जयश्री सम्मान…! डॉ. हीराबल्लभ थपलियाल के बाद क्यों नहीं संभाल पाया कोई गढ़वाली बोली-भाषा का इतना बड़ा मंच!
(मनोज इष्टवाल)
मुझे आश्चर्य तब होता है जब कहीं किसी टीवी चैनल के डिबेट में बैठों या फिर आकाशवाणी दूरदर्शन के कार्यक्रमों में ! गलती से अगर आपके मुंह से गढ़वाली बोली के स्थान पर गढ़वाली भाषा जैसा शब्द निकल आया तो विद्वतजन आपको भूल सुधार के लिए कह देते हैं कि गढ़वाली भाषा नहीं बोली है! ऐसे में मुझे सिर्फ एक योद्धा सामने दिखाई देता है जिसने गढ़वाली बोली को भाषा साबित करने के लिए कैलिफोर्निया अमेरिका से गढ़वाल क्षेत्र के गढ़वाली साहित्यकारों की टोली को “जयश्री सम्मान” से नवाजना शुरू किया और गढ़वाली बोली की जगह हर दस्तावेज में गढ़वाली भाषा का जिक्र किया!
(पंडित जयानन्द थपलियाल व उनकी अर्धांगिनी)
पौड़ी जनपद के पट्टी कफोलस्यूं के थापली गाँव के ख्याति प्राप्त शिक्षक स्व. जयानंद उनियाल के पुत्र व जयश्री सम्मान ट्रस्ट के अध्यक्ष बुद्धिवल्लभ थपलियाल के पुत्र डॉ. हीरावल्लभ थपलियाल (स्व. जयानंद थपलियाल के पौत्र) जोकि ट्रस्ट के पर्वतक रहे ने यह झंडा कई सालों तक इसलिए उठाये रखा कि गढ़वाली जागेंगे और अपनी भाषा की अस्मत के लिए युद्धस्तर पर साहित्यिक गतिविधियों के माध्यम से संघर्ष करते रहेंगे लेकिन नतीजे आखिर सिफर ही निकले! ट्रस्ट के अध्यक्ष बुद्धिवल्लभ थपलियाल के स्वर्गवास के बाद जयश्री सम्मान ट्रस्ट भी गुमनाम हो गया और उसके झंडाबदार भी!
आपको जानकारी दे दूँ कि गढ़वाली बोली गढ़ नरेशों के दौर में गढ़वाली भाषा के रूप में आठवीं सदी में अस्तित्व में आई व 14वीं सदी अंत तक अपने चरम पर रही! पंवार वंशज राजा जगतपाल सिंह ने अपने राज्य का पहला ताम्रपत्र गढ़वाली भाषा में लिख देवप्रयाग के रघुनाथ मंदिर में संवत 1512 सन 1455 में लिखा तदोपरांत असंख्य शिलालेख, दानपत्र, भीत्तिचित्र व मुद्राओं पर अंकन टंकण का कार्य भी गढ़वाली भाषा में होता रहा लेकिन फिर उथल-पुथल के दौर में यह सब पिछड़ता चला गया और आज स्थिति यह है कि दुनिया की अन्य कई बोली भाषाओं के साथ गढ़वाली-बोली भाषा के अस्तित्व तेजी से ख़त्म होने के कगार पर है!
यह सब देखते हुए इन्हीं गढ़वाली बुद्धिजीवियों ने सात-समुद्र पार अमेरिका में बैठ अपनी भाषा पर चिंतन-मनन किया और त्रिनेत्र के रूप में स्व. राधावल्लभ थपलियाल, डॉ. हीरावल्लभ थपलियाल (थापली) व पौड़ी गढ़वाल पैडूलस्यूं पट्टी के जोशियाणा गाँव के ख्याति अर्जित डॉ. कैलाश जोशी ने कैलिफोर्निया में अपने दादा स्व. जयानंद थपलियाल की पुन्य तिथि पर गढ़वाली भाषा के साहित्यकार.लेखक, कवियों के सम्मान हेतु “जयश्री सम्मान” की एक परिकल्पना प्रारम्भ की जिसका रजिस्टर्ड कार्यालय 310, बसंत विहार देहरादून बनाया गया! ज्ञात होकि डॉ. कैलाश जोशी डॉ. हीरावल्लभ थपलियाल के फुफेरे भाई हुए व अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के करीबियों में गिने जाने वाले पहले भारतीय हैं!
