(स्व. सच्चिदानंद सेमवाल जी की कलम से)
मेरे निवास स्थल रीठाखाल, पौड़ी गढ़वाल के बगल में एक रमणीक गांव है- बिजोली। वहाँ विना पगड़ी वाले, जिनको सहजधारी सिख कहते हैं, उन लोगों के परिवार रहते हैं। वे नेगी लोग मुण्डन(सिर के बाल कटवाने) के अतिरिक्त हिन्दू धर्म के अनुसार ही अपने शेष सभी पंद्रह संस्कार करते हैं।
बिजोली गांव के ऊपर वट वृक्ष की छाया में उनका एक सुन्दर गुरुद्वारा है, जिसमें प्रतिवर्ष गुरु नानक जयन्ती पर मेला लगता है। गुरु पूजा के साथ- साथ गांव के सभी नेगी लोग सभी हिन्दू देवी-देवताओं का पूजन भी करते हैं। उनकी शादी हिन्दू राजपूतों के साथ होती है। इस प्रकार उनकी यह मिश्रित आस्था हिन्दू- सिख धर्म में अभेदता को भी दिखाती है।
उन लोगों के वहाँ बसने की यह ऐतिहासिक घटना है- गुरु नानक जी एक बार गढ़वाल भ्रमण पर आये थे। उन्होंने कुछ दिन तक हमारे बाजार रीठाखाल में रीठे के वृक्ष के नीचे भी संगत सहित कुछ समय तक अपना आसन जमाया था। बताते हैं कि उनके सत से वह मीठा रीठा कई वर्षों तक हरा- भरा रहा और इसीलिए इस जगह का नाम रीठाखाल भी पड़ा। इसी प्रकार नानक जी पौड़ी के पीपली गांव में भी पीपल के पेड़ के नीचे रहे थे। गुरु नानक के कुछ अनुयायियों को निकट के गांव गुराड़ के गोर्ला थोकदार यानी ‘तीलू रोतेली’ के दादा जी ने अपने अधिकार क्षेत्र में शरण दे दी थी। इसलिए वे नानक जी के कुछ अनुयायी सपरिवार गढ़वाल के कुछ गांवों में बस गये थे। उनमें से एक भाई बिजोली में बसा व दूसरा भाई रीठाखाल के सामने के गांव ‘ हलूणी’ में बस गया था। वहाँ भी एक गुरुद्वारा है और अब वहाँ उसके वंशज कई सिख नेगी परिवार रहते हैं। इसी प्रकार पीपली गांव में भी काफी सिख नेगी लोग हैं।
ब्रिटिश सेना में बिजोली गाँव के एक हवलदार थे, जिनका नाम था- कल्याण सिंह नेगी। सुडौल -गठीला शरीर, खुंखरियों की- सी उनके मुंह की दोनों तरफ लटकती हुईं घनी मूंछें और बोलने- चालने का रौबदार अंदाज उनकी पहचान थी। कल्याण सिंह जी देश- विदेशों में अंग्रेजों की तरफ से कई युद्धों में भाग ले चुके थे और सन् 1876 में रिटायर्ड हो गये थे। प्रेम से उनके गांव- मुल्क के लोग उन्हें हवलदार जी ही कहते थे।
कल्याण सिंह जी रिटायर्ड होकर अपने नाम के अनुरूप बिजोली सहित उसके अड़ोस-पड़ोस के ग्राम वासियों के सुख-दुःख में सदैव भागीदार होते। फौजी बन्धुओं का तो आजीवन पूजन उनका कर्तव्य- कर्म ही होता है। वे दिनभर अपना समय यापन पहाड़ी खेतों में ही करते। खेतों में हल चलाना, बीज बोना, रोपाई करना, गोबर डालना, निराई -गुड़ाई करना, जंगली जानवर भगाना और फसल पकने पर उनको काटकर अनाज जमा करना उनका सालभर का कार्य था। उनको अपने निजी खेतों की मिट्टी की सोंधी खुशबू मानो मदहोश कर देती थी और तब वे और भी अधिक जोश के साथ उनमें अपना कृषि कार्य करते।
