहाड़ की तरह पहाड़ की पीड़ा का बखान न्योली, लामण, जंगू , झुमैलो स्वरों में बखूबी सुनने को मिलती हैं लेकिन झुमैलों एक मात्र ऐसा शब्द संसार है जो कभी खुदेड़ गीत में तब्दील हो जाता है तो कभी आंसुओं के सागर में गोते खाकर हंसने खिखिलाने वाले बाजूबंद में ।

जैसे :- सैसर की ब्वारी भै झुमैलो, मैतुड़ा आली भै झुमैलो !

मेरी होन्दी ब्वई भै झुमैलो, मी मैत बुलौंदी झुमैलो !

निरमैत्या छोरी बोदी झुमैलो, बाटू हेरली ब्वे झुsमैsssलो

यही शब्द जब खुदेड़ में तब्दील होते हैं तब कुछ ऐसे रूप ले लेते हैं :-

बौड़ी-बौड़ी ऐगी ब्वै, देख पूस मैना, गौं की बेटि-ब्वारी ब्वै, मैतु आई गैना ।

मैतूड़ा बूलालि ब्वै, बोई होली जौंकी, मेरि जिकुड़ी मा ब्वै, कुयड़ि-सी लौंकी’ ।

मेल्वड़ी बासलि ब्वै, डाँड्यूँ चैत मास, मौलि गैन डोळि ब्यै, फूलिगे बुराँस ।

लाल बणीं होली ब्वै, काफळू की डाळी, लोग खाँदा होला ब्वै, लोण राळी-राळी ।

और जब बाजूबंद में समाहित होते हैं तब इनका रूप  ऐसे बदल जाया करता है :-

पुरुष:-

हो हो भैs सुलपा की साज, द्वि वचन बाजू लै दे मुल्की रिवाज

मेरी मायादार होली झट डेली बाच भैs झट देली बाच!

महिला:-

बौला मार्या गोत्ता भैs बोला मार्या गोत्ता

कै भग्यानी को होलो यो मुलैमी तोता भैs मुलैमी तोता

झुमैलों शब्द दिखने को छोटा है लेकिन इसकी व्यापकता का बर्णन करने के लिए आज भी काफी शोध करने की आवश्यकता है। अगर हम मूर्धन्य साहित्यकार गोविन्द चातक के शब्दों में ऐसी नारी का स्वरुप प्रस्तुत करें तो वह कुछ इस तरह कहा जा सकता है कि “गढवाली नारी की स्व की भावना प्रत्यक्ष बोध से कल्पना के साक्षात् बोध तक इसप्रकार पहुंच जाती है कि उसकी चेतना अपने जीवन का बोध और सुसराल की पीड़ा तक ही सीमित नहीं रहती; सारी प्रकृति उसके स्व में समा जाती है। इस प्रकार प्रकृति उसके भावात्मक प्रयोजन की अभिव्यक्ति का साधन बन जाती है। वह अपनी संवेदना से उम्र पर अपनी चेतना का आरोप कर एक समानान्तर चेतना का अनुभव करती है। यह भी विचारणीय है कि प्रकृति और उसके दृश्य रूपों में स्वयं ऐसी विशेषताएँ होती हैं जो उसके इंद्रिय बोध और संवेद्य भाव को स्वतः जगाने में सहायक होती हैं। मानव की स्वचेतना का जगाने का कार्य भी वह करती है। इससे अंतर्जगत् और बहिर्जगत् का समन्वय होता है। पर प्रकृति से कोई क्या संकेत ग्रहण करता है, यह उसकी मनःस्थिति पर निर्भर करता है। इसीलिए पहाड़ी नारी को कभी वह रुलाती है तो कभी हँसाती है। कभी प्रकृति उसके मन को रंगती है, कभी उसका मन स्वयं प्रकृति को रंग देता है। इस प्रकार प्रकृति पीड़ा और तोष के दोनों भाव और अभाव को पशु-पक्षियों, फूलों के द्वारा जब अपनी अभिव्यक्ति के लिए साधन बनती है तो उसमें निज की तथा इन की सहज विशेषताएं भी निहित हो जाती हैं। तनाव पीड़ा से मुक्ति के लिए वे भावात्मक आधार बनाती है। सहचरण और सहानुभूति से आत्मा का विस्तार होता है। यही नहीं उसकी अपनी वेदना के प्रस्फुटन के लिए प्रकृति उसके लिए पृष्ठभूमि प्रदान करती है। प्रकृति उसमें रतिभाव भी जगाती है। इसीलिए वृक्षों की हरीतिमा, फूलों का खिलना और पक्षियों को बोलना उसकी वासना को भी जगाता है जो प्रिय के अभाव में पीड़ामय रूप धारण कर लेता है।’

बहरहाल झुमैलो जिस तरह से लोक कलाकार रंगमंच के बड़े स्टेजों पर प्रस्तुत करते हैं, उन्हें यह मूलभूत जानकारी तो अवश्य रखनी ही चाहिए कि कौन से झुमैलो बोल नृत्य के हैं व कौन से नहीं! झुमैलो नृत्य के प्रकारों को बिना समझे उनमें प्रयोगधर्मिता आजमाना ठीक नहीं होगा, ऐसा मेरा मानना है।

 

 

 

 

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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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