चैत्वाली गायन वादन ..! यानि नारी बिरह वेदना का अनंत आकाश…!
* धुंयेल की धुन में थिरकी विकास नगर की धरा, उत्तम दास के एकल ढोल वादन ने मन मोहा..!
(मनोज इष्टवाल)
चैत्र मास शुरू होते ही चैत्वाली मांगने (दान मांगने) हमने अपने गॉव में अपनी , चाचियों, भाबियों, बहुओं सहित कई दिशा-ध्यानियों के घर आँगन में ढोल की घमक के साथ बड़े सरकार बड़े दरवार राज-मुसद्दी राज परिवार की वृदावली गाते सुनाते जयगान करते इन सभी के मायके से आये आवजी (औजी/बाजगियों) को देखा होगा जिनके पास चैती पसारा लगाने के लिए रिंगाल व बांस से बने टोकरे व सूपे हुआ करते थे। जिनमें ये लोग अन्न मसाले नमक चाय चीनी सभी को दान स्वरुप मांगते थे और विदाई के समय इन्हें व इनके बीबी बच्चों के लिए कपडे देते हुए इन्हें टीका किया जाता था। तब ये चाचियाँ, भाभियाँ, बहुएं इत्यादि अपनी सजल आँखों से इन्हें विदाई देती थी, माना स्वयं अपने माँ बाप भाई बहन के दामन से रुसवा होकर ससुराल जा रही हों। ऐसा लगता था जैसे इनका दिल का गुबार फूट पड़े और सारा खुमार फूट भी पड़ता था! शायद यह परम्परा इतनी सशख्त थी कि ऐसा लगता था मानो साल भर में एक बार आये ये औजी अपनी दिशा-धियाण के सारे दुःख अपने साथ लिए चल दिए हों, क्योंकि जितने दिन भी उनके ये मायके के औजी उनकी ससुराल में रहते थे परिवार के सदस्य खुश हों न हों इनके चेहरे पर बेहद शान्ति रहती थी और वह ख़ुशी महसूस भी की जाती सकती है।
स्वरांजलि संगीत विद्यालय विकास नगर द्वारा आयोजित बार्षिकोत्सव में विद्यालय परिवार द्वारा राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित ढोल वादक टिहरी गढ़वाल के सावली गॉव पट्टी मन्यार के उत्तम दास को विशेष आमंत्रण पर बुलाया गया था उन्हें सम्मानित करने! ऐसे में जब माँ सुरकंडा/चन्द्रबनी के इस औजी की अंगुलियाँ ढोल पर थिरकी तो मानों पृथ्वी नाचने लगी हो। मैंने व्यक्तिगत तौर पर चैत्वाली में ढोल वादकों के जयगान के सुर जरुर सुने थे लेकिन वह पीड़ा नहीं सुनी थी जो आंसू ला दे। जब उत्तम दास ने मंच पर खड़े होकर एकल वादन (ढोल दमाऊ) एक साथ बजाया और चैत्वाली गायी तो आँखें मेरी ही नहीं उत्तम दास की भी रो दी थी। निर्मैत्या ध्याण (बिना मायके वाली बेटी / जिसका अपने मायके में न भाई हो और न माँ बाप) की पीड़ा को अपने शब्दों और ढोल के बोलों में उतारने वाले उत्तम दास ने उस जनता को पिन ड्राप साइलेंस में तब्दील कर दिया। जिस जनता को यह पता ही नहीं कि गढ़वाली भाषा में वह गा क्या रहा है, सच्चे मायने में यही संगीत भी हुआ।
मुझे मूर्धन्य कवि भजन सिंह “सिंह “ की सिंहनाद में वर्णित ऐसी बेटी की पीड़ा के वे शब्द याद आ गए जो चैत्वाली में उत्तम दास जैसे पारंगत ढोली के शब्दों के मिलान से मिलते जुलते थे अब लगता है यह संकलन सिंहनाद में चैत्वाली की ही उपज रही होगी जैसे-
मैतुडा बुलाली ब्वे बोई होली जौंकी,
मेरी जिकुड़ी मा ब्वे कुयेड़ी सी लौंकी।
(मायके बुलायेंगे माँ..,माँ होगी जिनकी, मेरे ह्रदय में तो बादल लगे हैं.)