आपको जानकारी दे दें कि स्व. जयानंद थपलियाल ब्रिटिश काल में खुले पूरे गढ़वाल मंडल के 8 मिडिल स्कूलों में एक मिडिल स्कूल के प्रधानाध्यापक थे जोकि उस काल में बड़े गौरव की बात समझी जाती थी! स्व. जयानंद थपलियाल की पुन्यतिथि पर आयोजित होने वाले “जयश्री सम्मान” ने गढ़वाली भाषा के लिए पुरजोर कोशिश करते हुए सन 1984 में स्व. जयानंद थपलियाल के शताब्दी बर्ष समारोह में प्रथम बार देहरादून में गढ़वाली कवि सम्मलेन करवाया और यहीं से सम्मान देने की परम्परा भी शुरू हुई! एक प्रशस्ति-पत्र, शाल व एक हजार रूपये नगद “ जयश्री सम्मान” पुरस्कार पाने वाले पहले व्यक्ति गढ़वाली हिंदी साहित्य के मूर्धन्य साहित्यकार अबोध बंधु बहुगुणा हुए जिन्हें उनकी कृति “भुम्याल” काव्य के लिए यह सम्मान दिए गया ! तदोपरांत यह सिलसिला चलता रहा 1985 में मोहन लाल नेगी की गढ़वाली कथा संग्रह “जोनि पर छापू किलै” 1986 में नाट्यकार ललितमोहन थपलियाल के समग्र नाटय लेखन पर, 1987 में मनोहर लाल उनियाल को समग्र हिंदी काव्य लेखन पर, 1987 में ही गिरधारी लाल कंकाल को समग्र गढ़वाली काव्य लेखन हेतु, 1989 में चारू चंद चंदोला को “कुछ नहीं होगा” हिंदी कृति पर, 1989 में ही भगवती प्रसाद जोशी “हिमवंतवासी” के गढ़वाली काव्य संग्रह “एक ढांगा की आत्मकथा” पर, 1990 में डॉ. गोविन्द चातक को हिंदी समस्त कथा व गढ़वाली समस्त नाटक पर, 1990 में ही गुणानन्द पथिक को समस्त गढ़वाली काव्य संग्रह हेतु, 1990 में श्रीराम शर्मा ‘प्रेम’ को समस्त हिंदी लेखन, 1992 में डॉ. गंगा प्रसाद विमल को हिंदी काव्य संग्रह, डॉ. महावीर प्रसाद गैरोला को गढ़वाली उपन्यास “पार्वती” के लिए व नेत्र सिंह असवाल की गढ़वाली काव्य संग्रह “ एक ढांगा से आत्म साक्षात्कार के लिए, 1993 में वल्लभ डोभाल को समस्त हिंदी कथा संग्रह, डॉ. पार्थ सारथि डबराल को समस्त हिंदी सृजन पर, घनश्याम शैलानी को गढ़वाली काव्य संग्रह “गंगा का मैत विटि” सन 1995 में रतन सिंह जौनसारी को हिंदी का समस्त काव्य संग्रह, कन्हैय्यालाल डंडरियाल को समस्त गढ़वाली सृजन, राधाकृष्ण कुकरेती को हिंदी कथा साहित्य व जीवानंद शिर्याल को गढ़वाली में समग्र काव्य सृजन हेतु “ जय श्री सम्मान” से विभूषित किया गया! शुरूआती दौर में इस सम्मान की राशि मात्र एक हजार रुपये थी जो बढ़ते बढ़ते पांच हजार रूपये हो गयी थी! और सम्मानित करने वाले हाथों में भक्तदर्शन जी, डॉ. राममूर्ति शर्मा, डॉ. पुरषोत्तम डोभाल, श्रीमती सुशीला डोभाल, सतपाल महाराज, आचार्य गया प्रसाद शुक्ल. लक्ष्मी नारायण सकलानी, विद्यासागर नौटियाल व घनश्याम मुरारी श्रीवास्तव इत्यादि सम्मिलित रहे!
