(मनोज इष्टवाल)
यह मैं नहीं बल्कि स्वयं गीतकार गायक व संगीतकार स्व. चन्द्र सिंह राही भी स्वीकारते थे कि यह गीत उनकी निजी रचना नहीं है बल्कि यह गीत उन्हें कोटद्वार रेलवे स्टेशन के बाहर गीत गाते सूरदास झ्वगी जी ने सुनाया था जिसके बोलों में उन्होंने हल्का से फेर बदल जरुर किया होगा लेकिन कहीं भी मूल रचना के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की गई है!
देश दुनिया में विभिन्न भाषाओं में ही नहीं बल्कि विभिन्न गायकों की आवाज में तरह तरह की आवाज में गाया गया यह गीत आज सुपरहिट है लेकिन कोई नहीं जानता कि इसका गीतकार एक ऐसा सूरदास था जो गीत गाकर कोटद्वार रेलवे स्टेशन में अपना भरण पोषण करता था! लोकगायक चन्द्र सिंह “राही” का यह बडप्पन ही कहेंगे कि उन्होंने इस गीत को गाने से पूर्व उस सूरदास को यह रचना समर्पित की जिसे खुद पता नहीं रहा होगा कि झोगा (झ्वगी) सूरदास इस रचना के साथ अजर अमर हो गया है!
मूलतः इस गीत को सर्वप्रथम लोकगायक चन्द्र सिंह “राही” सर्वप्रथम ऑडियो के माध्यम से विगत सदी के अंतिम दशक में कैसेट के माध्यम से आम जन के सामने लाये उसके बाद कुमाऊं के स्व. पप्पू कार्की ने इस पर चार चाँद लगा दिए! यह इस गीत का दुर्भाग्य कहें या सौभाग्य कि जिन्होंने इसे उंचाई दी वे तीनों झ्वगी, राही व कार्की अब इस दुनिया में नहीं हैं! उनके स्वर्ग सिधारने के बाद इस गीत ने 2019 के विगत तीन माह में इतनी पब्लिसिटी जुटा ली कि यह सिर्फ गढवाली कुमाउनी नहीं बल्कि विभिन्न भाषाई लोगों की पसंद बन गया है!
यह गीत ज्वकी दास सूरदास या झ्वगी सूरदास के मुंह से लोकगायक चन्द्र सिंह राही ने 1984 में सुना जिसे उन्होंने 1986 में एक कैसेट कम्पनी में रिकॉर्ड करवाया था व 1987 में मुंबई के एक कार्यक्रम में सबसे पहले मंच पर गाया था था! इस गीत के कुछ खूबसूरत ठेठ गढवाली शब्द इसकी सबसे बड़ी खूबसूरती हैं! 1978-79 में दुगड्डा (जिला पौड़ी गढ़वाल) में आदमखोर बाघ का इतना कहर था कि कोई उसे बाघ/गुलदार तक मानने को तैयार नहीं था! लोगों का मानना था कि यह कभी आदमी तो कभी बाघ बन जाता है! यह आज शिकार दुगड्डा क्षेत्र में करता था तो अगला शिकार यहाँ से कम से कम 70 किमी. दूर यमकेश्वर में व अगला इतने ही फासले पर लैंसडाउन क्षेत्र में! इसकी दहशत इतनी थी कि उस काल में 6 बजे शाम के बाद घर से बाहर रहना दूभर हो जाता था! बाघ पर कई गीत बनते थे जो एक के मुंह से दूसरे तक व दूसरे से तीसरे तक पहुँचते थे!
मेरा फ्वां बाघा रे गीत उस दौर में सिर्फ झ्वगा सूरदास के मुंह से लोग अक्सर तब सुनते थे जब वे कोटद्वार रेलवे स्टेशन पर ट्रेन का इन्तजार करते थे! तब लोगों को फ्वां बाघा रे से मतलब नहीं रहता था बल्कि उसके उन खूबसूरत शब्दों पर बिशेष हंसी आती थी जिन्हें सूरदास जी कुछ यों गाते थे:-
बल हुडकु फोड़यूँ च, सिपयूँ का बीच बल भिबडट पुडयूँ च!
या फिर ….बबलू कु…..सबलु कु
हवलदार साब, सुबदार साब, लेफ्टेंन साब, कैप्टेन साब,
पोस्टमैन साब…लतड-पतड माराज!