अंग्रेजों के जमाने में हमारे किसी भी पहाड़ी इलाके में कोई अंग्रेज अफसर आता था, तो उसके निकट के गांव के लोगों को बारी-बारी से उनकी सेवा करनी पड़ती थी। उनके निवास के लिए प्रत्येक गांव में विशेष प्रकार के, दो-तीन मंजिले, भव्य मकान बने होते थे, जिनको ‘क्वाठा’ कहा जाता था। उनकी खातिरदारी के अतिरिक्त ग्रामीणों को उनकी कम-ज्यादा खेती के अनुसार अनाज आदि टैक्स के रूप में देना पड़ता था, उसको जमींदारी प्रथा अथवा मालगुजारी व्यवस्था कहा जाता था। अंग्रेजों की सेवा की बारी लगाने व टैक्स उगाही का लेखा- जोखा उस समय गांव का पदान करता था। उस समय का पदान आजकल के प्रधान से भी अधिक अधिकार रखता था। उन दिनों टैक्स की किश्त देने में असहाय किसी गरीब की दीनदशा पर एक गाना भी प्रचलित था-
हे विधाता, कब तें रौली या गरीबी साथ मा।
पदान दादा धौ लगोंद, किश्त द्यावा हाथ मा।।
अन्न नी च धन्न नी च खांदा नौना पात मा।..
अंग्रेजों की खातिरदारी करने के बदले में गांव वालों को कुछ भी नहीं मिलता था। इस शोषणकारी कुप्रथा को हवलदार जी जैसे समाज सेवियों के बीच उस समय ‘कुली बेगार प्रथा’ कहा जाता था।
हवलदार जी को छोड़कर बिजोली गांव के लोग अंग्रेज सरकार को प्रतिवर्ष दिये जाने वाले टैक्स के रूप में एक बार अपना अपना अनाज दे चुके थे। हवलदार जी को भी टैक्स भरने के लिए पहले पदान जी ने कहा और फिर न चुकाने पर सरकार से नोटिस आया, लेकिन वे अपने इलाके की गरीबी को देखते हुए टैक्स न देकर चुप रहे। वे कुली बेगार प्रथा व उस टैक्स को हमेशा के लिए बन्द करवाने के उद्देश्य से अंग्रेजों को सबक सिखाना चाहते थे।
दूसरी बार अंग्रेजों के दो सिपाही हवलदार जी को लेने के लिए उनके घर पर आये, लेकिन वे घर के नजदीक ही अपने खेत में हमेशा की तरह कृषि कर्म में तल्लीन थे। हवलदार जी की सीधी सादी घरवाली के बताने पर सिपाही खेत में ही उनसे मिलने आ गये।
“आप लोग यहाँ क्यों आये हैं?” हवलदार जी ने पूछा।
“एकेश्वर में तहसीलदार साहब आये हैं और आपसे चावल टैक्स के रूप में मांगे हैं। आपने एक आर्डर मिलने के बावजूद टैक्स नहीं भरा है, इसलिए उसको लेकर अब उनके समक्ष पेश होना होगा” सिपाही बोले।
“किस बात का टैक्स?” हवलदार साहब ने सब कुछ जानते हुए रौब से पूछा।
“आपकी जो जमीन जायदाद है, सरकार उसके बदले प्रति वर्ष अनाज का टैक्स मांगती है।”
“हमारे खेतों में अपने पेट भरने लायक भी अनाज पूरा नहीं होता, तो हम किसी को क्या अनाज देंगे? मैं कोई टैक्स नहीं दूंगा।” हवलदार जी ने उन्हीं की कड़क भाषा में जबाब दिया।
सिपाहियों ने हवलदार जी को काफी वाद-विवाद के बाद समझाया, “हम तो सरकार के सेवक हैं और हमें उसकी आज्ञा पालन करना ही होता है। तुन्हें चावल लेकर एकेश्वर चलना ही होगा।”
हवलदार जी ने मन में कोई ‘प्रतिज्ञा’ विशेष करके दो बैगों को कुछ बिच्छू घास व ‘जरूरी सामान’ अपने साथ रखा और सिपाहियों के साथ एकेश्वर चल दिये।
