Tuesday, October 8, 2024
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बिसोई गाँव… जहाँ चींटियों ने रखी मंदिर की वास्तुशिल्प !

आज भी विराजमान है महासू के सिर का छत्तर!

* आज भी विराजमान है महासू के सिर का छत्तर! (Himalayan Discover)

(मनोज इष्टवाल)

जौनसार बावर जनजातीय क्षेत्र की जन भी बात आती है तब आप वहाँ की लोक संस्कृति व धार्मिक मान्यताओं से अभिभूत हुये बिना रह नहीं सकते। तमसा व यमुना से घिरे इस क्षेत्र का क्षेत्रफल ब्रिटिश काल में350 बर्ग मील गिना गया है। यह सम्पूर्ण क्षेत्र जहां महासू को अपना आराध्य देव मानता है वहीं नागथात क्षेत्र जोकि खत्त बहलाड़ मेँ पड़ता है नाग पूजा के लिए धर्मग्रन्थों में भी वर्णित है। नागथात देहरादून से मसूरी यमुनापुल होते हुये लगभग 80 किमी दूरी पर जबकि देहरादून विकास नगर, कट्टापत्थर होकर लगभग 85 किमी दूरी पर अवस्थित है। नाग की धरती होने से इसे नागथात कहा गया है जोकि सीला, लाछा, द्वीना और बिसोई की सरहद पर बेहद रमणीक स्थान पर बसा है। यहाँ से मात्र तीन किलोमीटर दूरी तय करने के पश्चात आप बिसोई गाँव पहुँचते हैं जहां काष्ट शिल्प के अद्भुत मिश्रण से निर्मित महासू मंदिर का निर्माण हुआ है। जिसके निर्माण में करोड़ों रुपये खर्च हुये हैं।

(नवनिर्मित महासू मंदिर बिसोई व उसका कलाशिल्प)

क्षेत्रीय समाजसेवी इन्द्र सिंह नेगी ने जानकारी देते हुये बताया कि इस मंदिर को डिज़ाइन करने के लिए उत्तरकाशी से के सी कुड़ियाल बुलाये गए जोकि दून स्कूल के पास आउट व आई आई टी रुड़की से इंजीनियरिंग हासिल किए हैं। जबकि लकड़ी व मंदिर निर्माण के लिए हिमाचल प्रदेश के रोहडू के पास स्थित पारसाबौलाड़ गाँव व उत्तरकाशी जनपद के त्यूनी के समीप बसे पितलांसू गाँव से राजमिस्त्रियों का जत्था यहाँ आया। राजमिस्त्रियों के काम को देख-सीखकर अब  कई स्थानीय शिल्पी भी तैयार हो चुके हैं जो वर्तमान में मंदिर परिसर के अवशेष कार्यों को सम्पन्न करने मेँ जुटे हुये हैं।

(काष्ट व वास्तु शिल्प का अद्भुत मिश्रण)

महासू देवता के बिसोई आने की गाथा भी काफी लोमहर्षक है। किंवदंतियाँ हैं कि नागभूमि में अवस्थित बिसोई व द्वीना गाँव के बीच नपणयाद नामक स्थान पर पानी का जलस्रोत है जिसे अब देवपानी के नाम से जाना जाता है। इस देवपानी मे पानी भरने द्वीना गाँव की एक महिला जाया करती थी जिसे कई बार सिर में छत्तरधारी नाग दिखाई दिया। जिसे मणिधारी नाग भी कहा जाता है। लेकिन वह इसे अपना वहम मानकर यूंही हल्के मेँ ले लेती थी। लेकिन एक दिन जब नाग पानी से काफी देर तक हटा नहीं और उसे घर पहुँचने मे देर हो गई तब घरवालों ने उस से देरी का कारण पूछा। जब उसने घर में वृतांत सुनाया तो सब आश्चर्यचकित रह गए। तब एक युक्ति सुझाई गई कि वह जब भी पानी भरने जाये धूप साथ ले जाये और जैसे ही वह नाग दिखाई दे उसे धूप दीप करे ताकि वह वहाँ से चला जाये। क्योंकि छत्तरधारी नाग सिर्फ उसे ही दिखाई देता था इसलिए यह काम भी उसी को करना था। एक दिन जब नाग प्रकट हुये तब उस महिला ने यही किया। नाग आलोप हो गए और छत्तर वहीं छोड़ गए। घर में अपनी सच्चाई रखने के लिए महिला छत्तर लेकर घर पहुंची तो सबने यकीन किया और छत्तर को घर में ही संभाल दिया।

(देव बाबड़ी  व देव घांडुवा (बकरे) के साथ मंदिर परिसर मे लेखक)

कुछ दिनों बाद घर में तरह तरह की घटनाएं घटित होने लगी। कभी अट्ठाहास के स्वर सुनाई दिये तो कभी रोने की आवाज। आखिर घर के लोग देवमाली के पास जा पहुंचे जिसने बताया कि जो छत्तर आपके घर रखा है वह महासू देवता का मुकुट है अत: उसकी विधिवत पूजा करो। विधिवत धूप-धुन्यारा करने के बाद भी जब यह सिलसिला जारी रहा तब बात बाहर फैली व ग्रामीणों ने इस समस्या के निराकरण के लिए खत्त बहलाड़ की बैठक बुलाई जिसके खत्त सयाणा बिसोई गाँव के ही चौहान जाति के लोग हैं। फिर देवमाली को बुलाया गया और देवमाली ने चावल देखकर बताया कि महासू देवता ने अपने स्थान का चुनाव बिसोई गाँव ही किया है।

