Tuesday, April 1, 2025
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क्या उत्तराखंड के खनन सचिव नहीं जानते संसदीय बिशेषाधिकार!

(मनोज इष्टवाल)

प्रश्न तो यही उठता है कि क्या सच में राजनेता व प्रशासनिक अधिकारी संसदीय बिशेषधिकार का ज्ञान नहीं रखते? अगर सचमुच रखते तो संसद में उठे खनन के मुद्दे पर दिए गए पूर्व मुख्यमंत्री व हरिद्वार सांसद त्रिवेंद्र सिंह रावत के बयान पर प्रतिक्रिया देने के लिए खनन सचिव मीडिया के समक्ष इसे खुले मंच से खारिज नहीं करते। मुझे लगता है अगर खनन सचिव को अपनी बात रखनी थी तो उन्हें राज्य सरकार से पहले इसकी अनुमति लेनी चाहिए थी, और फिर इसे उचित माध्यम से केंद्र सरकार या राज्य सरकार के समक्ष लाना चाहिए था ताकि इस पर राज्य सरकार के मुख्यमंत्री, मंत्री या फिर विधायक सरकार की स्थिति स्पष्ट करने मीडिया से रूबरु होते। किसी भी सचिव को यह बिशेषाधिकार नहीं है कि वह संसद में रखे गए किसी मुद्दे को मीडिया के समक्ष रख उसे खारिज कर सके। चलिए जानते हैं क्या है पूरा घटना क्रम..!

पूर्व मुख्यमंत्री व वर्तमान हरिद्वार सांसद त्रिवेंद्र सिंह रावत ने खनन का संसद में क्या उठाया मुद्दा?