बल नोटा खस्कई जाण!
सच कहें तो यह ऐसी त्रासदी थी कि बाघ मारने के लिए जितने भी शिकारी नियुक्त किये गए थे सब उसकी चालाकी के आगे बेबस व लाचार दिखे! यह पहला बाघ था जिसने लैंसडाउन गढवाल राइफल्स सेना को भी सजगता बरतने के लिए मजबूर किया हुआ था!
वर्तमान में इसे नयी संगीत के साथ हर नया आर्टिस्ट अपने अंदाज में गा रहा है! व इसके फिल्मांकन के लिए कई माध्यम आपको सोशल साईट पर दिखाई देते होंगे!
सुप्रसिद्ध साहित्यकार भीष्म कुकरेती अपने सोशल साइट पेज में इस गीत के बारे में लिखते हैं कि जिन लोगों ने साठ और सहत्तर के दशक में दिल्ली से या लखनऊ से कोटद्वार का सफर रेल से किया हो तो उन्हें याद होगा कि कोटद्वार और नजीबाबाद रेलवे स्टेसन पर उन्हें एक सूरदास जी मिलते थे जो लोक गीत सुनाकर यात्रियों का भरपूर मनोरंजन करते थे ।
मैस्वाग बाघ लगने पर उनके द्वारा सुनाया गया यह लोक गीत आपको पसंद भी आयेगा और लोक गीतों में
संघर्ष व हास्य किस तरह मिला-जुला होता है का ज्ञान भी देगा
मुंबई में इस लोक गीत को सुप्रसिद्ध गायक चन्द्र सिंह राही ने प्रसिद्धी दिलाई थ। श्री राजेन्द्र धस्माना ने अपने प्रसिद्ध नाटक ‘अर्ध ग्रामेश्वर ‘ में कोटद्वार स्टेशन का वातवरण
पैदा करने हेतु प्रसिद्ध ‘फ्वां बागा रे ‘ लोक गीत का इस्तेमाल किया था। राजेन्द्र धस्माना द्वारा इस प्रसिद्ध लोक गीत को इस्तेमाल करने का अर्थ है कि लोक गीत हमारे हृदय में बसे हैं।
मेरा फ्वां बागा रे: एक प्रसिद्ध गढवाली लोक गीत:-
बल मरसा को टैर, मरसा को टैर ।
गढवाळ मा बाग़ लगी , बाग़ अ कि ह्व़े डैर।
मेरा फ्वां बागा रे….।
बल गुठयारो को कीच, गुठयारो को कीच।
पैली पैली बाग़ गाया कौड़ी पट्टी बीच ।
मेरा फ्वां बागा रे….!
साब लोखो, लपटैन साब, कपटैन साब
सतड़ पतड़ परमेसुर माराज -बागै ह्व़े डैर
ढुंग ध्वाळो भ्याळा – क्वी ब्वाद कुर्स्याळु ह्वालो
क्वी ब्वाद स्याळा- मेरा फ्वां बागा रे
साब लोखो, लपटैन साब, कपटैन साब
सतड़ पतड़ परमेसुर माराज -बागै ह्व़े डैर
अर सुबेदारूंम त बडी घपरोळ हुंई च।
ऊ ब्वना छन साब बल कि
द्वी द्वी फूली वळा त ह्वाया
पर यू तीन फूल्युं वळु कू आया
बला हुडक्यूँ मच्युं च सुबेदारूं क बीच सचे हाँ
भिभड़ाट मच्युं च ।
मेरा फ्वां बागा रे…!
अरे अल्मोड़ा क क्वाया,
सूबेदार साबकु बागन
अंग्वठा बुखै द्याया।
मेरा फ्वां बागा रे
फिर क्य ह्व़े साब, बला
तमाखू क त्वया -बुडड़ी क बदल बागन
खंतड़ी गमजै द्याया -मेरा फ्वां बागा रे
झंग्वरा कि धाण, तुमन चली जाण बाबू ल्वाखु
बल गाडीन छुटि जाण
यख मिन खौंळयू रै जाण -मेरा फ्वां बागा रे
साब लोखो, लपटैन साब, कपटैन साब
सतड़ पतड़ परमेसुर माराज -बागै ह्व़े डैर
झंग्र्यळू बिंया – – काणु आदिम छौं बाबू ल्वखों
ख्वाटो पैसा नि दियां मेरा फ्वां बागा रे।।