हवलदार जी सिपाहियों के साथ कभी घने चीड़, बांज, बुरांश के जंगलों के बीच से होते हुए तो कभी पहाड़ी के कंधे में जाते। वे वीरांगना तीलू रोतेली एवं बड़े बड़े वीर भड़ों के अश्वों के खुरन्यास से कम्पित हुई संकरी पगडंडी से होते हुए, 4 किमी दूर, पहाड़ी की ऊंची चोटी में देवदार के घने जंगल के बीच स्थित मनोरम एकेश्वर नामक बाजार में पहुंचे।
एकेश्वर से नजर चुराने वाली, भारत माता के चांदी के लम्बे मुकुट की तरह केदारनाथ व चौखम्भा आदि हिमालय की अद्भुत छटा उनको विस्मित कर रही थी। वहाँ पर की सरसराती हुई शीतल, सुगन्धित और शुद्ध वायु उनकी घर से आने की थकान मिटा रही थी। बांज- बुरांश के घने जंगल, बुग्याल(वन्य जीवों के चारागाह) व उन पर अठखेलियाँ करते मृगादि वन्य जीवों के झुण्ड, कफ्फू, घुगुती, हिंलास आदि पक्षियों का मधुर कलरव, नयार नदी, रसुलन की दीबा देवी का डांडा, भैरवगढ़ी की चोटी एवं पौड़ी आदि की गगन चुम्बी पहाड़ियों की कतारें, चारों तरफ के गाँवो में बने सीढ़ी नुमा लहलहाते खेतों व दूर दूर के गाँवों के दृश्य पहले से अपनी जन्मभूमि को स्वर्ग मानने वाले हवलदार जी को उसके लिए मर-मिटने को उद्दीप्त कर रहे थे।
एकेश्वर बाजार के एक मैदान में आलीशान कुर्सी में बैठे अंग्रेज तहसीलदार साहब के चारों ओर दसियों लोग मानो अन्य ग्रहों की तरह सूर्य का चक्कर लगा रहे थे और कई चपरासी मैदान के एक किनारे पर तहसीलदारिन की सेवा में जुटे थे। उस तहसील के सैकड़ों ग्रामीण लोग समन पर अथवा अपनी अपनी समस्याएं लेकर वहाँ एकत्र हो रखे थे। उनके टेण्ट के निकट पहुंचते ही परेड की कदमताल-से करते हुए, जोश से लवरेज हवलदार जी ने अपने एक बैग में रखी बिच्छू घास (कंडाली) की गट्ठी पकड़ ली।
सिपाही हवलदार जी को तहसीलदार के पास ले गये।
” ये टुमारा हाठ में क्या है?” तहसील दार रौब से हवलदार जी से बोला।
“टैक्स सर”
“ये गास कैसा टैक्स?” तहसीलदार ने जिज्ञासा पूर्वक सख्ती की।
“सर, आपके सिपाहियों ने मुझसे अनाज टैक्स में मांगा था, जब हमारे खेतों में यही होता है, तो हम आपको टैक्स में और क्या चीज दे सकते हैं?”
“सिपाही, इसका गास पकरो। हम ऐसा पहली बार देका हूं।” तहसीलदार चिल्लाया।
ज्यों ही सिपाही ने बिच्छू घास पकड़ी, उसके डंक से वह चीखा और करंट के झटके की तरह दूर छिटक गया।
‘इसका तो गास भी अमारा आदमी को काटता है!” ऐसा कहते हुए तहसीलदार आग बबूला हो गया। फिर अपने सिपाहियों से दहाड़ा,” गिरफ्टार कड़ो इसे, हथकड़ी पहनाओ, ये अनाज के बदले खटन्नाक गास लाया है। अम इस पर मर्डर करने का मुकदमा ठोकेगा और सीधे जेल भेजेगा।”
कुछ देर गहरे सन्नाटे के बाद अंग्रेजों की तानाशाही से वाकिफ वहाँ उपस्थित सीधे सादे ग्रामीण भयभीत होकर आपस में कानाफूसी करने लगे कि आज हवलदार काका काम से गया! अब बेचारी अकेली काकी को कौन दो जून की रोटी खिलायेगा!! आखिर साब से माफी क्यों नहीं मांग लेता काका!!