लोकसभा सांसद त्रिवेंद्र सिंह रावत ने उत्तराखंड में अवैध खनन का मुद्दा संसद में 27 मार्च 2025 को उठाया था। यह जानकारी विभिन्न समाचार स्रोतों के आधार पर सटीक है, जहां बताया गया है कि उन्होंने लोकसभा में इस गंभीर विषय पर सरकार का ध्यान आकर्षित किया।
अपने बयान में उन्होंने कहा कि हरिद्वार, देहरादून, नैनीताल और उधम सिंह नगर जिलों में रात के समय अवैध रूप से खनन ट्रकों का संचालन हो रहा है, जो कानून और पर्यावरण की सुरक्षा के लिए खतरा बन रहा है। उन्होंने आरोप लगाया कि खनन माफिया बिना वैध अनुमति के खनन सामग्री का परिवहन कर रहे हैं, जिससे सड़कों और पुलों को नुकसान पहुंच रहा है, साथ ही आम जनता की सुरक्षा प्रभावित हो रही है।
उन्होंने यह भी बताया कि खनन माफिया नदियों और खेतों को अंधाधुंध खोद रहे हैं, जिससे पर्यावरण को भारी नुकसान हो रहा है और किसानों की आजीविका खतरे में पड़ रही है। त्रिवेंद्र सिंह रावत ने एक घटना का जिक्र करते हुए कहा कि हरिद्वार में खनन के लिए खोदे गए गड्ढे में बारिश का पानी भर गया, जिसमें एक 15 साल के बच्चे की डूबकर मौत हो गई। उन्होंने केंद्र और राज्य सरकार से अवैध खनन पर रोक लगाने के लिए विशेष टास्क फोर्स गठित करने, रात में खनन वाहनों पर प्रतिबंध लगाने, ओवरलोडिंग रोकने के लिए चेक पोस्ट स्थापित करने और दोषियों पर कठोर कार्रवाई की मांग की।
उनका यह बयान उत्तराखंड में खनन माफिया के बढ़ते प्रभाव, पर्यावरणीय क्षति और प्रशासनिक नाकामी को उजागर करने वाला था।
अवैध खनन पर खनन सचिव बृजेश कुमार संत ने क्या दी प्रतिक्रिया
त्रिवेंद्र सिंह रावत के 27 मार्च 2025 को लोकसभा में अवैध खनन को लेकर दिए गए बयान के बाद, उत्तराखंड राज्य के खनन सचिव बृजेश कुमार संत ने 28 मार्च 2025 को अपनी प्रतिक्रिया दी। उन्होंने त्रिवेंद्र के आरोपों को सिरे से खारिज करते हुए कहा कि राज्य में अवैध खनन पर प्रभावी नियंत्रण लगाया गया है। बृजेश संत ने दावा किया कि राज्य गठन के बाद से 2002 से 2025 तक उत्तराखंड को खनन से कभी भी 200 करोड़ रुपये का राजस्व प्राप्त नहीं हुआ था, लेकिन वित्तीय वर्ष 2023-24 में अवैध खनन पर अंकुश लगाकर यह लक्ष्य हासिल किया गया।
उन्होंने यह भी कहा कि खनन विभाग ने इस साल लगभग 1100 करोड़ रुपये का रिकॉर्ड राजस्व अर्जित किया, जो अब तक का सबसे बड़ा आंकड़ा है। इसके अलावा, अवैध खनन को रोकने के लिए ड्रोन सर्वे, जीपीएस ट्रैकिंग और ऑनलाइन मॉनिटरिंग जैसी तकनीकों का उपयोग किया जा रहा है। संत ने त्रिवेंद्र के बयान को आधारहीन बताते हुए जोर दिया कि राज्य में खनन से संबंधित टास्क फोर्स बेहतर तरीके से काम कर रही है और सरकार ने इस क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति की है। इस तरह, बृजेश संत ने त्रिवेंद्र सिंह रावत के आरोपों का खंडन करते हुए सरकार की उपलब्धियों को सामने रखा और अवैध खनन के मुद्दे पर अपनी स्थिति स्पष्ट की।
क्या अपनी ही पार्टी के विरुद्ध कोई भी सांसद जनहित में अपनी बात संसद में उठा सकता है?
मेरा मानना है कि जी हाँ… कोई भी सांसद अपनी ही सरकार के विरुद्ध संसद में अपनी बात जनहित को देखते हुए उठा सकता है। भारतीय संविधान और संसदीय लोकतंत्र की व्यवस्था सांसदों को यह स्वतंत्रता प्रदान करती है कि वे अपने निर्वाचन क्षेत्र की समस्याओं, जनता के हितों और राष्ट्रीय मुद्दों पर अपनी राय व्यक्त करें, भले ही वह उनकी अपनी पार्टी या सरकार की नीतियों के खिलाफ हो।
संसद में सांसदों का प्राथमिक कर्तव्य अपने मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करना और उनकी समस्याओं को उठाना होता है, न कि केवल अपनी पार्टी लाइन का पालन करना। इसे “व्हिप” व्यवस्था के अपवाद के रूप में देखा जा सकता है, जहां कुछ विशेष विधेयकों पर पार्टी अनुशासन लागू होता है। हालांकि, सामान्य चर्चा, प्रश्नकाल या शून्यकाल में सांसद अपनी सरकार की कमियों को उजागर कर सकते हैं, बशर्ते यह जनहित में हो और संसदीय नियमों का पालन हो।
उदाहरण के लिए, त्रिवेंद्र सिंह रावत ने उत्तराखंड में अवैध खनन का मुद्दा उठाया, जो उनकी अपनी पार्टी (भाजपा) के शासन वाले राज्य से संबंधित था। यह जनहित में एक सांसद की स्वतंत्रता और जिम्मेदारी को दर्शाता है। इतिहास में भी कई बार सांसदों ने अपनी सरकारों की नीतियों की आलोचना की है, जैसे कि 1970 के दशक में कांग्रेस के कुछ सांसदों ने आपातकाल के दौरान अपनी ही सरकार के खिलाफ आवाज उठाई थी। इसलिए, संसदीय नियमों और लोकतांत्रिक भावना के तहत यह पूरी तरह संभव और वैध है।
कहाँ बनता है बिशेषाधिकार का मामला?
खनन सचिव किसी भी हाल में संसद में जनहित में रखे गए अवैध खनन संबंधी मामले को बिना सरकार द्वारा उन्हें अधिकृत किये संसदीय बिशेषाधिकार के आधार पर उसे मीडिया तो बहुत दूर उचित माध्यम तक भी नहीं ला सकते हैं, ऐसा संविधान के अनुच्छेद 105 में बर्णित अधिकारों के तहत सांसदों को संसद में अपने विचारों को व्यक्त करने का अधिकार है। दूसरा सचिव किसी भी अधिकार के अनुसार संसद के पटल में रखे गए विचार, बयान को खारिज नहीं कर सकता। ऐसे में सचिव कोई भी या किसी भी विभाग का हो, पर पार्लियामेंट्री प्रिविलेज़ के तहत बिशेषधिकार हनन का मामला बन सकता है।
क्या होता है पार्लियामेंट्री प्रिविलेज़ (संसदीय बिशेषधिकार)

