गढवाल राजवंश के राजमहल श्रीनगर की बड़ी शिलाओं को एक आने एवं छोटी शिलाओं को पाइयों में बेचा गया।
(मनोज इष्टवाल)
सन 1556 से 1868 अर्थात 312 बर्ष जिस राजमहल ने जाने कितने इतिहास रचे वह अंत में कौड़ियों में भाव बिका। जी हां…यह अकाट्य सत्य है कि गढ़राजवंश के महाप्रतापी राजा अजयपाल द्वारा सोलहवीं सदी के मध्य में 52 गढ़ों को जीतकर जब श्रीनगर राजमहल की स्थापना की गई व अजयपाल एक छत्र राजा कहलाये तब उन्होंने अलकनंदा तट गढवाल श्रीनगर में 1556 ई. में ऐसा राजमहल तैयार किया जिसमें एक भी लकड़ी का प्रयोग नहीं हुआ था और यह राजमहल अर्थात प्रासाद पाषाण कला के बेजोड़ नमूना था।
भरतकवि के अनुसार राजा अजयपाल का नाम सुनते ही, उसके शत्रुओं के हृदय कम्पित होने लगते थे। युद्ध में यह युधिष्ठर के समान स्थिर रहने वाला, गुणवानों का आश्रयदाता तथा गद्दाधारी भीम के समान बलशाली था। राजा अजयपाल ने पूरे पाचास बर्ष निष्कंटक राज किया। उनका बनाया राजमहल के बिशाल राजप्रासाद की यश-कीर्ति उन्ही के समान प्रचलित थी। अपनी पुस्तक उत्तराखंड का नवीन इतिहास १०००-१८०४ ई0 में डॉ शिबप्रसाद डबराल “चारण” लिखते हैं कि “राजधानी श्रीनगर में उनके द्वारा निर्मित विशाल प्रासाद उन्नीसवीं शती के आरम्भिक वर्षों तक जीर्णावस्था में विद्यमान था। इसे कटी हुई विशाल शिलाओं को चूने के साथ जोड़कर बनाया गया था। इसके तीन विशाल खण्ड थे। प्रत्येक खण्ड चार मन्जिल ऊंचा था। प्रत्येक मन्जिल में छज्जे लगे थे, जिनके निचले भाग बड़े कौशल से बनाये गये थे। प्रासाद के निर्माण में लकड़ी का प्रयोग नहीं हुआ था। उन्नीसवीं शती के उत्तरार्ध में इसके जो अवशेष, कुछ एकड़ भूमि पर फैले थे, उनमें भी कोई लकड़ी नहीं पायी गई।” खिड़कियों पर पत्थर की बनी जालियाँ लगी थीं, जिन्हें लकड़ी की जाली के समान बनाया गया था। द्वार (दरवाजे) की चौखटें भी पत्थर की बनाई गई थीं। उन्हें लकड़ी की चौखटों के समान चित्रित किया गया था। प्रासाद का मुख्य द्वार विशेष रूप से विशाल एवं सुदृढ़ था और उसे अनेक विचित्र आकृतियों से सजाया गया था। द्वार पर अति विशाल और भारी कपाट लगे हुए थे। उन्हें चौखट से जोड़ते समय, निश्चय ही अनेक मनुष्यों की आवश्यकता पड़ी होगी।
इन दरवाजों के बारे में कहा जाता है कि सैकड़ों (अनेक) व्यक्ति अपनी पूरी शक्ति लगाकर भी उन कपाटों को खड़ा न कर सके, तो राजा ने उपवास और पूजा करके, निर्जन रात्रि में उन्हें स्वयं खड़ा किया था। ऐसा करते समय उसे एक दासी ने देख लिया। राजा ने तुरन्त उस दासी का वध कर दिया, जिससे किसी को रहस्य का पता न लग सके। उन दिनों उत्तराखण्ड में ही नहीं, भारत के विभिन्न भागों तथा अन्य देशों में भी प्रासाद, दुर्ग, जलाशय, कूल आदि के निर्माण करने पर उसके स्थायित्व के लिए नरबलि देने की प्रथा थी। सम्भवतः अजेयपाल ने भी इसी प्रकार प्रासाद का निर्माण पूरा कर लेने पर, उपवास और पूजोप- चार के पश्चात्, रात्रि में, मुख्य द्वार पर उस दासी की बलि चढ़ाई थी ।
