शानदार… एक स्टोरी टेलर के माध्यम से रची गई “गढ़ चाणक्य वीर पुरिया नैथानी” के 112 बर्षों के जीवन की गाथा।
मंडी हाउस स्थित जीटीए ऑडियोटोरियम में हुआ शानदार मंचन।
निर्देशन में सुशीला रावत ने छोड़ी छाप…! पटकथा ने बांधे रखा।
ऐतिहासिक परिदृश्यों के फ़िल्मांकन में कुछ सन्दर्भों में चूक इसलिए क्योंकि किताब लेखक ने गढ़ गाथाओं के आधार पर उतारी स्मृतियां।
(मनोज इष्टवाल)
एक काल खंड जिसने इतिहास बन उत्तराखण्ड के ऐश्वर्य की विजयगाथा लिखी हो। एक ऐसा व्यक्ति जिसने महाभारत का भीष्म बन गढ़वंशी तीन-तीन राजाओं को विशिष्ट दूत (राजनैतिक सलाहकार) बन अपनी महत्वपूर्ण राय दी हो व आपातकाल को चुटकियों में भांपकर उसका निस्तारण किया है। ऐसे ब्राह्मण को “गढ़ चाणक्य” के नाम से पुकारा गया हो। और उन्हें कहा गया हो श्रीनगर राजा के सेनापति पुरिया नैथानी…! क्या पुरिया नैथानी सचमुच इतने लंबे अंतराल तक सेनापति रहे? आखिर क्या सच है इस सबके पीछे! आइए देखते हैं “द हाई हिलर्स ग्रुप” का नाट्य मंचन “पुरोधा पुरिया नैथानी।”
07 अगस्त 2022 समय शांयकाल ठीक 06 बजे…! जीटीए ऑडिओटोरियम का रक्तवर्ण पर्दा उठने को बेताब था, दर्शकों से हाल खच्चा-खच भरा हुआ। पुरिया नैथानी सेवा ट्रस्ट के अध्यक्ष निर्मल नैथानी सचिव सुनील नैथानी पूर्व आईजी एसएस कोटियाल, वायस एडमिरल नेवी संदीप नैथानी, वरिष्ठ पत्रकार मनोज इष्टवाल सहित अन्य अतिथि गणों को दीप प्रज्वलित करने मंच के एक छोर पर आमंत्रित किया गया और दीप प्रज्वलित होने के चंद सेकेंडस में ही पर्दा उठा।
एक दादी (अभिनेत्री कुसुम चौहान) गुमसुम सी अतीत के खयालों में खोई हुई है। दनदनाती उनकी पोती नन्दा (रश्मि कुकरेती) आ पहुंचती है, दादी से सवाल जबाब कर ही रही होती है कि तभी पोता केदार (हिमांशु बिष्ट) भी आ धमकता है। वर्तमान परिवेश की भावभंगिमाओं से टकराती विगत शताब्दी की 60वें दशक की दादी…! और फिर शुरू होती है अनंत आकाश की तरफ उठती दादी की नजरों के साथ लगभग साढ़े चार सौ साल अर्थात 16वीं सदी के इतिहास की आकाश गंगा। वह आकाशगंगा जो पोती को तो गढ़वाली भाषा के प्रति मोह पैदा करवाती है लेकिन पोता अभी भी गढवाळी भाषी बनने में सकुचा रहा है व उसे वह सेकेंड लाइन से भी नीचे समझ अपने आज से नहीं जोड़ना चाहता।
पोती जिद करती है कि दादी उन्हें उनके पुरखों के बारे में तो बताये कि वे क्या थे। शायद उसे यह उत्सुकता इसलिए पैदा हुई क्योंकि किताबी सन्दर्भों में हम कहाँ अपनो को ढूंढ पाते हैं। उसके मन ने उसे कचोटा है कि हमारा कुछ तो अतीत होगा? इस दौरान दोनों भाई बहनों में आपसी मीठी तकरार भी होती है जिसे दादी का स्वांग (बनावटी गुस्सा) शांत करवा देता है। फिर दादी सुनाती है अपने पूर्वजों के थाती माटी उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल के विकास खंड कल्जीखाल, पट्टी-मनियारस्यूँ के गांव नैथाणा के झंग्वर्या की कहानी..!