सामान्य तौर पर, लोकसभा सांसद का संसद में दिया गया बयान संसदीय विशेषाधिकार (Parliamentary Privilege) के दायरे में आता है। संविधान के अनुच्छेद 105 के तहत, सांसदों को संसद में अपने विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता प्राप्त है, और उनके बयानों पर बाहरी हस्तक्षेप या टिप्पणी सीधे तौर पर उचित नहीं मानी जाती। इसका मतलब है कि सांसद के बयान पर किसी राज्य सचिव का सीधे सार्वजनिक रूप से टिप्पणी करना, खासकर उसे “निराधार” कहना, संसदीय विशेषाधिकार का उल्लंघन माना जा सकता है। यह विशेषाधिकार सुनिश्चित करता है कि संसद की कार्यवाही स्वतंत्र और बिना दबाव के चले।

हालांकि, दूसरी ओर, राज्य का खनन सचिव एक प्रशासनिक अधिकारी है, जिसका दायित्व अपने विभाग के कार्यों की जानकारी देना और उसकी नीतियों का बचाव करना है। अगर सांसद का बयान राज्य सरकार के कार्यक्षेत्र से जुड़ा है और उसमें तथ्यात्मक गलतियां होने का दावा किया जाता है, तो सचिव को अपनी स्थिति स्पष्ट करने का अधिकार हो सकता है। लेकिन यह टिप्पणी औपचारिक चैनलों के माध्यम से होनी चाहिए, जैसे कि राज्य सरकार की ओर से आधिकारिक बयान या केंद्र सरकार को रिपोर्ट, न कि व्यक्तिगत रूप से या मीडिया के जरिए सीधे प्रतिक्रिया देना।

इस मामले में, त्रिवेंद्र सिंह रावत के बयान पर उत्तराखंड के खनन सचिव बृजेश कुमार संत की टिप्पणी को “जायज” कहना इस बात पर निर्भर करता है कि यह टिप्पणी किस संदर्भ और तरीके से की गई। अगर सचिव ने इसे व्यक्तिगत रूप से और संसद की गरिमा को चुनौती देते हुए कहा, तो यह अनुचित और संसदीय विशेषाधिकार के खिलाफ माना जा सकता है। लेकिन अगर यह राज्य सरकार की ओर से एक औपचारिक प्रतिक्रिया थी, जो तथ्यों को स्पष्ट करने के लिए दी गई, तो इसे प्रशासनिक जवाबदेही के दायरे में देखा जा सकता है।

फिर भी, प्रोटोकॉल के हिसाब से सचिव को सीधे सांसद के बयान पर टिप्पणी करने से बचना चाहिए था, क्योंकि यह संसद और राज्य प्रशासन के बीच की सीमाओं को धुंधला कर सकता है। बेहतर होता कि यह मामला राज्य सरकार के मंत्रियों या विधायकों के जरिए उठाया जाता, जो संसद में जवाब देने के लिए अधिक उपयुक्त मंच होते।

क्या आपको लगता है कि इस मामले में सचिव की टिप्पणी ने कोई बड़ा विवाद खड़ा किया, या यह सिर्फ एक सामान्य प्रतिक्रिया थी?

भारत के संवैधानिक ढांचे के अनुसार, लोकसभा सांसद के बयान पर किसी राज्य के सचिव का सीधे टिप्पणी करना सामान्य प्रक्रिया नहीं है। राज्य का सचिव, जो एक प्रशासनिक अधिकारी होता है, मुख्य रूप से राज्य सरकार के अधीन कार्य करता है और उसका दायित्व राज्य के प्रशासनिक मामलों तक सीमित होता है। दूसरी ओर, लोकसभा सांसद संसद में विधायी और नीतिगत मुद्दों पर चर्चा करते हैं, जो केंद्र सरकार के दायरे में आता है।