कहा तो यह भी जाता है कि प्रासाद (सम्भवतः राजदरबार/राजमहल) से एक सुरंग गंगातट तक निकाली गई थी, जिससे होकर प्रासाद की नारियाँ गंगाजी में स्नान करने जाती थीं। प्रासाद की परिखा में एक स्नानागार था, जिसमें चार मील से भी अधिक दूरी से कूल लाकर जल पहुँचाया गया था। बीच में पड़ने वाली पहाड़ी में बड़ी कुशलता से सुरंग बनाकर बाधा दूर की गई थी। राजा ने श्रीनगर में बागवान भी लगवाये थे। अजेयपाल का विशाल प्रासाद १८०३ ई० के भूकम्प में ध्वस्त हो गया। नया श्रीनगर बसने पर लोग उसका मलबा उठा ले गये। १८६४ ई० में बिरही की बाढ़ के पश्चात् जब नया श्रीनगर बसाया गया तो डिपुटी कमिश्नर की आज्ञा से प्रासाद के मलबे की बड़ी शिलाओं को एक आने की दर से और छोटी शिलाओं को कुछ पाइयों की दर से बेच दिया गया।
मन्दिर-निर्माण –
गंगातट के तीर्थयात्रा-मार्ग पर, प्रमुख स्थानों पर पहले भी राणीहाट, श्रीनगर, देवलगढ़ आदि में छोटे-बड़े मन्दिर रहे होंगे। ‘गढ़वाल का ऐतिहासिक वृत्तान्त’ के अनुसार राजधानी की स्थापना से पूर्व का तप्पड़ खैर के जंगल से आच्छादित था, जो ६१ ज्यूला भूमि पर फैला था। अजेयपाल ने श्रीनगर में राजधानी की स्थापना करके सभा-मण्डप और कालिकादेवी के मठ का निर्माण किया था। कुछ देवालों और गोरखनाथ गुफा की स्थापना भी सम्भवतः उसके शासन में हुई थी। वह आस्तिकों का युग था।
महाराजा अजयपाल ने राजधानी श्रीनगर में तथा उसके पास चारों दिशाओं में संरक्षक देवी-देवताओं की स्थापना की प्रथा के अनुसार मंदिरों की स्थापना थी। अनुश्रुति के अनुसार नरबली लेने वाला श्रीयंत्र, जिसे आदिगुरु शंकराचार्य ने उल्टा कर दिया था, वह भी यहीं विद्यमान था। इतिहासविद्ध हरिकृष्ण रतूड़ी के अनुसार, राजा अजेयपाल ने १५१२ ई० में सत्यनाथ भैरव के मन्दिर की तथा अपनी कुलदेवी राजराजेश्वरी के यंत्र की स्थापना की थी।
डॉ डबराल लिखते हैं कि ‘देवलगढ़ में सत्यनाथ, राजराजेश्वरी तथा गौरजा के मन्दिर ५०० वर्ष पुराने नहीं दिखाई देते। संभवतः पहले जीर्ण-शीर्ण होने पर, तथा १८०३ ई० के भूचाल से क्षतिग्रस्त होने पर जीर्णोद्धार करते समय प्राचीनता की रक्षा न हो सकी। गौरजा मन्दिर में संग्रहीत प्रतिमाओं में से कुछ सम्भवतः वर्तमान मन्दिरों से अधिक प्राचीन है। हर-गौरी की दो छोटी प्रतिमायें दशवीं-ग्यारहवी शती की हो सकती हैं। महिषमदिनी की मिट्टी से बनी विशाल प्रतिमा बहुत पीछे की रचना है। ‘सोमा की मांडा’ में भी संभवतः परिवर्तन हुआ है। यहाँ शिला पर अंकित एक लेख में अजैपाल नाम पड़ा गया है और पास ही उत्कीर्ण मूति को अजैपाल की मूति माना जाता है। काष्ठ, मृतिका एवं शिला से देवप्रतिमाओं का निर्माण सोलहवीं शती में भी होता रहा। प्रतिमा निर्माता यद्यपि गहड़वाल युग की प्रतिमाओं का अनुकरण करते रहे,पर वे उतने कुशल नहीं थे ।
संदर्भ :-हरिकृष्ण रतूड़ी “गढ़वाल का इतिहास”
शूरवीर सिंह पंवार :- अभिलेख एवं दस्तावेज
राहुल सांस्कृत्यायन :- किन्नर देश मे
तारीख-इ-दाउदी
बिजनौर गजेटियर
डॉ शिव प्रसाद डबराल “चारण :-गढ़वाल का नवीन इतिहास
ओकले तथा गैरोला- हिमालयन फौक्लोर
एटकिंशन – हिमालय डिस्ट्रक्ट गजेटियर
भैरव दत्त शास्त्री- पूण्य स्थल श्रीनगर
टिहरी राज्य अभिलेखागार रजिस्टर संख्या 4 पृष्ठ 4