सिपाही लोग हवलदार जी को हथकड़ी पहनाने लगे। गुरु गोबिन्द सिंह के वंशज हवलदार जी कहाँ डरने वाले थे। उनका खूल खौल रहा था। भय शब्द से अनजान वे भी अपने घर से अपनी जन्म भूमि के लिए ‘कुछ न कुछ’ करने की पूरी तैयारी करके आये थे।
वे अपने फौलादी हाथों से हथकड़ी झटककर, अपने दूसरे थैले में रखी खुखरी हाथ में रखकर गरजे,”तहसीलदार, मैं तुम में से दो अंग्रेज लोगों का अभी यहीं पर कत्ल करूंगा!!”
वह चमचमाती खुखरी भी इतनी तेज धार थी कि जिसको म्यान से हाथ में रखकर अंग्रेजों की तरफ से जब हवलदार जी ‘जय मा काली, आयो गढ़वाली’ अथवा ‘वाहे गुरु का खालसा, वाहे गुरु की फतेह’ की गर्जना के साथ युद्ध के मैदान में उतरते तो दुश्मनों के प्राण पहले ही निकल जाते और वो विना युद्ध किए उनके शरणागत हो जाते! अंग्रेज सेना उनके शौर्य के बल से कई युद्ध जीत चुके थे। उनका ऐसे वीरों का साथ रह चुका था, जिनके जन्म के साथ ही ‘कायरता से मरना अच्छा’ का नारा सिखाया जाता था। पूरे एकेश्वर क्षेत्र के लोग हवलदार जी की वीरता से भलीभाँति परिचित थे।
हवलदार जी का रौद्ररूप देखकर एकेश्वर के मैदान में खड़े लोगों में खलबली मच गयी। विभिन्न गांवों से लोग मारे भय से कांपते हुए अपने- अपने घरों को भागने लगे।
“आज एकेश्वर में बिजोली के हवलदार काका पर खून सवार हो रखा था, न जाने कितनी लाशें बिछा दी होंगी उसने!!”- ऐसा कहते हुए ग्रामीण राहगीरों को बताते जाते।
तहसीलदार भय मिश्रित क्रोध से कांपते हुए सिपाहियों को बोला,” इसका बैग में देको, और किटना हठियार है?”
सिपाहियों ने बैग टटोला तो उसमें देखा कि एक ताम्र पत्र पड़ा है। उन्होंने उसको तहसीलदार साहब को दिखाया।
तहसीलदार ने सिपाही से पूछा,”क्या लिका है इसमें?”
सिपाही पढ़ने लगा- “हवलदार कल्याण सिंह ने जर्मनी में अपनी जान पर खेलते हुए वायसराय की जान बचाई थी, उसके एवज में इनको सबसे अच्छी खुखरी प्रदान की जाती है। इनको उसे अपने पास रखने और उसके साथ ही कभी भी एवं किन्हीं भी दो आदमियों का खून करने का अधिकार दिया जाता है।”
यह सुनते ही तहसीलदार के पैरों तले की जमीन खिसक गई! उसके हाथ पांव फूल गये!!