झंग्वर्या शब्द का भले ही नाटक में कहीं वर्णन न हो लेकिन यह शब्द इसलिए आपके समुख लाने की दृढ़ता कर रहा हूँ ताकि नैथाणा गांव के उन उखड़ खेतों की चर्चा भी हो सके, जिनमें सिर्फ झंगोरा ही ज्यादा अच्छी फसल देता था व जहां जन्मा गढ़ राज वंश का एक ऐसा सैन्य सलाहकार जिसकी दूरदृष्टि के चर्चे गढ़वाल श्रीनगर से लेकर दिल्ली दरबार तक खूब प्रसिद्ध थे। जिसने राजाज्ञा का पालन करते हुए 112 बर्ष की उम्र में तलवार उठाई व द्वाराहाट युद्ध में कुमाउनी सेना पर विजय प्राप्त कर वहां “नैथाणा गढ़ी” की स्थापना की। भले ही इस युद्ध में वे बुरी तरह घायल हुए थे लेकिन पटकथा में यह युद्ध तामाड़ोंन युद्ध अर्थात राजा दीप चंद के काल का बताया गया है जो संशय पैदा करता है।
बहरहाल इस नाटक के मंचन के कई चुनौतीपूर्ण हिस्से कहे जा सकते हैं क्योंकि 112 बर्ष में कितनी लड़ाइयां लड़ी गयी उन लड़ाइयों में पुरिया नैथानी की क्या भूमिका रही। जजिया कर, आपदा काल, अकाल काल व गढ़ कुमाऊं की आपसी मन मुटाव, मित्रता, रुहेलाओं, सैय्यदों की ज्यादतियों सहित कई ऐतिहासिक लड़ाइयां अपने जीवन काल में झेलने वाले पुरिया नैथानी पर काम करना आसान नहीं था लेकिन जानी मानी रंगकर्मी सुशीला रावत ने टाइट स्क्रिप्टिंग के माध्यम से यह जता दिया कि कुछ भी असंभव नहीं है।
स्टोरी टेलिंग के माध्यम में कहानी जब पार्श्व में जीवंत होती है तो लगता है हम ठेठ उस काल में पहुंच गए। वही राजा रजवाड़े की भेषभूषा में बदन पर झूलती मिरजई, पगड़ियां, राजसी मुकुट और आवोहवा दर्शाकर इस नाटक ने 16वीं -17वीं सदी के परिवेश को जिंदा करने का हर सम्भव प्रयत्न किया गया लेकिन महिलाओं के ड्रेसिंग सेंस (अविवाहित पात्रों ) ने कन्फ्यूजन पैदा किया क्योंकि उस दौर में अविवाहित भी त्यूँखा या धोती पहनते थे। लेकिन यह गम्भीरता से नहीं लेना चाहिए।
चार पांच किरदारों ने बेहद प्रभावित किया। सबसे पहले तो नन्दा के चरित्र को जीने वाली रश्मि कोठारी ने…! उसके शब्दों में गढवाळी का ऐसा पुट देखकर दंग रह गया। दिल्ली एनसीआर में रहने वाली लड़की अगर गढवाळी का इतना शुद्ध उच्चाहरण करे तो अचम्भा होगा ही होगा क्योंकि आम तौर पर हम भी ऐसे शुद्ध शब्द इस्तेमाल में कम ही लाते हैं। रश्मि कोठारी की अभिनय क्षमता यकीनन प्रभावित करने वाली थी। उसके डायलॉग डिलीवरी के साथ भावभंगिमा भी शब्दों का पीछा करती ठेठ में पहुंच जाती और फिर जब लौट कर तठस्थ होती तो वह एकदम वर्तमान को ताजा तरीन कर देती। निर्देशक सुशीला रावत ने यहां उसकी व उसके भाई केदार के ड्रेसिंग सेंस की बेहद खूबसूरत समझ रखी। प्रथम दृष्टा नंदा के स्कूल ड्रेस में मंच पर प्रवेश ने यह बात समझाने का यत्न किया कि आज का वर्तमान क्या है व अस्सी बर्ष पहले (दादी का पहनावा) क्या रहा होगा।