प्रश्न वहीँ मुंह बाए खड़ा हो जाता है! आखिर क्यों 20 या इस से अधिक सम्मानों के बाद गढ़वाली भाषा साहित्य की पैरवी करने वाले इतने बड़े मंच ने दम तोड़ दिए जबकि इस परिवार के लोग आज भी साधन सम्पन्न व बड़े बड़े पदों पर विश्व में ख्याति प्राप्त लोग हैं! क्या कहीं अपने समाज की ही निरंकुशता के चलते इन लोगों द्वारा भी अपने हाथ वापस खींच लिए गए ठीक उसी तरह जिस तरह 18 बर्ष बीत जाने के बाद भी उत्तराखंड सरकार इस गढ़वाली बोली को भाषा में इसलिए शामिल करने के कतरा रही है कि इसकी लिपि नहीं है! वही हाल कुमाउनी बोली का भी है और दोनों ही बोलियाँ इस समय अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं! आश्चर्य तो तब होता है जब पता चलता है कि जौनसारी बोली की अपनी अलग लिपि है! गढ़वाली की लिपि को भी वर्तमान में अधिकारीगण इसलिए खारिज कर देते हैं कि यह एक सर्वसम्मत लिपि नहीं कही जाती क्योंकि हर क्षेत्र में बोली जाने वाली गढ़वाली बदल जाती है! मेरा प्रश्न यह है कि क्या गढ़वाली राजकाज के जमाने में ऐसा नहीं होता रहा होगा! क्योंकि तब श्रीनगरी गढ़वाली भाषा राजपत्रित मानी जाती थी तब आज क्यों नहीं! आपको बता दें कि विश्व के कई देश ऐसे हैं जिनकी कोई लिपि नहीं है फिर भी वह भाषा के रूप में परिणित हैं व बोली जाती हैं इनमें प्रमुखत: फ्रेंच, जर्मन, इटेलियन, पुर्तगाली व डच जैसी भाषाएँ शामिल हैं जिनकी एक ही लिपि मानी जाती है जिसे रोमन कहते हैं! फिर गढ़वाली को भाषा अंगीकार करने में कहाँ दिक्कत है जबकि उसकी समस्त वर्णावली देवनागरी है तो क्या गढ़वाली की लिपि देवनागरी घोषित करते हुए इसे भाषा का दर्जा नहीं दिया जाना चाहिए?
बहरहाल गढ़वाली बोली भाषा का संकट भी उतना ही गहरा है जितना हमारा सोया हुआ समाज! जाने हम कब जागेंगे और कब ऐसी ही पहल करेंगे जैसे विदेशों में रहे हमारे अपनों ने गढ़वाली भाषा के सम्मान की लड़ाई लड़ते हुए “जय श्री सम्मान” का जयघोष किया था ! कहीं इस ट्रस्ट के बिखरने के पीछे हम सब गढ़वालियों का ही तो हाथ नहीं? यह चिंतन हमें करना होगा ! यह चिंतन जयश्री सम्मान के लिए न भी हो लेकिन गढ़वाली भाषा का पुरजोर समर्थन करने के लिए व सरकार पर दबाब बनाने के लिए करना ही होगा क्योंकि यहाँ की अफसरशाही यह कभी नहीं चाहेगी कि इसे मूर्त रूप मिले और उनके लिए कार्यबोझ बढे!