थर थर कांपते हुए वह हवलदार जी से बोला,”अम टुमको हाठ जोडता है। अम बचन देता हूं – टुमको माप करेगा, कोई टैक्स मट दो, अपना इस खुखरी को बैग में रको।”
“सिपाही, हवलदार साब की हथकडी कोल डो।”
सिपाहियों ने हवलदार साहब की हथकड़ी खोली। तहसीलदार ने हवलदार जी को कुर्सी पर बिठाया, पानी पिलवाया और फिर भय से रेगिस्तान बने अपने कंठ को कुछ आर्द्र किया।
“हवलदार साब, आप क्या काम करता था, आपको ये इनाम कैसा मिला?” तहसीलदार विनम्रता से बोला।
चारों तरफ जो ग्रामीण वह भयानक मंजर देखने के लिए छुपे थे, वे सब के सब मैदान में आ गये और ‘भारत माता की जय’ ‘हवलदार कल्याण सिंह जिन्दाबाद’ आदि के नारों से एकेश्वर का पहाड़ जिसको लोग ‘इगासर का डांडा’ कहते थे गूंज गया।
जब ग्रामीण थोड़े शान्त हुए, तो हवलदार साहब ने तहसीलदार को आपबीती बतायी, “सर, मैं ब्रिटिश सेना में हवलदार था। एक बार मैंने वायसराय की जान बचायी थी, तब उन्होंने मुझे यह ताम्र पत्र जबरदस्ती पकड़वाया था। यद्यपि मुझको कुछ और भी मांगने के लिए कहा गया था, लेकिन मैंने उस समय उनसे कुछ नहीं मांगा। वैसे भी मेरी कोई सन्तान भी नहीं है।” वहाँ पर के भारतीय कर्मचारियों और ग्रामीणों की ओर मुंह करके उन्होंने दमदार आवाज में कहा, “हम गढ़वाली सैनिकों को अपने अपने घरों में गरीबी से भी जंग लड़नी होती है, इसीलिए अपने परिवार के लिए हमको भर्ती होना पड़ता है, अन्यथा हम लोग तुम अंग्रेजों का मुंह तक नहीं देखना चाहते हैं। हम अंग्रेज सेना में रहते हुए देश-विदेशों में भी अपनी मातृभूमि भारत की वजह से ही लड़ते हैं। अब तो हम भारतवासी नेता जी सुभाष चन्द्र बोस को अपना असली नायक मानते हैं। जय हिन्द! ”
“अब टुम अमसे क्या चाहता है? बोलो। अम टुम पर भौट खुस है।”
“सर, एक तो हमारे चौंदकोट क्षेत्र में तो कुली बेगार प्रथा नहीं चलायी जाए और दूसरा हमारे क्षेत्र में कभी अनाज का टैक्स न लिया जाए।”
“क्लर्क, जैसा हवलदार साब कहटा है, वैसा आडर लिको।” तहसीलदार ने अपने बाबू से कहा।
तहसीलदार ने हवलदार साहब को सैल्यूट करते हुए अपने दो सिपाहियों को पुनः आदेश दिया, “हवलदार साब को इनका गर तक भेज कर आओ।”
हवलदार साहब का एकेश्वर से लेकर उनके गांव बिजोली तक जगह- जगह पर ढोल नगाड़ों की थाप पर जोरदार स्वागत हुआ। अब तो वे ‘दो खून के माफीदार हवलदार’ के वीरोचित नाम से विख्यात हो गये थे। शाम को ग्रामीणों के साथ अपने गांव पहुंचे। पदान जी ने सोचा कि कोई दूसरा बड़ा अंग्रेज अफसर आया है, लेकिन एक युवक ने उनको बताया कि हवलदार जी आज बहुत बड़ा काम करके आये हैं। एकेश्वर वाले घटना चक्र को सुनते हुए पहले तो उनको भी चक्कर आया और फिर जब उन्होंने पूरी बात सुन ली, तो उन्होंने एक बालक से बगीचों के फूल मंगाकर हवलदार साहब को अपने पदानचौक में फूलमाला पहनायी।