यूँ तो कुसुम चौहान जैसी अभिनेत्री जब भी मंचन के लिए उतरती हैं तो लगता है वह पहले उस काल की परिकल्पना कर लेती हैं जिस काल में उन्हें ढाला गया है। इस नाटक में भी दादी के काल को भांपते उन्हें उनके स्वांग-वांग उनके शब्दों के साथ सभी के दिल में उतरते चले गए। वह लगभग 80 बर्ष की उम्र में जी रही उस दादी माँ के घुटनों की पीड़ा व हड्डियों में कैल्शियम की कमी ही नहीं दर्शा रही थी बल्कि उनके चेहरे के झंझावतों का प्रदर्शन दर्शकों को ठेठ उसी काल खंड में ले जा रहा था जिस काल खंड की बात हो रही थी।
पोते केदार का अभिनय निभा रहे हिमांशु बिष्ट के पास अपनी अभिनय क्षमता दर्शाने का पर्याप्त मौका था लेकिन यहां वह चूक गए। पहले हिंदी में डायलॉग और फिर एक अंतराल के बाद अचानक गढवाळी में संवाद पर उतर आना कहीं न कहीं पटकथा के पैचवर्क की कमी दर्शाता है। यहां दादी के नित गढवाळी संवादों व बहन नंदा की गढवाळी से ओत-प्रोत व अपने पुरखों की जयगाथा सुनकर अपना मन बदलकर गढवाळी भाषी बन केदार के पास एक ऐसे डायलॉग की नितांत आवश्यकता थी जिससे वह गर्व से कह पाता कि उसे अपनी गौरवशाली परम्पराओं पर अभिमान है इसलिए वह हिंदी की जगह अब हर गढवाळी मूल के व्यक्ति से गढवाळी में ही बात करेगा। यह संदेश इस पटकथा के माध्यम से युवाओं में पहाड़ प्रेम के साथ अपनी मातृ भाषा गढवाळी बोली के प्रति रुझान पैदा करता व इस तरह उनके हिंदी संवाद के बाद गढवाळी में संवाद करना सबको प्रभावित करता। लेकिन यहां कहीं चूक नजर आई।
पुरिया नैथानी के किरदार को जीने वाले कुलदीप असवाल अपने अभिनय के साथ धीरे-धीरे आगे बढ़े। उनके पास अपने को साबित करने का विशाल फलक था व उन्होने अपने अभिनय मंचन में कहीं कमी नहीं रहने दी। उनके मेकअप ने काफी प्रभावित किया। वस्त्र विंहास के लिए सुशीला रावत, रमेश ठंगरियाल व रविन्द्र गुड़ियाल बधाई के पात्र हैं।
नाट्य कलाकारों में सेनापति शंकर डोभाल (पीएस चौहान), औरंगजेब (जगमोहन सिंह रावत), कुमाऊँ नरेश जगत चंद (महेंद्र सिंह लटवाल), रुद्र भड़ (महेंद्र रावत), उद्योत कठैत (दर्शन सिंह रावत), खड़क सिंह कठैत (जगत सिंह रावत), राम सिंह कठैत (राहुल गिरी), फतेह शाह (हिमांशु सिंह), दलीप शाह (अनर्व पंत), उपेंद्र शाह (देवव्रत असवाल) जैसे कई महत्वपूर्ण किरदार थे। जिन्होंने बखूबी अपने अपने हिसाब से अपने किरदार को निभाने की कोशिश की। लेकिन 101 बर्ष के इतिहास को मात्र डेढ़ घण्टे में लपेट लेना इतना सहज व सरल काम नहीं है जो मंचन में दिखाया जा सकता। यही कारण रहा कि कई जगह रिक्तता झलकी। मुझे लगता है फ़्लैश बैक में हर दृश्य परिवर्तन के साथ दृश्य जोड़ता वॉइस ऑवर इसे और मजबूती दे सकता था। बहरहाल निर्देशक सुशीला रावत ने पटकथा के आधार पर एक शानदार नाटक दर्शकों के सम्मुख रखा।