हालांकि, अगर सांसद का बयान किसी राज्य से संबंधित मुद्दे पर हो और वह राज्य सरकार के कार्यक्षेत्र से जुड़ा हो, तो राज्य का सचिव अप्रत्यक्ष रूप से उस पर टिप्पणी कर सकता है, लेकिन यह आमतौर पर औपचारिक चैनलों के माध्यम से होता है, जैसे कि राज्य सरकार की ओर से आधिकारिक प्रतिक्रिया या केंद्र को रिपोर्ट। सीधे संसद में दिए गए बयान पर टिप्पणी करने का अधिकार या अवसर राज्य सचिव को नहीं होता, क्योंकि संसद एक स्वतंत्र संवैधानिक निकाय है और वहां की कार्यवाही में हस्तक्षेप करना प्रशासनिक अधिकारियों के क्षेत्र से बाहर माना जाता है।

अगर पार्टी फॉर्म के हिसाब से सोचा जाय तो पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत द्वारा संसद में दिया गया यह बयान अपनी ही प्रदेश सरकार को असहज करने वाला है। यह सिर्फ़ प्रदेश की पुष्कर सिंह धामी सरकार ही नहीं अपितु भाजपा संगठन को असहज करने जैसा बयान है. यही नहीं त्रिवेंद्र सिंह रावत के संसद में रखे गए इस बयान ने प्रदेश की राजनीति में नया मोड़ भी लाया है। टीएसआर के इन तेवरों की तारीफ कांग्रेस भी करने से पीछे नहीं हट रही है। यह पहली बार नहीं है जब त्रिवेंद्र सिंह रावत इतने मुखर दिखाई दे रहे हैं, इससे पहले भी वह कई मुद्दों पर अपनी सरकार को घेर चुके हैं, जिनसे भाजपा संगठन और मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी असहज हो गए थे।

जो काम पहले होना था, वह अब हुआ। अब राज्यसभा सांसद व प्रदेश अध्यक्ष महेन्द्र  भट्ट ने त्रिवेंद्र सिंह रावत के बयान पर प्रदेश सरकार की स्थिति स्पष्ट करते हुए साफ किया है कि प्रदेश सरकार ने खनन से कितना राजस्व हासिल किया है। सुनिए क्या कहा प्रदेश अध्यक्ष महेन्द्र भट्ट ने :-

क्या त्रिवेंद्र सिंह रावत का यह बयान या असंवेदनशील है?
त्रिवेंद्र सिंह रावत का बयान “शेर कुत्तों का शिकार नहीं करते” एक रूपक (metaphor) के रूप में इस्तेमाल किया गया है, जिसका मकसद संभवतः यह दिखाना था कि वे छोटी या कम महत्वपूर्ण बातों पर ध्यान नहीं देते, जैसे एक शेर छोटे जानवरों (यहाँ कुत्तों) का शिकार करने में अपनी ऊर्जा बर्बाद नहीं करता। यह बयान उनके राजनीतिक संदर्भ या विवाद में उनकी स्थिति को व्यक्त करने का तरीका हो सकता है। हालांकि, इसे शाब्दिक (literal) रूप से लेना और इसकी सत्यता को जाँचना भी दिलचस्प है।
शेर कुत्तों का शिकार नहीं करते, यह एक सामान्य नियम हो सकता है, लेकिन अपवाद संभव हैं। लेकिन त्रिवेंद्र सिंह रावत के बयान का मकसद शायद जैविक सच्चाई बताना नहीं, बल्कि एक कहावत या तंज के जरिए अपनी बात रखना था।
तो क्या यह बयान एक प्रभावी रूपक था या अनावश्यक रूप से विवादास्पद? यह व्यक्तिगत राय का विषय है। कुछ लोग इसे मजबूत और आत्मविश्वास भरा बयान मान सकते हैं, जबकि अन्य इसे अहंकारी या असंवेदनशील समझ सकते हैं। आप क्या सोचते हैं? वहीं यह कहना भी ठीक नहीं है कि खनन सचिव संसदीय बिशेषाधिकार का ज्ञान नहीं रखते अपितु यह कहा जा सकता है कि उनका मीडिया में आई खनन पर प्रतिक्रिया जल्दबाजी में उठाया गया वह कदम है जो डैमेज कंट्रोल कहा जा सकता है।
Himalayan Discover
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