अब प्रश्न यह उठा कि बिसोई गाँव मे कहाँ मंदिर बने और कैसे? इस पर देवमाली ने कहा कि महासू स्वयम बता देंगे कि उनका मंदिर कहाँ और कैसे बनेगा उसका डिज़ाइन या वास्तु स्वयं चींटियाँ रखेंगी। कुछ समय बाद मूढ़ियो परिवार के एक खेत में जिसमें गागली (अरबी) के हरे पत्ते उगे हुये थे और अभी गागली की फसल निकालने को तैयार नहीं हुई थी गाँव के मध्य ही स्थित खेत में लाल-लाल बड़े बड़े छींटों ने मंदिर का नक्शा बना रखा था। ऐसे मे फिर लोग देवमाली के पास भागे उन्होने बताया कि वही स्थान महासू ने अपने लिए चुना है। चींटियों ने कई दिन तक अपना घेरा यूंही खेत मेँ डाले रखा लेकिन वहाँ मंदिर निर्माण तो तब तक हो नहीं सकता था जब तक खेत मे कच्ची अरबी थी। किसी की हिम्मत भी नहीं थी कि छींटों भरे उस खेत में पैर रख सके। ऊपर से जौनसार में कच्ची फसल को तहस नहस करना अशुभ मानते हैं। ऐसे मेँ खत्त बहलाड़ के मैहसासा गाँव के दो युवा जीन्दु-गोबिन्दु ने साहस दिखाकर अरबी की फसल काटी और चींटियाँ रेंगती हुई गायब हो गई लेकिन उनके द्वारा बनाए गए नक्शे के आधार पर मंदिर का कार्य प्रारम्भ हुआ जिसके लिए पानी देवपानी जल स्रोत से ही आता था। आखिर मंदिर बसंत पंचमी के दिन बनकर तैयार हुआ और तब से हर बर्ष यहाँ बसंत पंचमी के दिन देवनृत्य का आयोजन किया जाता है।

(देवघांडुवा)

एक जनश्रुति के अनुसार यह भी कहा जाता है कि मंदिर की पूजा के लिए चाहे सर्दी हो बरसात हो या गर्मी! मंदिर के पुरोहित वहीं से नहाकर आते थे व उसी पानी से देवपूजा करते थे। जब पुजारी ज्यादा बुजुर्ग हो गए और सर्दियों मे कई फिट पड़ी बर्फ में जपणयाद (देवपानी) जाने लगे तब वे कई स्थानों पर गिरे व उन्होने महासू से प्रार्थना की कि हे महासू अब मेरी पीड़ा को समझ मैं इतनी दूर नहीं आ सकता। जब पुजारी वापस लौटे तो पाया मंदिर परिसर में ही एक पानी की बाबड़ी उत्पन्न हो चुकी है। अब उसी से पूजा अर्चना होनी शुरू हो गई है। तब से यह क्रम लगातार जारी है लेकिन आज भी भाद्रपद मास की चतुर्थी में जब यहाँ देव जागड़ा होता है तब देव डोली स्नान के लिए देवपानी ही जाया करती थी लेकिन नए मंदिर के निर्माण के बाद से लेकर वर्तमान तक अब देवडोली स्नान के लिए यमुना नदी ले जाई जाती है। वहीं पुरानी दिवाली के रोज मंदिर परिसर में महासू की भांड (बबूल की मोटी रस्सी) खींची जाती है। जिसे देवता को प्रसन्न करने का एक माध्यम माना जाता है। यह मंदिर पहले यामुन घाटी शैली मेँ निर्मित मकानों की शैली का हुआ करता था लेकिन नए मंदिर के निर्माण के बाद इसका प्रारूप बदलकर क्षत्ररेखा प्रसाद शैली का हो गया है। करोड़ों की लागत से निर्मित इस मंदिर के निर्माण मे लगभग 6 बर्ष  मेँ पूरा हुआ। इन्द्र सिंह नेगी बताते हैं कि इस क्षेत्र के नौकरीपेशा लोगों ने मंदिर निर्माण के लिए लगभग एक माह का वेतन दिया तो कई लोगों ने देव आस्था के चलते कई दिनों तक श्रमदान किया है। पूरी खत्त बहलाड़ ने मंदिर निर्माण के लिए समय समय पर चन्दादान किया ताकि मंदिर निर्माण कार्य न रुके।

धर्म के बेजोड़ अनुयायी इस जनजाति के लोग जिस कदर अपने देवता के प्रति निष्ठावान हैं उसी प्रकार देवकृपा से यहाँ कभी भी प्राकृतिक आपदा से कोई नुकसान नहीं पहुंचा है। हाँ लोकसंस्कृति के चितेरे इस समाज को अब जागृत होना पड़ेगा कि उनका सांस्कृतिक परिदृश्य उनके हाथों से तेजी से खिसक रहा है जिसे युवाओं को आगे आकर समृद्धि देनी होगी। आप जब भी जौनसार आए करोड़ों की राशि से निर्मित इस मंदिर के काष्टकला, वास्तशिल्प, व गगनचुम्भी अट्टालिकाओं के दर्शन कर महासू का आशीर्वाद अवश्य लें।

Himalayan Discover
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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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