जिन रंगमंचीय कलाकारों के अभिनय ने प्रभावित किया उनमें नंदा (रश्मि कुकरेती), दादी (कुसुम चौहान) पुरिया नैथानी (कुलदीप असवाल), जगत चंद (महेंद्र सिंह लटवाल) भर्तृहरि (खुशहाल सिंह बिष्ट) गोपीचंद (अखिलेश भट्ट) सहित कुछ अन्य किरदार अपने छोटे व बड़े मंचन से व्यक्तिगत रूप से छाप छोड़ने में कामयाब रहे। यहां गढवाळी सिनेमा जगत की प्रथम फ़िल्म अभिनेत्री कुसुम बिष्ट को मात्र एक ग्रामीण महिला के रूप में मंच पर देखकर अचम्भा हुआ।
नाट्य पक्ष की कमजोर कड़ियाँ।
किसी भी नाट्य मंचन में उनकी पटकथा उसका सबसे मजबूत हिस्सा माना जाता है। मुझे लगता है कि हमने पटकथा लिखते समय जिस किसी भी पुस्तक का संदर्भ लिया बस उसी को सच मान लिया । इस पर हमें ऐतिहासिक पुस्तकों को उलटने पलटने का समय भी लेना चाहिए था व किंवदंतियों का भी सटीक विश्लेषण समझना चाहिये था व उन पर आत्म चिंतन भी करना चाहिए था।
1- जैसे राजा भृर्तहरि व गोपीचंद की पकाई खिचड़ी तो पुरिया नैथानी ने बाल्यकाल में खाई थी जब वे ग्वाले थे व गाय भैंस चुगाने जंगल गए थे। भला एक ऐसा पुरोधा जिसने राज दरबार में 84 बर्ष अपनी सेवाएं दी वह कैसे किसी साधु के झूठे पत्तल चाटेगा। यह तर्क संगत नहीं लगता। हां अबोध बालक यह कर सकता है। व माना जाता है कि इसी जूठी खिचड़ी को खाकर एक मामूली सा बालक इतनी ऊंचाइयों तक पहुंचा व आज भी जीवित है।
2- ऐतिहासिक घटनाओं का संज्ञान लेने की चूक की गई। दरअसल पुरिया नैथानी के जन्म समय में दिल्ली दरबार में मुगल बादशाह शाहजहां का राज था जिसने 1628 से 1654 तक राज किया। वहीं तब श्रीनगर राजदरबार में राजा पृथ्वीपति शाह (1640-1664), मेदनी शाह (1664-84) फतेशाह (1684-1616) व राजा प्रदीप शाह का शासन था। क्योंकि पुरिया नैथानी का जन्म शुक्ल पक्ष संवत 1705 अर्थात सन 1648 का माना जाता है व उनकी अंतिम उपस्थिति 1760 के कुम्भ में मानी जाती है। इस हिसाब से वे तब 112 बर्ष की उम्र के थे। इन सब तथ्यों को ध्यान में रखा जाय तो मुगल काल ने इस दौरान शाहजहां, औरंगजेब, बहादुर शाह प्रथम, जहांदर शाह, फरुख्शियार, रफी-उल-दर्जन, शाहजहां द्वीतीय, मुहम्मदशाह, अहमद शाह, आलमगीर द्वितीय, व शाहजहां तृतीय कुल मिलाकर 11 सम्राट खोया। व गढ़वाल ने 04 तथा कुमाऊं ने बाजबहादुर चंद, उधोत चंद, ज्ञान चंद, जगत चंद, देवीचंद, अजीत चंद, कल्याण चंद पंचम, दीप चंद सहित 08 राजाओं का राज्यकाल देखा। ऐसे में पटकथा पर थोड़ा और कार्य किये जाने की संभावना थी। जैसे-
* पुरिया नैथानी राजदूत व राजा के सैन्य सलाहकार थे वे सेनापति कभी नहीं रहे।
* जजिया कर 1679 में औरंगजेब द्वारा उनकी उम्र 31बर्ष की थी।