उनकी पारिवारिक जीवन यात्रा के हर्ष- विषाद के पड़ावों में एक मात्र सहचारिणी उनकी धर्मपत्नी ही थी। हवलदार साहब ने एकेश्वर वाली अपनी दादागिरी की वीरगाथा सोते समय उसको सुनाई। जीवन में पहली बार उसकी शुरुआत में उसको इतने भयानक रस का स्वाद मिला था और वो सहम गयी थी, लेकिन बाद में उसको अपने शूरवीर पति पर गर्व हुआ। उस सुहानी रात में हवलदार साहब को पत्नी से भी अधिक सबसे अच्छी चैन की नींद आयी, क्योंकि दो खून करने की जगह वे दो जगह पड़ने वाले गरीबों के खून और पसीने के पैसे माफ करवा चुके थे।
अगले दिन प्रातःकाल तो पूरे इलाके के लोग अपने अपने हाथों में रैबेली- कुणजे आदि की मालाएं लेकर आये और सबने उनको बारी- बारी से गांव के सबसे बड़े चौक में हवलदार और उनकी पत्नी को पहनाया। फूलों का भी वह दिन अच्छा था, जो हवलदारिन जी के वक्षस्थल पर टपकती हुईं अविरल अश्रुधाराओं के कारण कुम्हलाने से बच गये थे। खड़ी- खड़ी, बड़े-बड़े लकड़ियों के गट्ठर और घास के भारे अपने घर सारने वाली एक पहाड़- सी कठोर पहाड़ी महिला को आज फूल झुका पाये थे और हां, ढोल-दमाऊं, बैण्ड-बाजों और मशक बीन की धुन से ऐसा प्रतीत होता था कि दोनों की दुबारा शादी हो रही हो! हवलदार जी के बलिष्ठ बैलों सहित गांव के गोठों के जानवर भी ‘हवलदार साहब जिन्दाबाद’ के नारों की गगनभेदी ध्वनि के साथ सुर मिला रहे थे।
रुंधे गले से हवलदार साहब ने लोगों का आभार जताया और इतना ही कहा, “आप जानते हैं कि हम लोग पापी पेट की खातिर ही अंग्रेजों की सेना में भर्ती हुए थे, लेकिन मैं उसमें भी अपने देश की तरफ से विदेशों में लड़ा था। अब जाकर मैं अपनी मातृभूमि से कुछ कुछ उऋण हुआ हूं और अन्तिम सांस तक उसके हित के लिए अंग्रेजों से भी मेरी जंग जारी रहेगी।”
चार युवक उनको और दो महिलाएं उनकी पत्नी को कंधों में बैठाकर उनके घर तक ले गये।
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समय का घोड़ा अपनी नियत चाल से ही आगे दौड़ता है। आम लोगों के उलट हवलदार जी के साहस के भय से उनके जीवन में 90 वर्ष की उम्र के बाद बुढ़ापा दस्तक दे सका। उनके कभी के बलिष्ठ शरीर को भी अब उनकी धर्मपत्नी की सेवा की बड़ी आवश्यकता रहती। कभी कभी उम्र की बढ़ौती में बीमारियों से भी उनका सामना होता।
एक दिन प्रातःकाल अपने घर में सबका कल्याण चाहने वाले गढ़वाली बब्बर ‘सिंह’ कल्याण सिंह जी को उनकी निपट अकेली और निराश्रित हुई अर्धांगिनी अपनी गोद में रखकर सिसकियां ले रही थी। आज वह अपना दांयां अङ्ग खोने से निहायत ‘अपङ्ग’ हो चुकी थी।
एक गांव वाला युवक हवलदार साहब में गुरु गोबिंद सिंह का अक्स देखता था। वह नित्य प्रति प्रातःकाल उनके दर्शन करने जाता था। उसने उस दिन उनके अन्तिम दर्शन कर वापस आते समय आंसू पोंछते हुए रुंधे गले में लोगों से कहा, “आज किसी से भी न हारने वाले हमारे चाचा हवलदार जी अपनी जिन्दगी की जंग हार चुके हैं। वे मुझसे अक्सर कहा करते थे- मैं सदैव विजयी जुलूस के बैण्ड बाजों के साथ अपने घर वापस आया। जब मैं मर जाऊं, तो मुझको अन्तिम बार भी मेरी अपनी ‘असली घर’ की यात्रा में ठीक वैसे ही ले जाना।” वह आगे नहीं बोल सका।
( एक सुनी हुई छोटी-सी घटना का मैंने कहानी का रूप देने का असफल प्रयास किया है।)
फोटो- प्रतीकात्मक।