जौंका होला भाई ब्वे झुमैलो, मैतू बुलाला ब्वे झुमैलो
निर्मैत्या ध्याण ब्वे झुमैलों, बाटू हेरली ब्वे झुमैलो!
(जिसके होंगे भाई माँ झुमैलो, मायके बुलायेंगे माँ झुमैलो,बिना मायके की बेटी माँ झुमैलो, राह ताकती रहेगी माँ झुमैलो)
ये शब्द लिपिबद्ध होकर जब उत्तम दास जैसे ढोल के भवसागार के मुखारबिंदु से निकलकर प्राणी जगत में ढोल के साथ मिश्रित होकर धरा पर बिखर रहे थे, तब लग रहा था मानों कोई अकुलाई बहन इस बसंत के आगमन में चैत्रमास के चितवन में आज भी उतनी ही दुखी है जितनी तब जब इस शब्द संसार की रचना चैत्वाली के रूप में हुई होगी। आपरुपी ढोल को साक्षात शिब माना गया है।
ढोल की गद्द लगी पूड़ा में जहाँ शिब समाये हैं, वहीँ बिना गद्द की पूड़ा में माँ पार्वती समाई बतायी गयी हैं। इसी लिए ढोली जब भी अंगुली से ढोल की पूड़ा में घुर्र देता है तो वह गजबल पूडा यानी राळ (गद्द) चढ़ी पूड़ा होती है और उसकी घुर्र के सुर्र से ॐ शब्द की बारम्बार आवृत्ति होती है। हम तब सोचते हैं क्या ढोल वादक है गजबल (लाकुंड) के साथ घुर्र देने में भी महारथी है? लेकिन यह बहुत कम जानते हैं कि यह प्रयोग ढोल में शिब के आभास करवाने के लिए प्रयुक्त पल होता है और यह तो आज के बाजगी नहीं बल्कि ढोल के मर्मज्ञ ज्ञाता भी नहीं जानते कि ढोल का सहायक एक पूड़ा दमाऊं जिसकी संरचना नगाड़े जैसी होती है उसमें कौन से देवता का वास है और वह क्यों? नगाड़ा हो या दमाऊ दोनों में एक ही देवता अपनी अखंड धुनी लगाए बैठे होते हैं। आप कितने भी मर्मज्ञ दमाऊ या नगाड़ा वादक क्यूँ न हों लेकिन इन्हें जब तक आप अग्नि कुंड की तपती धुनी की आग में ताप नहीं देंगे तब तक इनसे स्वर व सुर नहीं निकलते! इसलिए इन्हें साक्षात शिब माना गया है क्योंकि शिब का यह स्वरुप उनकी धुनी में रमने का माना जाता है।
वर्तमान में हडमधार टिहरी गढ़वाल में रह रहे उत्तम दास ने शुरुआत धुन्येल ताल, फिर उतराई ताल, उकाळ ताल, देवी वंदना ताल से शुरुआत की फिर एकल ताल में चैत्वाली, मंगल बधाई ताल, गणेश ताल, देवी नृत्य ताल, पंडौ वार्ता ताल इत्यादि की प्रस्तुतियां देकर सबका मन मोहा। ऐसे विलक्षण लोक वाद के धनि लोककलाकार को देख जौनसार बावर क्षेत्र के बाजगी समाज ने भी उनकी जी भरकर तारीफ की। उत्तम दास कहते हैं कि यह विरासत युग-युग तक अपना जीवन यूँही बांटती रहे जैसे उनके पूर्वजों ने उन्हें बांटी और वे अपनी आने वाली पीढ़ी को बांटेंगे लेकिन उनका कहना है कि सिर्फ अपने परिवार को ही नहीं बल्कि समाज के हर उस ब्यक्ति को वह इस कला को बांटने को तत्पर हैं जिसे इसकी जरुरत है।