* पुरिया नैथानी के कार्यकाल में कुमाऊं नरेश दीप चंद की उम्र तब 1 बर्ष की थी व वे पिता की मृत्यु के पश्चात राजगद्दी पर बिठाए गए थे। यह घटना 1748 में जूनिया गढ़-जूना गढ़ की है जबकि राजा दीप चंद के पिता कल्याण चंद व गढ़वाल नरेश प्रदीप शाह की अभिन्न मित्रता थी व दोनों ने ही मिलकर रोहिला सेना को कुमाऊं से भगाया था। राज कल्याण चंद को आंखों का रोग लग जाने से उनके वंशज देवी चंद ने गढ़वाल पर आक्रमण किया था व जूनिया गढ़ युद्ध में परास्त हुआ।
* औरंगजेब दरबार में चांदी की प्लेट पटकने की घटना जजिया कर मुक्त करने से जोड़ी जाती है। यही कारण भी है कि औरंगजेब के विशेष दूत गढ़वाल आये व सालू-मालू के पत्तों पर उन्हें भोजन परोसा गया तब औरंगजेब को पता चला कि गढ़वाल कितना गरीब राज्य है।
* गढ़वाल पर औरंगजेब की सेना ने तब आक्रमण किया था जब दाराशिकोह के पुत्र सुलेमान शिकोह ने राजा पृथ्वीपति शाह के काल में शरण ली थी व मुगल सेना हरिद्वार से आगे न बढ़ पाई।
* औरंगजेब काल में विजय दशमी पर्व पर उनके राजदूत सन 1667 में श्रीनगर आये थे इसी दौरान पुरिया नैथानी ने राजा की श्यामकल्याण घोड़े से महल के ऊपर से छलांग लगाई थी।
* पुरिया नैथानी को कोटद्वार भावर के किशनपुरी स्थित 2000 बीघा जमीन मंगसीर संवत 1725 अर्थात 1768 में दी गई थी वह औरंगजेब द्वारा नहीं बल्कि राजा पृथ्वीपति शाह द्वारा दी गयी थी जिसका ताम्रपत्र मौजूद है। कोटद्वार चौकी से लेकर स्याल बूंगा, जिस पर बाद में सुल्ताना भांडु डकैत के कब्जा कर लिया था(नजीबाबाद किले तक) की हजारों एकड़ जमीन पर सैयदों ने कब्जा कर लिया था। उसे मात्र 20 बर्ष की उम्र में पुरिया नैथानी ने बड़ी बुद्धि चातुर्य इसे औरंगजेब दरबार में राजा गढ़वाल के नाम करवा दिया था।
* हरिद्वार कुम्भ 1759-60 में स्थानीय साधुओं व प्रयाग से आये साधुओं के बीच भयंकर खूनी संघर्ष की गाथा इतिहास में दर्ज है। इसी कुम्भ मेले में पुरिया नैथानी के खो जाने की खबर है। इस आधार को प्रामाणिक माना जाय तो पुरिया नैथानी 112 बर्ष तक जिंदा रहे।
जिस मेहनत व शिद्दत के साथ “द हाई हिलर्स ग्रुप” के लगभग 60 सदस्यों की टीम ने निर्देशक सुशीला रावत के निर्देशन में “पुरोधा वीर पुरिया नैथानी” का मंचन किया वह अद्भुत रहा लेकिन मेरा मानना है कि अगर यह ग्रुप दुबारा इन ऐतिहासिक तथ्यों का अपनी पटकथा में सामंजस्य बिठा ले तो यह अतुलनीय हो जाएगा क्योंकि ऐतिहासिक बिषयों पर नाट्य मंचन करना सरल कार्य नहीं है। पूरी टीम को एक स्वस्थ मनोरंजन व एक पुरोधा की जीवन गाथा को सजीव बनाने के लिए शुभकामनाएं। बहुत बहुत आभार शुक्रिया वीर पुरिया नैथानी ट्रस्ट के अध्यक्ष निर्मल नैथानी व सचिव सुनील नैथानी जी जिन्होंने मुझे इस मंचन को देखने के लिए आमंत्रित किया व अभिभूत किया।